विवेकानंद , इस्लाम और धर्मनिरपेक्षता
शिकागो धर्मसंसद में 11 सितम्बर 1893 को भारत के प्रतिनिधि स्वामी विवेकानंद ने भाषण दिया था।
उसका अधिकृत संस्करण बेरो लिखित ’हिस्ट्री ऑफ दी वर्ल्ड पार्लियामेंट ऑफ रिलिजन’ से लिया गया है।
शिकागो की तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में विवेकानन्द के भाषण का ब्यौरा मिलता है, उससे उनके बारे में समझ अधिक विस्तृत होती है।
किसी भी समकालीन अखबार ने अक्षरशः उनका भाषण प्रकाशित नहीं किया।
चार अखबारों ’हेराल्ड’, ’इंटरओशन,’ ’ट्रिब्यून’ और ’रेकाॅर्ड’ ने स्वामीजी के वक्तव्य के अलग अलग हिस्से छापे थे।
’हेराल्ड’ की रिपोर्ट सबसे विस्तृत थी।
इन रिपोर्टों और बेरो के इतिहासवृत्त से विवेकानंद द्वारा शिकागो धर्मसंसद में कहा एक अमर वाक्य प्रामाणिक जानकारी में पहले नहीं था।
प्रारंभिक संबोधन के बाद विवेकानंद के इस वाक्य पर धर्मसंसद में पहली बार तालियां बजीं।
’’मुझे आपको यह बताते हुए गर्व होता है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूं कि जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में ’एक्सक्लूजन’ (बहिष्कार) नामक शब्द का अनुवाद नहीं हो सकता।’’
यह कालजयी वाक्य दुनिया को विवेकानंद के धर्मसंसद के भाषण के बुनियादी ऐलान के रूप में मालूम नहीं था।
विवेकानंद की पश्चिम यात्रा की शोधकर्ता-जीवनीकार मेरी लुइस बर्क ने अन्य खोजों के अतिरिक्त विचारोत्तेजक वाक्य बीसवीं सदी के हवाले किया है।
विवेकानंद भारत के संविधान के 57 वर्ष पहले शिकागो धर्मसंसद में 30 वर्ष के युवक थे।
उन्होंने भारतीय संस्कृति के मूल संदेश का पाठ धर्मान्ध पुरोहित वर्ग को पढ़ाया था।
उन्होंने कहा था,
’’मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं जिसने संसार की सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। सांप्रदायिकता, हठधर्मिता और उनके वीभत्स वंशधर की धर्मांधता इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वह पृथ्वी को हिंसा से भरती रही है, उसके बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही है, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे-पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही है। यदि वे वीभत्स दानवी न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता।’’
विवेकानंद साहित्य में ’इस्लाम’, ’मुसलमान,’ ‘मोहम्मद’ आदि शब्द सैकड़ों बार आए हैं।
वे आश्वस्त थे गुरु श्री रामकृष्ण देव ने
’’हिंदुत्व, इस्लाम और ईसाई मत में वह अपूर्व एकता खोजी जो सब चीजों के भीतर रमी हुई है। श्री रामकृष्ण उस एकता के अवतार थे।‘‘
(खंड-10 पृष्ठ-218) विवेकानंद के अनुसार बौद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म प्रारंभ से ही प्रसरणशील धर्म रहे हैं, लेकिन मुसलमानों ने धर्म परिवर्तन और धर्म प्रचार में शक्ति का प्रयोग सर्वाधिक किया। इसीलिए इस्लाम की साम्राज्यवादी फैलाव की वृत्ति के बावजूद विवेकानंद ने भारत में इस्लाम के आगमन को कई कारणों से ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण माना। उनके अनुसार भारत में इस्लाम के प्रभाव संबंधी निम्नलिखित बिंदु ध्यान में रखे जाने चाहिए –
- मुसलमानों के शासन काल से हमारा उपकार हुआ था। उन्होंने भी (इस) एकाधिकारवाद को तोड़ा था। मुसलमानों की भारत विजय पददलितों और गरीबों को मानो उद्धार करने के लिए हुई थी। (5/187)
- मुसलमान -धर्म संसार में जिस बात का प्रचार करने आया है, वह है मुसलमान धर्मावलंबी मात्र का एक दूसरे के प्रति भ्रातृभाव। मुसलमान धर्म का यही सार तत्व है। (4/136)
