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शैलेन्द्र चौहान की तीन कविताऍं

by Samta Marg
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किशोरावस्था में बहुत सी बातें

जज्ब होती रहीं देख-सुनकर आसपास

पहली यह कि स्त्री ममतामयी होती है

होती है त्याग की मूर्ति  

और होता है उसका एक चरित्र

वह होती है गंगा की तरह पवित्र

किसी अन्य स्त्री पर गलत निगाह डालने से

उसे छू लेने से हो जाती है अपवित्र

उसका बात करना किसी अन्य पुरुष से

होता है दुश्चरित्र होना

प्रेम-मोहब्बत, घूमना आवारा  

यह सब होता है बस फिल्मों में

वहां जाती हैं चरित्रहीन स्त्रियां

या हो जाती हैं चरित्रहीन वहां पहुंच कर

चरित्रहीन स्त्रियों के लिए होते हैं वैश्यालय

सीखा यह परिजनों, सम्बन्धियों और पड़ोसियों से

बैठ गई यह बात मन में एकदम पूरी तरह ठसकर  

स्कूल के कुछ सहपाठियों से जाना

लड़कियों को छेड़ना मनोरंजन है

उन्हें तंग करना, पकड़ना, जोर-जबरदस्ती करना पुरुषार्थ

बहुत विरोधाभाषी था यह समीकरण

एक ओर पवित्रता, चरित्र, संस्कार

दूसरी ओर यह लम्पटपन

अपनी माँ बहिन पवित्र दूसरी पतुरियाँ !

परेशान रहा मैं इस दुचित्तेपन से

क्या यही होते हैं संस्कार ?

नहीं स्वीकार कर पा रहा था दोहरे मानदंड  

मेरे लिए प्रेम बड़ी चीज थी

फिल्मों और किताबों से सीख रहा था मैं

निर्मला उपन्यास पढ़कर बहुत रोया

देह के अलावा भी होते है मन, भाव, संवेदन

क्यों नहीं समझता यह समाज

एक ओर चरित्र

दूसरी ओर प्रताड़ना और अत्याचार

बना रहा पवित्रता और चरित्र का समर्थक

और अत्याचारों का कटु विरोधी

पिसता रहा दो पाटों के बीच

धीरे-धीरे समझ आया कि

समझा गया सदैव संपत्ति, स्त्रियों को इस समाज में  

बनाया गया पराधीन

ये चरित्र और पवित्रता हैं शोषण के औजार

बदला अब है बहुत कुछ

प्रशस्त है राह

लेकिन पूँजी और बाजार भी

देह के ग्राहक हैं

देह और श्रम हैं अभिन्न

मनुष्यमात्र वस्तु है उनके लिए

रोज मार खाते हुए जीना

मैं उसकी जिजीविषा को प्रणाम करता हूँ

वह एक गरीब मजदूर के घर पैदा हुई

माँ मध्यवर्गीय लोगों के यहाँ झाड़ू-पोंछा करती

दो भाई तीन बहनें

उसका नंबर बीच में कहीं रहा होगा

पोलियो से पैर लकवाग्रस्त हुआ

किशोर होते होते शुरू हुआ पिटने का सिलसला

कभी बाप कभी भाई आजमाता हाथ

जाने लगी काम पर, माँ के साथ

ब्याह दी गई पंद्रह वर्ष की उम्र में बीस बरस के मरद के साथ

मजदूर और पियक्कड़

माँगता दारू के लिये पैसे

मारता रोज

मर गया आदमी

खराब हो गई थी किडनी

चाहती थी ब्याह करना देवर से

था वह शादीशुदा

भाइयों को नहीं रास आया यह संबंध

फिर वही मार खाने का सिलसिला

लड़का बड़ा हुआ गया बाप के नक्शेकदम पर

आवारा पियक्कड़

माँगता पैसे

न मिलने पर उठाता हाथ

उसे ठीक करने के सारे जतन हुए विफल

दवा, पूजा, झाड़-फूंक

किया सब कुछ

वह रोज पिटती है

रोना रोती है काम करने वाले घरों की महिलाओं से

एक लड़की मंदबुद्धि

उसका विवाह किया एक मिस्त्री से

सास मारती उसे  

मंदबुद्धि होने पर देती ताने

उसकी चिंता में घुलती

रोती पीछे आंगन झाड़ते चुपके चुपके

ममता कचोटती

पिटती है, रोती है, झाड़ू पोंछा करती है

स्वाभिमानी है बहुत

मजाल कोई कह दे कुछ गलत बात

जबाब देती पलट कर

सुबह नौ बजे घर से निकलती है

छह बजे वापस लौटती है

खटती है दिन भर

ऐसे भी जीते हैं लोग

मुझे दुख होता है

मैं नहीं मानता भाग्य को लेकिन

उसका दुर्भाग्य साफ नजर आता है

बहुत कुछ क्षरित हुआ है

खंड़ित हुआ है

लक्ष्य दूर, दूरतर होता गया

घर के अंदर वस्तुएं ठीक से रखी गई हैं

सौंदर्यबोध का ध्यान रखा है

चित्राकृतियां हैं, किताबें हैं, संगीत यंत्र हैं, खुलापन है

बाहर हवा प्रदूषित है, गंदगी है, सबकुछ हौचपौच है, तंत्र विकल है

यह तो सामान्य बात है

दशकों से यही देखता आया हूँ

लोग अपने घरों को सहेज रहे हैं, सामान जुटा रहे हैं, मकान ऊँचे उठा रहे हैं, संपन्नता है

कुछ छोटे मकान हैं, झोंपड़ियां हैं, श्रमिक हैं

बेरोजगार हैं, निर्भर हैं सरकारी सहायता पर, सब्सिडी पर

असंगत विकास हुआ, अ-समान वैभव बढ़ा है, पूँजी बढ़ी, कॉर्पोरेट बढ़े हैं

सामाजिकता, सद्भाव, सौहार्द, मनुष्यता, लोकतंत्र सहमे-सहमे हैं

नागरिकता विपन्न है

सत्तासुख में लीन खलनायक आदर्श हैं

सौंदर्यबोध संपन्नता का अनुचर है  

यही एक गाँठ है

दशकों पहले बाँधी थी

सामाजिक उन्नति, मनुष्यत्व का विकास, समान अवसर, दायित्वबोध, समादर और अपमान मुक्ति

देखना अभीष्ट था

नहीं खुल रही गाँठ

शिथिल हो रही हैं मांसपेशियां

वसंत में खिल उठते हैं वॄक्ष वनस्पति

नवयौवन आता है पुनः

युवापीढ़ी दॄष्टिवान है

विश्वास है उस पर

शैलेन्द्र चौहान

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