बदरीविशाल पित्ती : वह शालीन संवेदनशील व्यक्तित्व

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— प्रयाग शुक्ल —

साहित्य, संगीत, चित्रकला, नाटक और राजनीति में किसी की रुचि समान रूप से हो, यह तो संभव है, पर उतनी गहराई में हो, जितनी बदरीविशाल पित्ती में थी, तो उसे दुर्लभ ही माना जाएगा। यह तो सभी जानते हैं कि ‘कल्पना’ जैसी श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका बदरीविशाल जी ने अपनी सूझ-बूझ और अपने धन-साधन से अपनी युवावस्था में ही शुरू की थी, और उसे एक लंबे अरसे तक उन्होंने चलाए भी रखा। इस बात की जानकारी स्वयं कला-जगत की नयी पीढ़ियों को कम ही है कि वे सुप्रसिद्ध चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसेन के कला-गुणों के पहले पारखियों में से प्रमुख थे, और जब हुसेन इतने प्रसिद्ध नहीं हुए थे तब से वे उनके चित्रों का संग्रह करते रहे थे। हुसेन से उनकी गहरी आत्मीयता भी रही।

‘कल्पना’ का प्रवेशांक, अगस्त 1949

मैं जब बदरीविशाल जी के साथ ‘कल्पना’ में था (1963-64 में) तब हुसेन को प्रायः हैदराबाद आते, और उन्हीं के साथ ठहरते भी देखा है। हुसेन साहब के लिए बदरीविशाल जी के परिवार के ‘मोती भवन’ में बराबर एक कमरा आरक्षित रहता था। अनंतर बदरीविशाल जी के यहां रहते हुए ही हुसेन साहब ने रामायण चित्रों की शृंखला की रचना की थी। स्वयं हुसेन से मेरा परिचय भी ‘कल्पना’ के प्रसंग से हुआ, कला में मेरी रुचि बढ़ी, और इसके लिए भी मैं बदरीविशाल जी का ऋणी हूं। और हुसेन ही क्यों? बदरीविशाल जी के विपुल कला संग्रह में विनोदबिहारी मुखर्जी, रामकिंकर, रामकुमार से लेकर, लक्ष्मा गौड़ और उनकी बाद की भी पीढ़ियों के ढेरों काम हैं। वे केवल कला के संग्रहकर्ता ही नहीं थे, कला के पारखी भी थे। संगीत और नाटक की गतिविधियों से भी वे अपने को जोड़े रखते थे। पंडित जसराज समेत हमारे समय के कई श्रेष्ठ संगीतकार भी उनकी आत्मीयता के घेरे में रहे हैं। और अपने यहां वे संगीत की छोटी-मोटी महफ़िलें भी आयोजित करते रहते थे।

राजनीति की दुनिया में वे समाजवादी आंदोलन से जुड़े हुए थे- बड़ी सक्रियता के साथ, पर अपने को आगे-आगे रखनेवालों में वे किसी भी क्षेत्र में, कभी नहीं रहे। सो, राममनोहर लोहिया के अत्यंत आत्मीय बदरीविशाल पित्ती की सक्रियता लोहिया साहित्य के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन, और समाजवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को, साधन-समर्थन-सहयोग देने तक सीमित रही, बदले में वे समाजवादियों के प्रेम और आत्मीयता के ही आकांक्षी रहे। इसे भी मैं कुछ कृतज्ञतापूर्वक ही याद करता हूं कि डॉ लोहिया से भी उन्होंने ही 1965 में मेरी भेंट करायी, और इस भेंट का सुपरिणाम मेरे लिए यह हुआ कि लोहिया के असामयिक अवसान (1967) तक मैं लोहिया का स्नेह-भाजन बना रहा। ‘जन’ की हर माह आयोजित होनेवाली गोष्ठियों में भी शरीक होता रहा। ये गोष्ठियां डॉ लोहिया के तब के निवास 7, गुरुद्वारा रकाबगंज में आयोजित हुआ करती थीं। स्वयं राजनीति और सामाजिक अध्ययन के लिए यह प्रेरक बनी, और मैं एक साहित्यकार के नाते, उन जरूरी रुझानों की ओर उन्मुख हो सका, जिनके प्रति एक साहित्यकार को उन्मुख होना ही चाहिए।