- मुसलमानों के लिए हिन्दुओं को जीत सकना कैसे संभव हुआ? यह हिन्दुओं की भौतिक सभ्यता का निरादर करने के कारण ही हुआ। सिले हुए कपड़े तक पहनना मुसलमानों ने इन्हें सिखाया। (3/334)
- सभी धर्मों की उन्नति के बाधक तथा साधक कारणों की यदि परीक्षा ली जाए तो देखा जाएगा कि इस्लाम जिस स्थान पर गया है वहां के आदिम निवासियों की उसने रक्षा की है। वे जातियां अभी भी वहां वर्तमान हैं। उनकी भाषा और जातीय विशेषत्व आज भी मौजूद हैं। (10/113)
- भारत के गरीबों में इतने मुसलमान क्यों हैं? यह सब मिथ्या बकवास है कि तलवार की धार पर उन्होंने धर्म बदला। जमींदारों और पुरोहितों से अपना पिण्ड छुड़ाने के लिए उन्होंने ऐसा किया। बंगाल में जहां जमींदार अधिक हैं, वहां हिन्दुओं से अधिक मुसलमान किसान हैं। (3/330)’’
विवेकानंद कहते थे मुसलमान इस विषय में सर्वाधिक सांप्रदायिक और संकीर्ण हैं।
फिर भी 10 जून 1898 को मुहम्मद सरफराज हुसैन को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा था,
’’हमारी मातृभूमि के लिए इन दोनों विशाल मतों का सामंजस्य-हिंदुत्व और इस्लाम वेदान्ती बुद्धि और इस्लामी शरीर, यही एक आशा है। मैं अपने मानस चक्षु से भावी भारत की उस पूर्णावस्था को देखता हूं जिसका इस विप्लव और संघर्ष से तेजस्वी और अजेय रूप में वेदान्ती बुद्धि और इस्लामी शरीर के साथ उत्थान होगा।’’ (6/405)
भारत के इतिहास में मुगलकालीन इस्लामी वैभव के प्रति विवेकानंद बेखबर नहीं थे।
उनके अनुसार, ’’हिन्दू ही तो मुगलों के सिंहासन के आधार थे। जहांगीर, शाहजहां, दाराशिकोह आदि सभी की माताएं हिन्दू थीं।’’ (10/59)।
’’ शिक्षित मुसलमान सूफी हैं। उनमें और हिन्दुओं में भेद नहीं है।
हिन्दू विचार उनकी सभ्यता में रम गया है और उन्होंने शिक्षार्थी की स्थिति ले ली है।
मुगल सम्राट महान अकबर व्यवहारतः हिन्दू था।’’ (4/332)।
’’शिक्षित मुसलमानों सूफियों और हिन्दुओं को अलग कर पाना बहुत कठिन है।’’
उनके ये विचार प्रासंगिक हैं,
’’बौद्ध, ईसाई, मुसलमान, जैन सभी का यह एक भ्रम है कि सभी के लिए एक कानून और नियम हैं, यह बिल्कुल गलत है। जाति और व्यक्ति के प्रकृति भेद से शिक्षा व्यवहार के नियम सभी अलग-अलग हैं। बलपूर्वक उन्हें एक करने से क्या होगा?’’ (10/51)
‘संसार में एक दूसरे के धर्म के प्रति सहिष्णुता का यदि थोड़ा भाव आज कहीं विद्यमान है तो कार्यतः यहीं…..है। …..हम भारतवासी मुसलमानों के लिए मस्जिदें और ईसाइयों के लिए गिरजाघर भी बनवा देते हैं।’’
(5/14) विवेकानंद विचारों में कुछ भी बासी नहीं लगता।
’’जब दूसरे देशों के मुसलमान यहां आकर भारतीय मुसलमानों को फुसलाते हैं कि तुम विधर्मियों के साथ मिल जुलकर कैसे रहते हो, तभी अशिक्षित कट्टर मुसलमान उत्तेजित होकर दंगा फसाद मचाते हैं।’’ (10/377)
धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का उद्देश्य, ऐलान और अलंकरण है।
क्यों नहीं विवेकानंद के मार्मिक उद्गारों को संविधान के माथे पर शपथ के रूप में अंकित कर दिया जाता।
प्रत्येक संप्रदाय जिस भाव से ईश्वर की आराधना करता है, मैं उनमें से प्रत्येक के साथ ही ठीक उसी भाव से आराधना करूंगा। मैं मुसलमानों के साथ मस्जिद में जाऊंगा।
ईसाइयों के साथ गिरजे में जाकर क्रूसित ईसा के सामने घुटने टेकूंगा।
बौद्धों के मंदिर में प्रवेश कर बुद्ध और संघ की शरण लूंगा और अरण्य में जाकर हिन्दुओं के पास बैठ ध्यान में निमग्न हो उनकी भांति सबके हृदय को उद्भाषित करने वाली ज्योति के दर्शन करने में सचेष्ट होऊंगा।’’ (3/138)
–कनक तिवारी–
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