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पूंजी-प्रधान हो गए हैं पर्व-त्यौहार 

by Samta Marg
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पूंजी-प्रधान हो गए हैं पर्व-त्यौहार 

 योगेश कुमार गोयल 

आपसी मेल-जोल, सामूहिकता और आनंद को भूलकर अब हमारे त्यौहार पूंजी के अश्लील, अपराधिक प्रदर्शन पर ज्यादा निर्भर हो गए हैं। हाल में मनाई गई दीपावली इससे भिन्न नहीं है। क्या फर्क आया है पारंपरिक और आधुनिक उत्सवों में? प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता योगेश कुमार गोयल का यह लेख। -संपादक


समाज में जैसे-जैसे आधुनिकता का समावेश हो रहा है, वैसे-वैसे हमारे तीज-त्यौहारों पर भी उसका प्रभाव स्पष्ट देखा जा रहा है। दीवाली जैसा हमारा पारम्परिक त्यौहार भी आधुनिकता की चपेट से नहीं बच पाया है।

पहले लोग दीवाली के दिन श्रद्धापूर्वक अपने घर के अंदर व बाहर सरसों तेल अथवा घी के दीये जलाते थे और रात के समय सपरिवार पूजन में शामिल होते थे, लेकिन अब प्रतीकात्मक कुछ दीये जलाने की रस्म निभाने के साथ मोमबत्तियों व रंग-बिरंगी लाइटों का इस्तेमाल होने लगा है।

पूजन तथा घर में खाने के लिए तरह-तरह के पकवान घरों में ही बनाए जाते थे, लेकिन अब बाजार की मिठाईयों व ड्राई-फ्रूट्स का चलन हो गया है।

हल्के पटाखों की जगह कानफोडू और अत्यधिक जहरीला धुआं उगलने वाले पटाखों ने ले ली है। हर तरफ दिखावे की होड़ और उपहार संस्कृति नजर आने लगी है।


एक विद्यालय की प्रिंसिपल श्रीमती कुसुम शंकर कहती हैं कि पहले लोगों में अपने घर में अधिक-से-
अधिक दीये जलाने और घर की मुंडेर पर दीयों की कतार सजाने के लिए अपार उत्साह देखा जाता था।

लोग दीये जलाने के लिए प्रायः बच्चों के हाथों से ही रूई की बाती बनवाते थे, लेकिन दीयों के लिए बाती भी अब बाजार से रेडीमेड मिलती है और लोगों में दीयों के बजाय रंग-बिरंगी मोमबत्तियों व इलैक्ट्रॉनिक लाइटों के प्रति आकर्षण बढ़ गया है।

कुसुम शंकर बताती हैं कि वे खुद भी अब एक बड़ा दीया जलाकर दीवाली मना लेती हैं।
कुछ समय पहले तक लोग अपने घरों में इकट्ठे दीवाली मनाते थे, लेकिन अब हाई सोसायटी के लोगों में
तो दीवाली भी क्लबों में जाकर मनाने का चलन बढ़ गया है, जहां दिखावे की होड़ होने लगी है कि कौन कितनी फैशनेबल ड्रैस और कितने कीमती गहने पहने हुए है।

उपहारों का चलन तो इतना बढ़ गया है कि प्रतिस्पर्धा के इस युग में हर जगह दीवाली पर महंगे-महंगे उपहार देकर बॉस को खुश करने की होड़ देखी जाती है।

बाजार की मिठाईयों का चलन बढ़ने के कारण दीवाली के अगले दिन बहुत से लोगों के गले राब नजर आते हैं क्योंकि बाजार की मिठाईयां शुद्ध नहीं रही।


दीवाली के बदलते अंदाज पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए बैंक अधिकारी एसके नागपाल कहते हैं कि पहले
जहां आस-पड़ोस में एक-दूसरे के घर जाकर मिठाईयां भेंट करके बधाई देने की परम्परा थी और आपसी मेलजोल तथा भाई-चारे का माहौल देखने को मिलता था, 

