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महिला श्रम – कार्यबल पर शोध – कार्य को नोबेल

by Samta Marg
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महिला श्रम-कार्यबल पर शोध-कार्य को नोबेल, इधर महिला आरक्षण का झुनझुना

महिला श्रम-कार्यबल पर शोध-कार्य को नोबेल, इधर महिला आरक्षण का झुनझुना

अर्थशास्त्र का 2023 का नोबेल पुरस्कार महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में हुए महत्वपूर्णं शोध-कार्य के लिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय की प्रोफेसर क्लाउडिया गोल्डिन को दिया गया है। गोल्डिन ने अपने शोध में सदियों से महिलाओं की आमदनी और श्रम बाजार के परिणामों पर व्यापक शोधपरक विवरणात्मक अध्ययन किया है। महिला श्रम एवं कार्यबल यानि महिलाओं की आर्थिक भागीदारी एवं सहभागिता की किसी भी परिवार या देश की अर्थव्यवस्था में विशिष्ट भूमिका होती है, जिसकी अक्सर उपेक्षा या अनदेखी की जाती है। यह एक ऐसा मसला रहा है जिसकी अवहेलना भारत ही नहीं अपितु दुनियाभर में होती रही है। महिलाओं की इसी योगदान को रेखांकित करने वाले इस बेहद महत्वपूर्णं शोध कार्य के लिए गोल्डिन को यह नोबेल पुरस्कार दिया गया है, जो महिला श्रम-कार्यबल की सराहना करता है।
महिला श्रम-कार्यबल पर शोध-कार्य को नोबेल, इधर महिला आरक्षण का झुनझुना
अमेरिका की गोल्डिन को अर्थशास्त्र का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार मिलना एक तरह से दुनिया की आधी आबादी के नज़रंदाज़ कर दिये गये महिला श्रम-कार्यबल को सराहना एवं पुरस्कृत करना है।
प्रो. गोल्डिन ने पिछली लगभग दो सदियों के आंकड़ों के अध्ययन के आधार पर उन कारणों का पता लगाया है, जिनके चलते श्रम के मामले में महिलाएं पक्षपात का शिकार होती आती रहीं हैं। विभिन्न कारणों से महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम पारिश्रमिक मिलता है। वैश्विक श्रम बाजार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व चिंताजनक रूप से अत्यंत कम है। अध्ययन बतलाता है कि कमाई और रोजगार दरों में लिंग अंतर कैसे और क्यों बदलता चला आ रहा है। उल्लेखनीय है कि अल्फ्रेड नोबेल की स्मृति में दिया जाने वाला अर्थशास्त्र का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार अब तक 92 अर्थशास्त्रियों को मिल चुका है।
’आर्थिक इतिहासकार और श्रम अर्थशास्त्री के रूप में गोल्डिन के शोध में महिला श्रम शक्ति, कमाई में लैंगिक अंतर या भेदभाव, तकनीकी परिवर्तन, शिक्षा और आप्रवासन सहित अनेक महत्वपूर्ण विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है। नोबेल समिति ने पुरस्कार की घोषणा के दौरान कहा कि ’गोल्डिन ने अपने शोध से सदियों से महिलाओं की कमाई और श्रम बाजार के परिणामों का पहला व्यापक विवरण प्रदान किया है। उनके शोध से नए पैटर्न का पता चलता है, परिवर्तन के कारणों की पहचान होती है और जेंडर गैप के बारे में भी जानकारी मिलती है।’ दरअसल में महिला श्रम से संबंधित निष्कर्ष यद्यपि सदियों इसके बावजूद वास्तविकता के निकट हैं कि महिलाएं भारी भेदभाव की शिकार हैं। अविकसित, विकासशील या विकसित तीनों ही तरह की अर्थव्यवस्थाओं में महिलाओं के साथ भेदभाव जारी है। काम के दौरान वेतन, भत्ते, छुट्टी के मामलों में उनके साथ गैरबराबरी पूर्ण व्यवहार होता ही है।
