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आखिरी किश्त : आस्था में कल्पना की खिड़कियां
1) मेरे सामने प्रश्न रहा है कि हम अपने देवी–देवताओं के साथ या किसी भी आस्था के साथ कैसे रहें। सिर्फ घंटों मंत्र पढ़ना– सुनना, शंख बजाना अपनी आस्था के साथ रहना नहीं है!
निश्चय ही दो रास्ते हैं–एक, किसी भय या लोभ से कर्मकांडी होकर अपनी आस्था के साथ रहना और दो, देवी–देवताओं को एक मूल्य–छवि के रूप में देखते हुए कल्पनाशील सर्जनात्मकता की राह से अपनी आस्था के साथ रहना। कुछ रचते, बनाते हुए एक अनोखे आनंद के साथ!
यह चुनने की नौबत भी आ सकती है कि हम आस्था का एक विध्वंसक मिसाइल के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं या इसे हृदयानुभूति के उत्सव के रूप में देखते हैं! जब हम उत्सव के रूप में देखते हैं तो दुर्गा का त्रिशूल भी कमल की तीन पंखुड़ियां बन जाता है!
2) हम किसी भी प्राचीन धर्मग्रंथ में दुर्गा की ऐसी कल्पना नहीं पाते, जिसमें महाशक्ति के अगल–बगल आर्थिक संपन्नता ( लक्ष्मी), बुद्धि (सरस्वती), गणतंत्र (गणेश) और जीवन सौंदर्य (कार्तिकेय) का सामंजस्य हो। यह एक नए युग की कल्पना है।
दुर्गा खुद कुछ नहीं हैं, वे विभिन्न देवताओं और शक्तियों के सामंजस्य से निर्मित हैं। हमारा भारत विभिन्न जातियों और संस्कृतियों से ऐसे ही बना है। हमारी हिंदी भी विभिन्न बोलियों और भाषाओं के गर्भ से ऐसे ही बनी है!
दुर्गा और नवरात्रि की लोकप्रियता इसका प्रमाण है कि आम लोग ’भिन्नता’ से सामंजस्य को हमेशा श्रेष्ठ समझते हैं!
3) अकारण नहीं है कि आज आम हिंदू सबसे ज्यादा आनंद का अनुभव दुर्गोत्सव, दिवाली, छठ पूजा, ओणम, पोंगल, मकर संक्रांति, होली, जन्माष्टमी आदि के अवसर पर करते हैं।
हमारा बुद्धिवाद हमें ऐसे अवसर पर मनहूसियत की इजाजत नहीं देता! हमें आम लोगों की खुशियों में शामिल होना है, उनके विश्वास का मखौल उड़ाने की जगह उसका आदर करना है।
निश्चय ही हमारा हिंदू होना गर्व और शर्म से परे एक निरंतर आत्मनिरीक्षण और नवोन्मेष का मामला है।
4) मुश्किल है कि प्रचंड धार्मिक लोग भी अपने देवी– देवताओं के साथ रहना सीख नहीं पाए। वे कथा बांचते–सुनते रह गए।
इसकी एक वजह यह है कि ऐसे लोग अपने सहयात्री भारतवासियों के साथ रहना सीख नहीं पाए। इन्होंने अकसर धर्म को राजनीतिक हथियार बना कर धर्म के मूल्यों को लगातार नष्ट करने का काम किया!
धर्म को दिखावा बना दिया, रुपयों का खेल!
5) यदि हम दुर्गा–काली, शिव–राम–कृष्ण या किसी भी आस्था के साथ रहना खुद नहीं सीख पा रहे हों तो ये कुछ नाम हैं जिनसे हम थोड़ा–बहुत सीख सकते हैं– वाल्मीकि, तिरुवल्लुवर, भवभूति, अपर, बसव, चैतन्य, रामानंद, कबीर– सूर, गुरुनानक, तुकाराम, रामकृष्ण परमहंस, नारायण गुरु, निराला आदि!
हम इनका जीवन, इनका काम देखें और अपने से पूछें कि हम उनसे कितनी दूर चले गए हैं! कोई व्यक्ति अपने माथे पर जितना बड़ा तिलक लगा ले और धार्मिक झंडे लहराए, उपर्युक्त व्यक्तियों से बड़ा ईश्वर भक्त नहीं हो सकता!
6)अतीत हमेशा एक अनसुलझी गुत्थी है। उसमें उदार सोच–कट्टरवाद, रूढ़िवाद–सुधार–विपर्यय की अनगिनत घटनाएं हैं।
वर्तमान की उठापटक की वजह से स्वाभाविक है कि अतीत भी उठापटक से भरा दिखे। इसका यह मतलब नहीं है कि कोई अपने अतीत को सीमित कर ले या उससे भाग खड़ा हो।
क्योंकि आप आम लोगों से भाग नहीं सकते। आमलोग ईश्वर के चौखट पर कुछ कहने तब तक जाते रहेंगे, जब तक देश में बहरे राजा होंगे!
7) आज भी बौद्धिक उपनिवेशवाद वर्तमान की तोड़फोड़ के लिए अतीत से अपने तर्क जुटा रहा है। यह हमारे देश की सकारात्मक स्मृतियों पर आक्रमण है।
फिर भी अतीत की स्मृति कोई ऐसी चीज नहीं है कि कोई कपड़े की तरह उतार दे। वह इस देश के लोगों की आत्मा के रक्त प्रवाह की तरह है। यह रक्त कभी–कभी ज्यादा प्रदूषित हो जाता है!
आस्था में कल्पना की खिड़कियां खोलने का मतलब है, आत्मा के इस रक्त– प्रदूषण को साफ करना!
8) किसी भी सत्ता को सबसे ज्यादा डर इस बात से होता है कि मनुष्य के पास कल्पना करने की शक्ति है। कल्पना करना जंजीरों को तोड़ने की तरह है।
मैं जब ऐसे पूजा–उत्सवों के अवसर पर देखता हूं कि हर परिवार के लोग क्षमता के अनुसार नए कपड़े, नए जूते खरीद रहे हैं, अपने घर के कमरे साफ कर रहे हैं,
नए पकवान की योजना बना रहे हैं, सज–संवर कर साथ खा–घूम रहे हैं, पूजा पंडालों में कलाओं के सौंदर्य का आनंद ले रहे हैं, कुछ छुट्टियों में गांव जा रहे हैं और कुछ पहाड़ों–समुद्र की ओर,
वे तरह–तरह से खुशियां मना रहे हैं और इन्हें बांट रहे हैं, सर्वत्र प्रेम है तो विश्वास हो जाता है कि उनमें स्मृति और कल्पना दोनों शक्तियां बची हुई हैं। दोनों अधूरे हैं एक दूसरे के बिना! और दोनों जब तक हैं,
जीवन में घृणा के लिए कोई जगह नहीं है!
सिर्फ एक कल्पनाहीन आदमी ही हिंसक होता है!
शंभुनाथ
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