आज इस बात की याद सहज ही आती है कि लोहिया और उनके बदरीविशाल पित्ती जैसे सहयोगियों ने हिंदी समेत, सभी भारतीय भाषाओं के प्रति एक जरूरी स्वाभिमान की लौ जगायी थी। और भारतीय भाषाओं समेत, लोहिया का शुरू किया हुआ दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, और जातिप्रथा विरोधी आंदोलन तथा समाज और राजनीतिक सुधार के कई अन्य आंदोलन, भले ही कुछ मुरझा चुके हों, या अपने असली रूप से भटका दिये गये हों, पर उनका जो वैचारिक और आंदोलनात्मक आधार था, वह तो देश-समाज-दुनिया के लिए बराबर काम का रहेगा।

‘कल्पना’ के प्रवेशांक का संपादकीय

बहरहाल, रेखांकित करनेवाली बात यह भी है कि बदरीविशाल जी जैसे समाजवादी, और लोहिया विचार के पक्षधर, यह भलीभांति जानते और समझते थे कि कलाओं और साहित्य की अपनी एक ‘स्वायत्तता’ या  ‘इयत्ता’ होती है, और राजनीति तथा साहित्य-कलाओं की गतिविधियों के बीच एक आवाजाही तो होती रह सकती है, पर इनके आपसी रिश्ते तभी रचनात्मक बने रह सकते हैं जब इनको अपनी-अपनी तरह से काम करते रह सकने की छूट हो। सो, बदरीविशाल जी की ‘कल्पना’ हो या लोहिया का ‘जन’ मासिक, यहां साहित्य और रचना को जगह और प्रतिष्ठा उनकी अपनी शर्तों पर ही मिली।

आज जब लेखक से कई राजनीतिक दल और लेखक संघ, प्रतिबद्धता की मांग करते हैं, तो उस प्रतिबद्धता से आशय उनका खुले समर्थन से होता है, जहां किसी तरह के विरोध या असहमति के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती है, पर समाजवादी बदरीविशाल पित्ती की ‘कल्पना’ गवाह है कि वहां रचना और विचार की आंच को ही प्रमुखता दी जाती थी। और विभिन्न विचारधाराओं और मतवादों से संबंधित लेखक-कवियों को नहीं, उनकी रचनात्मक लौ को ही जगह दी जाती थी। सो भगवतशरण उपाध्याय, अज्ञेय, मुक्तिबोध, धर्मवीर भारती, दिनकर, हरिशंकर परसाई, निर्मल वर्मा, मार्कण्डेय, कमलेश्वर, कृष्णनाथ आदि इसमें एक साथ दीख पड़ते थे। और समाजवादी किशन पटनायक, ओमप्रकाश दीपक भी, उसमें साहित्य और विचार-सूत्र से बँधे हुए दीख पड़ते थे- अपने समाजवादी होने के कारण नहीं। मुझको वे दिलचस्प शामें याद हैं जब ‘कल्पना’ संपादक मंडल के वरिष्ठ सदस्य मधुसूदन चतुर्वेदी जी के यहां कभी-कभार होनेवाली बैठकों में स्वादिष्ट पूरी-कचौड़ी होती थी, पर रचनाओं की परख का ‘स्वाद’ भी  ओझल नहीं किया जाता था।

स्वयं बदरीविशाल जी को अलग-अलग क्षेत्रों की मर्यादाओं और शर्तों के पालन का पूरा ध्यान रहता था सो, लोहिया, हुसेन, अज्ञेय को वह आपस में मिला भले देते रहे हों, पर उनके अलग-अलग क्षेत्रों की रचनात्मक स्थितियों को, और उनके ‘माध्यमों’ की अपनी-अपनी विशेषताओं को न तो स्वयं भूलते थे, और न औरों को भूलने देते थे। मैं इसे अपना सौभाग्य ही मानता हूं कि मैंने साहित्यिक और कला-पत्रकारिता ‘कल्पना’ से और बदरीविशाल जी के सान्निध्य में शुरू की। इस सान्निध्य से जहां बहुत कुछ सीखने को मिला, वहीं यह भी पहचाना कि व्यक्ति किस तरह अपने को ओझल रखकर भी समाज और संस्कृति के काम आ सकता है।