भारत सहित दुनियाभर में पितृसत्तात्मक व सामंती सामाजिक व्यवस्था की वजह से कामकाजी महिलाएं उपहास, आलोचना एवं भेदभाव की शिकार होती रहीं हैं। यह किसी एक धर्म की बात नहीं है, कमोबेश सभी धर्मों, समुदायों एवं सम्प्रदायों में यही स्थिति है। सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार 2018-19 से 2022-23 के बीच 31 लाख में से मात्र 5 लाख पुरूष जबकि 26 लाख महिलाओं ने पक्की नौकरियां खोई हैं। महिलाओं के सन्दर्भ में गोल्डिन के शोध बहुत महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जब तक आधी आबादी के लिये आर्थिक दृष्टिकोण से समानतापूर्णं वातावरण नहीं बनाया जाता, विकास का लक्ष्य पहुंच से बाहर ही रहेगा।
यहां पर उल्लेखनीय है कि ’पावर ऑफ दि पिल: ओरल कॉन्ट्रासेप्टिव्स एंड वीमेन्स करियर एंड मैरिज डिसीजन्स-2002’ के सह-लेखक गोल्डिन को महिलाओं के श्रम बाजार परिणामों की सामान्य समझ को आगे बढ़ाने के लिए अल्फ्रेड नोबेल की स्मृति में स्थापित अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार मिला है। गोल्डिन का काम ऐतिहासिक विकास को समझने और मापने से संबंधित है कि महिलाएं ऐतिहासिक रूप से श्रम बाजारों को कैसे बदलती हैं और अमेरिका और यूरोप में कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी कैसे बदल गई है। इस महत्वपूर्ण शोधकार्य का सार है कि कैसे जन्म नियंत्रण की गोली यानि गर्भ-निरोधक के आने से 1960 और 70 के दशक में अधिक प्रजनन स्वायत्तता के कारण अमेरिका भर में कार्यबल में नामांकन करने वाली महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गई थी।
गोल्डिन और काट्ज़ का निष्कर्ष गर्भनिरोधक गोली की मंजूरी के बाद महिलाओं के आर्थिक जीवन में आए बदलावों को रेखांकित करता है। अमेरिकी कॉलेज ग्रेजुएट महिलाओं की आजीविका और उनकी पहली शादी की उम्र दोनों उस पीढ़ी के साथ बदल गए जो 1950 और उसके आसपास पैदा हुई थी। 1970 में कानून के प्रथम वर्ष के छात्रों में महिलाओं की संख्या 10 प्रतिशत थी, लेकिन अवांछित गर्भधारण को रोकने की गोली की क्षमता के कारण 1980 में यह संख्या 36 प्रतिशत हो गई। लेखकों ने लिखा है कि ’गोली ने महिलाओं को सेक्स के गर्भावस्था के परिणामों के बारे में कहीं अधिक निश्चितता प्रदान करके दीर्घकालिक कैरियर निवेश में शामिल होने की लागत को सीधे कम कर दिया है।’
श्रम बाजार की महिलाओं में गर्भनिरोधक गोली के सकारात्मक परिणाम का नतीजा यह रहा कि विवाहित अमेरिकियों के बाद, गोली का उपयोग एकल महिलाओं के बीच तेजी से फैल गया। इस अवधि के दौरान अधिकांश अमेरिकी राज्यों में सहमति के लिए कानूनी उम्र को घटाकर 18 वर्ष कर दिया। शोध में महिलाओं के बीच गोली के प्रसार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभावों का भी पता लगाया गया है। 1960 के दशक से पहले तक जो युवा जोड़े यौन संबंध बनाते थे और लड़की के गर्भवती हो जाने पर अक्सर तुरंत शादी कर लेते थे, गर्भनिरोधक गोली ने इस धारणा को बदल कर रख दिया, इससे एक सामाजिक गुणक प्रभाव पैदा हुआ। इसका अर्थ है कि गर्भनिरोधक गोली ने अधिकाधिक महिलाओं को विलंब विवाह और कॅरियर चुनने में धेर्य के लिए प्रोत्साहित किया, जिससे महिला श्रमबल की भागीदारी में बढ़ोतरी होती चली गई।
इधर पिछले दिनों जोरशोर से महिला आरक्षण बिल पारित तो कर दिया गया, लेकिन उसे भविष्य की अनिश्चितताओं के साथ लटका कर रख दिया गया है। जनगणना, परिसीमन की बाध्यताओं की सीमाओं में बांध कर महिला बिल को पारित करना पूर्णंतः राजनीतिक पैंतरा साबित हुआ। तात्पर्य यह है कि एक तरफ दुनिया में महिला सशक्तिकरण एवं महिला सहभागिता एवं भागीदारी पर शोध-कार्यों को दुनिया का नोबेल जैसा सर्वोच्च सम्मान मिल रहा है, तो भारत में महिलाओं को लेकर भी सियासत थमने का नाम नहीं ले रहा है। सवाल है कि क्या इसी तरह हमारी सरकार आधी आबादी को उनका हक देने जा रही है ? लेकिन कब देगी ? और यह अनुत्तरित कब तक रहेगा ? सबसे बड़ा सवाल है।
डॉ. लखन चौधरी
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