डॉ. राममनोहर लोहिया पुण्यतिथि
सामाजिक न्याय और डॉ. राममनोहर लोहिया
वर्तमान राजनीति में जब ‘मंडल-कमंडल’ पुन: आमने-सामने-से लगते हैं, तब आज से क़रीब सौ वर्ष पहले जिस शख्सियत ने घोर रूढ़िवादी दक्षिणपंथी मनुवादी वर्ण व्यवस्था के बीच वर्ण-वर्गभेद रहित सामाजिक न्याय का मुद्दा उठाकर भारतीय राजनीति में उबाल ला दिया था, उन डॉ. राममनोहर लोहिया को उनकी पुण्यतिथि 12 अक्टूबर को याद करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करना ज़रूरी है।
उन्होंने कहा था “मूल्यों की एक विषम सीढ़ी ने हर एक जाति को कुछ दूसरी जातियों के ऊपर खड़ा कर दिया है।” वे यह मानते थे कि-” जालिम वहीं पलते हैं जहाँ दब्बू रहते हैं।”
मायावी राष्ट्रवाद और पाखंडीधर्म की राजनीति पर उनका कहना था-” भगवान् ने मनुष्य को नहीं, अपितु मनुष्य ने भगवान् को बनाया है।” इसका मतलब यह नहीं था कि वे नास्तिक थे!
बल्कि वे भारतीय संस्कृति के सच्चे और पक्के अनुयायी थे , जिनके दर्शन का मूल आधार वसुधैव कुटुम्बकम् रहा।
वे मौलिक मानवीय गुणों से परिपूर्ण सर्वहारा की आवाज़ थे।
उनका चिंतन- उपेक्षित, वंचित, पीड़ित, शोषित एवं दरिद्र ग़रीब व्यक्ति को मूल में रख कर -‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई’ मानस सूत्र पर आधारित है! वे पैदा तो संपन्न सवर्ण मारवाड़ी वैश्य परिवार में हुए थे ,
परन्तु उनका लालन-पालन बहुत गरीबी एवं अभावों के बीच जातपाँत से ऊपर उठकर एक नहीं कई धाय माँओं के आंचल की छायं में हुआ था। बालअवस्था में ही उनकी माताश्री का इंतकाल हो गया था।
संघर्षमय जीवन ही अत्मा को महात्मा बनाता है! वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि एवं दृढ़निश्चयी थे। उनकी शैक्षाणिक प्रतिभा से प्रभावित होकर कुछ परमार्थी समाजसेवी संस्थाओं ने आर्थिक सहायता देकर उन्हें विदेश पढ़ने के लिए भेज दिया।
वे अर्थशास्त्र में पीएच डी करने जर्मनी पहुँच गये। विषय था -‘नमक-कर कानून और सत्याग्रह’।
ताज्जुब इस बात की है कि वहाँ नाजी हिटलर का राज होने के बावजूद उस कॉलेज में वैज्ञानिक ‘आइंस्टीन’ और ख्यातनाम समाजवादी चिंतक ‘शूमाखर’ जैसी शख्सियतें अपना काम कर पा रही थीं!
उनकी छाया में डॉ. लोहिया को समाजवाद को समझने एवं आत्मसात करने का भरपूर मौक़ा मिला। यह सर्वज्ञात है कि वर्तमान समाजवाद की अवधारणा रूस की ‘बोल्शेविक क्रांति’ की देन माना जाता है।
जार्ज बर्नाड शा के अनुसार समाजवाद- ‘सार्वजनिक संपत्ति का समग्र जनता में बराबर एवं भेदरहित विभाजन है।
‘ जबकि ‘बरट्रैण्ड रसेल’ के अनुसार-‘ वह ऐसे लोकतंत्र की संस्थापना का विचार है, जिसमें भूमि एवं पूँजी पर सार्वजनिक अधिकार हो!’
परन्तु गांधीजी ने भारतीय संस्कृति के ‘दान-सेवा’ गुण को आधार बनाकर ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार दिया।अत: लोहिया जी के सामने तीन विचारधारायें थीं- 1 मार्क्सवादी मतलब भौतिकवादी, जिसके नेता थे श्री जयप्रकाश नारायण 2 अंग्रेजी मजदूर लोकतंत्र पर आधारित विचारधारा के पैरोकार -श्री अशोक मेहता थे और तीसरे गांधीजी थे जो आत्मा को आधार बनाकर ट्रस्टीशिप का सिद्धांत दे रहे थे।
परन्तु लोहियाजी ने बीच का रास्ता लोकतंत्रात्मक समाजवाद को चुना।
उनके अनुसार एक ऐसा क्रांतिकारी राजनीतिक संगठन बने ,जो शोषण , भाषा, रंगभेद, वर्णभेद, मूल्य-निर्धारण , जमाखोरी , चारित्रिक भ्रष्टता, पिछड़ापन, अशिक्षा, गरीबी एवं मुफलिसी आदि से छुटकारा दिला कर आमआदमी में जीने का विश्वास जगा सके!
डॉ. लोहिया वे दबंग राजनेता थे जिन्होंने पहली बार ‘गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया और तात्कालीन राजनेताओं की नींद हराम कर दी।उनके द्वारा दी गयी चौखम्भा राज्य (केंद्र, राज्य, जिला और ग्रामराज) की परिकल्पना प्रजातांत्रिक एवं संवैधानिक मूल्य बनाये रखने के लिए आज भी उतनी ही ज़रूरी है।
आज जिस सामाजिक न्याय की बात की जा रही है, तब उसे लेकर लोहिया जी ने तात्कालीन राष्ट्रपतिजी द्वारा बनारस में दौ सो ब्राह्मणों के पैर धोने पर कड़ा विरोध करके संपूर्ण राजतंत्र को हिला दिया था…!
समय-समय की बात है जिस ‘मंडल’ की वजह से स्व. श्री राजीव गांधी को मात खानी पड़ी थी और बरसों के लिए कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी थी, आज उसी मुद्दे को लेकर श्री राहुल गांधी कांग्रेस को वैतरणी पार कराने का मंसूबा बना रहे हैं!
यदि सच में कांग्रेस की अंतरात्मा जाग गयी है, और यह मात्र राजनीतिक चुनावी जुमला नहीं है तो निश्चित ही इसके सफल होने पर सदियों बाद (भगवान बुद्ध और आदिशंकराचार्य के बाद) भारतीय संस्कृति में पुनर्जागरण की शुरूआत हो सकती है…!भारतीय संस्कृति एवं राजनीति की नई परिभाषा लिखी जा सकती है!
डॉ. सुरेश गर्ग ????????????
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