बदरीविशाल जी व्यक्तिवादी नहीं थे, पर अपने ‘व्यक्तित्व’ को लेकर उनमें निश्चय ही एक सजगता थी। पहनावे में सुरुचि और सादगी के क़ायल मालूम पड़ते थे, और उनकी सफेद धोती, कुरता, जाकिट और सुनहरी कमानी के चश्मे के साथ जूते-चप्पलें आदि सब, सावधानी से चुने और बरते गये लगते थे। एक अभिजात शालीनता भी उनमें निश्चय ही थी। खाने-पीने के शौकीन थे और तरह-तरह के व्यंजनों की जानकारी रखते थे। इत्र और सुगंधियों के पारखी भी थे। पर इन चीजों के कारण, वह सामान्य, जमीनी सचाइयों के साथ न रह पाते हों, ऐसा भी नहीं पाया। नेता और कार्यकर्ता से तो उन्हें समान रूप से व्यवहार करते हुए देखा ही, कनॉट प्लेस के गेलार्ड रेस्तराँ से लेकर जामा मस्जिद के करीम होटल तक, और पुरानी दिल्ली की भीड़-भरी गलियों में, सहज ही विचरते हुए भी देखा।

हैदराबाद की भी ऐसी ही बहुत-सी छवियां याद हैं। मुनीन्द्र जी के घर पर, जहां मैं भी कुछ महीने रहा था, वह आते तो एक पारिवारिक सदस्य की तरह ही शामिल हो जाते थे। मित्रों-परिजनों और आत्मीय लोगों के साथ हास-परिहास भी वे भरपूर करते थे। उनमें वाक्चातुर्य और विनोदप्रियता की भी कोई कमी न थी, पर ये चीजें उनके व्यक्तित्व में स्वभावतः तभी ‘खुलती’ थीं जब वे जान-मान लेते थे कि सामने वाले व्यक्ति से ऐसा संबंध है कि हास-परिहास की कड़ियां भी पिरोयी जा सकती हैं।

स्मृतिशील बदरीविशाल जी के स्वभाव में एक जरूरी चौकन्नापन भी था, और आसपास जो कुछ घटित हो रहा होता था, उसे वे लगातार दर्ज करते थे, और तदनुरूप उसपर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते थे। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि ऐसी थी, और व्यक्तित्व भी ऐसा कि शुरू में लोग उन्हें कुछ ‘दूर’ का मान बैठते थे, पर उनके साहचर्य से वह दूरी मिट जाती थी। मैं उनके साथ कई बार हैदराबाद में आबिड्स के क्वालिटी रेस्तराँ में पंद्रह-बीस लोगों की मंडली के साथ बैठा हूं। और यही देखा है कि हर व्यक्ति का ध्यान वह समान रूप से रखते थे।

सुनता हूं, एक बार भरी सभा में उन्होंने कहा था कि “हां, मैं एक धनी परिवार में पैदा जरूर हुआ हूं पर मैंने पैतृक संपत्ति में कुछ जोड़ा नहीं है, घटाया ही है।” और यह बात अक्षरशः सत्य थी। दूसरों की राय को वे ध्यानपूर्वक सुनते थे। ‘कल्पना’ का संपादक मंडल भी शोभा की चीज नहीं था, हर संपादक के पास विचारार्थ रचनाओं की फाइल भेजी जाती थी, जिस पर वह अपनी टिप्पणियां लिखता था।

हिंदी की स्थिति को लेकर वे बराबर चिंतित रहे, और ज्यादा अरसा नहीं बीता जब उन्होंने कई लोगों के पास विचारार्थ एक मुद्रित प्रपत्र भेजा था। इसमें हिंदी की वर्तनी संबंधी कई मूल्यवान सुझाव थे। ‘कल्पना’ मासिक का स्तंभ ‘यह बेचारी हिंदी’, तो इसके लिए ख्यात ही हुआ कि हिंदी में भाषा संबंधी प्रयोगों की जांच-परख होती रहे, और हिंदी के प्रति पत्र-पत्रिकाओं में बरती जानेवाली असावधानी की ओर ध्यान दिलाया जा सके। वे इस स्तंभ को स्वयं भले न लिखते रहे हों, पर इसके पीछे की प्रेरणा भी कहीं-न-कहीं उन्हीं की थी। लोगों के पत्रों का जवाब वे समय पर ही दें, और किये गये वायदों को पूरा करें, इसका पूरा ध्यान रखते थे।

वे एक से अधिक अर्थों में एक जिम्मेदार नागरिक थे, और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनका विश्वास था। उनके गुणों, और स्नेही-रूप को याद करनेवाले बहुतेरे हैं, और वे जानते हैं कि बदरीविशाल जी के न रहने पर उन्होंने अपने परिचय-क्षेत्र का एक दुर्लभ व्यक्तित्व वास्तव में खो दिया है।

(पित्ती जी के बारे में यह लेख प्रयाग शुक्ल की वाग्देवी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक स्मृतियां बहुतेरी में संकलित है )

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