सांप्रदायिकता के विरुद्ध एक कार्यक्रम – किशन पटनायक

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किशन पटनायक (30 जून 1930 – 27 सितंबर 2004)

( दूसरी किस्त )

संघ परिवार की हाल की गतिविधियों से उसका जनाधार निश्चित रूप से बढ़ा है। लेकिन भारतीय समाज और हिन्दू धर्म के बहुकेन्द्रीय स्वभाव के कारण यह सम्भव नहीं है कि साम्प्रदायिकता की भावना को फैलाकर राम मन्दिर जैसे सवालों को उठाकर भाजपा केन्द्र का शासक दल बन जाए। मन्दिरों के सवालों को अगर बहुत ज्यादा खींचा जाएगा, यानी काशी-मथुरा में भी अयोध्या की घटना दोहराने की कोशिश होगी तो उसका उल्टा असर भी पड़ सकता है। केन्द्र में सत्ता प्राप्त करने के लिए भाजपा को अपनी साम्प्रदायिकता सीमित करनी होगी और अन्य सवाल उठाने पड़ेंगे। इसलिए राष्ट्र-विरोधी आर्थिक नीतियों का सवाल कई बार भाजपा की बैठकों में उठता है।

लेकिन अयोध्या के कार्यक्रम की सफलता से भाजपा एक विरोधाभास में फँसी हुई है। कुछ प्रकार के देसी और विदेशी स्वार्थ भाजपा की राजनीति पर हावी हो गये हैं, जिनका दबाव नयी आर्थिक नीतियों के पक्ष में है। कुछ धनी आप्रवासी भारतीयों का समूह भाजपा की मदद इसलिए कर रहा है कि भाजपा नयी आर्थिक नीतियों का विरोध न करे। इस दबाव से भाजपा झुक रही है। इसलिए डंकल प्रस्ताव के पूर्ण विरोध का निर्णय लेना भाजपा के लिए सम्भव नहीं हो रहा है। धनी आप्रवासी भारतीयों का समूह भाजपा से यह कहेगा कि केन्द्र में सत्ता में आने के लिए अमेरिका उसको (भाजपा को) मदद करेगा। अत: राजनैतिक सफलता के लिए इन आर्थिक नीतियों का विरोध करना जरूरी नहीं है। भाजपा इस लालच में पड़ सकती है। देश के लिए यह बहुत बुरा होगा!

ऐसी हालत में भाजपा को राजनैतिक सफलता कुछ ऐतिहासिक संयोग के चलते मिल पाएगी। काँग्रेस पूरी तरह प्रभावहीन हो जाएगी और गैर-भाजपाई विपक्षी दल अपनी रणनीति नहीं बना पाएँगे। इस तरह का एक ऐतिहासिक संयोग इस वक्त दृश्यमान है! काँग्रेसी बर्बादी और भाजपा की साम्प्रदायिकता के बीच एक राजनैतिक खेमा स्थापित करने का काम गैर-भाजपाई विपक्ष का है। लेकिन इन दलों में कोई गम्भीर सोच या तत्परता नहीं दिखाई पड़ रही है! अत: काँग्रेस अगर तेजी से टूटती है या प्रभावहीन हो जाती है तो उसका फायदा केवल भाजपा को मिलेगा, यानी जनसाधारण की साम्प्रदायिकता के कारण नहीं बल्कि राजनैतिक शून्यता के कारण भाजपा को सफलता मिलेगी।

इस फर्क को समझना जरूरी है अन्यथा यह कहा जाएगा कि भारत का जनसाधारण साम्प्रदायिक है, इसलिए भाजपा को राजनैतिक सफलता मिल रही है। भारतीय जनसाधारण के प्रति यह एक बड़ा अन्याय होगा। जैसा पहले कहा जा चुका है हिन्दुओं के अवचेतन में मुसलमान द्वेष है तो दूसरी तरफ भारतीय धर्म और इतिहास में ऐसे बहुत सारे तत्त्व हैं जो धर्मनिरपेक्षता को ताकत पहुँचाने वाले हैं।

धर्मनिरपेक्षता को मानने वाले जितने भी बौद्धिक या राजनैतिक समूह देश में हैं उनके द्वारा एक समन्वित कार्यक्रम चलाकर साम्प्रदायिकता को प्रभावहीन किया जा सकता है। एक पूर्णांग कार्यक्रम बनाने के लिए इन समूहों के बीच निम्नलिखित बातों पर सहमति बनायी जानी चाहिए :