वहीं अब लोग आस-पड़ोस में मिठाईयां या उपहार बांटने के बजाय उन्हीं लोगों को उपहार देते हैं, जिनसे उनका कोई लाभ हो और उपहारों में भी मिठाईयों का चलन तो खत्म हो गया है। मिठाईयों की जगह अब महंगे ड्राई फ्रूट्स अथवा महंगे-महंगे उपहार दिए जाते हैं।


पहले जहां धनतेरस पर बर्तन खरीदने की परम्परा थी, वहीं अब लोग बर्तन खरीदने के बजाय विभिन्न
स्कीमों का लाभ उठाकर इस अवसर पर फ्रिज, टीवी, एसी इत्यादि खरीदते हैं।

नागपाल मानते हैं कि अब दीवाली पर दिखावा ज्यादा बढ़ गया है और उसी के अनुरूप खर्च भी बढ़ रहा है। वे बताते हैं कि देश के प्रमुख बैंक अब दीवाली पर लोगों की खुशियों को पूरा करने में उनके सहभागी बन रहे हैं।

लोग चूंकि दीवाली पर काफी खरीददारी करते हैं और इस अवसर पर काफी पैसों की भी जरूरत होती है, इसलिए बैंक इस मौके पर ‘फेस्टीवल बोनान्जा’ इत्यादि विभिन्न आकर्षक योजनाएं शुरू करते हैं, जिसके तहत बैंकों से नवरात्र के समय से दिसम्बर के अंत तक लिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज में कुछ छूट प्रदान की जाती है।

दिल्ली में सरकारी नौकरी कर रहे गुड़गांव के राकेश खुराना कहते हैं कि दीवाली पर अब उपहारों के
आदान-प्रदान का चलन इतना बढ़ गया है कि उपहार बांटने का सिलसिला दीवाली से 15-20 दिन पहले ही शुरू हो जाता है और दीवाली के दिन तक चलता है।

उपहार बांटने की कवायद में काफी धन खर्च करने के साथ-साथ इस दौरान व्यक्ति मानसिक व शारीरिक तौर पर इतना थक जाता है कि उसमें दीवाली की औपचारिकताएं निभाने की सामर्थ्य ही नहीं बचती।

किराना व्यापारी अजेश कुमार कहते हैं कि पहले दीवाली पर खील, बताशे व चीनी के बने खिलौने खूब बिकते थे और लोग लक्ष्मी पूजन में भी इनका उपयोग किया करते थे, लेकिन अब मिठाईयों का चलन इतना बढ़ गया है कि इन सब चीजों का चलन बेहद कम रह गया है। पूजन भी अब मिठाईयों से ही होने लगा है।


रंग-बिरंगी रोशनियों वाले पटाखों की तरफ लोग जरूर पहले से भी ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं और
ज्यादातर ऐसे पटाखों का चलन बढ़ रहा है जो धमाकेदार आवाज के साथ-साथ आसपास के माहौल को भी कुछ पलों के लिए रंगीन बना दें, लेकिन इनके कारण पर्यावरण को कितना भयानक नुकसान हो रहा है और लोगों में इसी प्रदूषण के कारण कितनी तरह की खतरनाक बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है, इससे जानबूझकर अनजान बने रहते हैं।


बहरहाल, प्रकाश पर्व दीवाली पर पहले जो सौहार्दपूर्ण वातावरण देखने को मिलता था, अब वो बात नहीं
रही। लोगों के बीच पहले इस अवसर पर जो सौहार्द देखा जाता था, वह खत्म सा हो गया लगता है और दीवाली पर पूरी तरह आधुनिकता हावी नजर आती है।

पाश्चात्य संस्कृति में रंगे बहुत से युवा भी अब दीवाली पर अपने परिवारजनों के साथ पूजा-पाठ में भाग न लेकर क्लबों व पार्टियों में इस अवसर पर अपने तरीके से जश्न मनाते हैं। (सप्रेस)

 लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार और कुछ चर्चित पुस्तकों के रचनाकार हैं।

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