
भारतीय कला-इतिहास के मर्मज्ञ और प्रख्यात कला इतिहासकार बीएन गोस्वामी का कल निधन हो गया।
धीरे-धीरे हमारे बीच से ज्ञान के अभूतपूर्व साधकों की पीढ़ी उठती जा रही है।
दशकों तक साधना करने वाले ऐसे विद्वान, जिन्हें दुनिया ने मान दिया। यह बृजेंदर नाथ गोस्वामी (1933-2023) जैसे साधक विद्वान के लिए ही सम्भव था कि वह कला में मौन के महत्त्व को रेखांकित कर सके। नैनसुख और मानकु जैसे चित्रकारों को कला-इतिहास की दुनिया में उनका प्राप्य दिलाने के लिए जिस साधना की ज़रूरत थी, वह बीएन गोस्वामी जैसे साधक ही सम्भव कर सकते थे।
प्रशासनिक सेवा से इतिहास और इतिहास से कला-इतिहास की ओर उनके आने में कला और ज्ञान के प्रति उनके गहरे अनुराग ने बड़ी भूमिका निभाई। साठ के दशक में इतिहासकार जेएस ग्रेवाल के साथ मिलकर बीएन गोस्वामी ने मुग़लकालीन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के सम्पादन का महत्त्वपूर्ण काम किया था। इसी क्रम में, वर्ष 1967 में बीएन गोस्वामी ने जेएस ग्रेवाल के साथ मिलकर ‘द मुग़ल्स एंड द जोगीज़ ऑफ़ जखबर’ संपादन किया। जिसमें पंजाब के जखबर गाँव के नाथपंथी योगियों को मुग़ल शासकों से मिले मदद-ए-म’आश और दूसरे अनुदानों से जुड़े दस्तावेज़ संकलित थे।
जखबर के ये नाथपंथी योगी कनफटा संप्रदाय से सम्बन्धित थे। जखबर के महंत बाबा ब्रह्म नाथ और उनके विद्वान शिष्य महंत शंकर नाथ ने बड़ी उदारता से जोगी गद्दी के ये दस्तावेज़ बीएन गोस्वामी और जेएस ग्रेवाल को अध्ययन और प्रकाशन के लिए उपलब्ध कराए।
धीरे-धीरे बीएन गोस्वामी की रुचि कला-इतिहास के प्रति हुई और पहाड़ी कला ने तो उनका मन ऐसा मोहा कि उन्होंने अपना समूचा जीवन भारतीय कला के विविध पक्षों को जानने-समझने को अर्पित कर दिया। और दुनिया ने उनकी कला-दृष्टि और कला-इतिहास सम्बन्धी उनके चिंतन का लोहा माना। कला-इतिहास जैसी विशेषज्ञता की मांग करने वाले विषय को वे आम लोगों तक पहुँचाने के लिए भी तत्पर रहे। ‘द ट्रिब्यून’ के सम्पादक हरि जयसिंह के आमंत्रण पर उन्होंने सौ से अधिक लेख कला सम्बन्धी विविध विषयों पर लिखे, जो बाद में ‘कन्वरसेशंस’ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए।
कला इतिहास के क्षेत्र में पिछले तीन महीने के भीतर दो बड़े कला-इतिहासकारों के निधन से जो रिक्तता पैदा हुई है, उसकी भरपाई मुश्किल है। जुलाई के आख़िर में कला-इतिहासकार कविता सिंह का निधन हुआ और अब बीएन गोस्वामी का। कविता सिंह बीएन गोस्वामी की शिष्या थीं और उनके लेखन और कला-सम्बन्धी चिंतन पर बीएन गोस्वामी का गहरा प्रभाव था।
कला, साहित्य, इतिहास की दुनिया में समान रूप से आवाजाही करने वाले बीएन गोस्वामी ने अपने जीवन के आख़िरी सालों में भारतीय कला में प्रदर्शित बिल्लियों की छवियों पर शानदार काम किया। भारतीय कथा-साहित्य में, कला में, कविताओं और कहावतों में बिल्लियों को कैसे दर्शाया गया, इस पर उन्होंने ‘द इंडियन कैट’ शीर्षक से एक रोचक किताब लिखी।
कविता में उनकी बेहद दिलचस्पी रही। अकारण नहीं कि उनके लेखों, व्याख्यानों में आप रूमी, ग़ालिब, मीर तकी मीर, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के तमाम उद्धरण पाएँगे। अपने एक व्याख्यान का आरम्भ बीएन गोस्वामी ने फ़ैज़ की इस मशहूर नज़्म के साथ किया था। फ़ैज़ की ये नज़्म ज्ञान की दुनिया के प्रति बीएन गोस्वामी की प्रतिबद्धता की ही मानो बानगी देती है :
हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे
जो दिल पे गुजरती है रक़म करते रहेंगे।
अलविदा उस्ताद!
डॉ. शुभनीत कौशिक