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सिकंदर से सुकरात की ओर!लोहियाजी की क्रन्तिकारी

by Samta Marg
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सिकंदर से सुकरात की ओर!

 

लोहियाजी की क्रन्तिकारी प्रज्ञा के अनुसार सच्चा समाजवाद वह है जहां प्रतिष्ठा का मानदंड वैभव न होकर प्रतिभा हो,

अर्थात बौद्धिक क्षमता और दार्शनिक गुणवत्ता हो।

परंतु उन्हें इस बात का रंज था कि सर्वत्र सामंती अधिपत्य के कारण अभी तक ऐसी जनचेतना का विकास नहीं हो पाया

जो सहस्त्राब्दियों से पोषित सामंती मानसिकता को ध्वस्त कर प्रतिभा को प्रतिष्ठा की पीठिका पर अधिष्ठित कर सके।

लोहियाजी के चिंतन की भावभूमि उस समय और स्पष्ट हो गई,

जब वे 1961 में विश्व-समाजवादी सम्मलेन में भाग लेने यूनान जा रहे थे।

दिल्ली के हवाई अड्डे पर एक पत्रकार ने लोहियाजी से पूछा

“अच्छा आप सिकंदर के देश यूनान जा रहे हैं?”

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लोहियाजी ने तपाक से उत्तर दिया

“नहीं, मैं सुकरात के देश यूनान जा रहा हूँ”

किंतु समूचे यूनान में सिकंदर के नाम की धूम थी। सुकरात 1 का वहाँ कोई नामलेवा न था।

खिन्न होकर लोहियाजी ने कहा था

“एक महान दार्शनिक और दूसरा महान सेनानी, वैभव का प्रतीक।

पर लगता है,इतिहास वैभव के पक्ष में है, दार्शनिक(प्रतिभा)के पक्ष में नहीं।”

और वे बड़ी ही वेदना के स्वर में बोले

“पता नहीं वह शैक्षणिक प्रणाली कब तक विकसित होगी जो हमें सिकंदर से सुकरात की ओर ले जाएगी।”

 

डॉ बाबूलाल गर्ग
(स्रोत:लोहिया के सौ वर्ष)

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