1. अयोध्या में न मन्दिर बनेगा, न मस्जिद।

2. राज्य का अधिकार क्षेत्र और धर्म का अधिकार क्षेत्र अलग-अलग होगा। राज्य और राजनीति न किसी धर्म विशेष को प्रोत्साहित करेंगे न धर्म के मामले में दखल देंगे। धर्म में दखल देने का कारण सिर्फ वहीं बनेगा जहाँ धार्मिक विवादों के कारण कानून-व्यवस्था का सवाल बन रहा हो या मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो। 

3. आचार संहिता और कानून इस तरह के बनें कि राजनैतिक उद्देश्य से किसी धर्म विशेष को प्रोत्साहित करने और अन्य धर्मों को अपमानित करने वाले व्यक्ति चुनाव में उम्मीदवार न बन सकें, न राजनैतिक दलों के पदाधिकारी रह सकें।

4. एक समान नागरिक कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू हो, विभिन्न धर्मों के धर्मनिरपेक्षतावादी बुद्धिजीवियों, कानून विशेषज्ञों और समाजशास्त्रियों को मिलकर यह काम शुरू करना चाहिए, ताकि यह एक सामाजिक-राजनैतिक आन्दोलन का रूप ले सके।

5. सामाजिक समानता और मानवाधिकार का हनन करनेवाली जो प्रथाएँ विभिन्न धार्मिक समुदायों में मौजूद हैं उनके खिलाफ एक सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक आन्दोलन चलाया जाए। जाति प्रथा ने भारत के सारे धार्मिक समाजों को प्रदूषित किया है। सर्वप्रथम जाति प्रथा के विनाश हेतु एक सशक्त आन्दोलन तैयार करना है।

8. मन्दिर-मस्जिद-गिरजाघर से लाउडस्पीकर द्वारा प्रतिदिन का प्रचार प्रतिबन्धित हो। सरकारी भूमि पर अनधिकृत ढंग से उपासना स्थल आदि बनाने की छूट को खत्म किया जाए।

7. इनमें से बहुत सारी बातें ऐसी हैं कि अगर धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाले सारे संगठन इन नियमों पर अमल करने के लिए तैयार हो जाएँगे, तो एक व्यापक जनमत तैयार हो सकता है, इसलिए सर्वप्रथम धर्मनिरपेक्षतावादी दलों और संगठनों के बीच समझौते के द्वारा इन चीज़ों के बारे में एक घोषणा-पत्र जारी हो।

8. जहाँ तक साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता का प्रश्न है, यह अल्पसंख्यक समुदायों में भी निन्दनीय मानी जाए, जितनी कि बहुसंख्यक समुदायों में। चुनाव के लिए अल्पसंख्यक समुदायों के रूढ़िवादी, साम्प्रदायिक नेताओं की मदद माँगने की जो परम्परा धर्मनिरपेक्षतावादी राजनैतिक दलों की बनी हुई है, उसपर रोक लगा दी जाए, बल्कि धर्मनिरपेक्षतावादी राजनेताओं का फर्ज बनता है कि हरेक समाज के रूढि़वादी नेतृत्व के खिलाफ संघर्ष करनेवाली धारा को प्रोत्साहित करें।

9. धर्म समाज में रहेगा। हरेक नागरिक को चाहिए कि वह अपने धर्म को समझे और आसपास जो दूसरे धर्म के लोग हैं उनके धर्म को भी समझे। इसके लिए अध्ययन की जरूरत ज्यादा नहीं है बातचीत और मनन की जरूरत ज्यादा है। हरेक धर्म में जो संकीर्णताएँ और अन्धविश्वास आ गये हैं उनके बारे में लोगों में आपसी चर्चा हो।

10. हरेक धर्म में साम्य और करुणा का एक पहलू है। यह एक चीज़ है जिसकी प्रेरणा आम लोगों को धर्म से ही मिलती है, और कहीं से नहीं मिलती। धर्म के इसी पक्ष पर बौद्धिक लोग जोर दें। समाज में व्याप्त नैतिकता का यही उत्स है। इस पर ध्यान केन्द्रित कर समाज में बढ़ती अनैतिकता के खिलाफ एक आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है। हरेक समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़े जो अनीश्वरवादी हैं, कर्मकाण्ड या ईश्वर पूजा में विश्वास नहीं रखते, लेकिन सत्य और करुणा का जीवन जीते हैं। ऐसे लोग अगर धर्मों की निन्दा करने की बजाय धर्मों में रचनात्मक सुधार की कोशिश करें तो उनका नैतिक प्रभाव जनसाधारण पर पड़ेगा। ऐसे लोग भविष्य के विश्वव्यापी धर्म के अग्रिम प्रतीक होंगे।

11. राष्ट्रीयता और साम्प्रदायिकता एक-दूसरे को कमजोर करती हैं, क्योंकि राष्ट्रीयता के परिधान में ही साम्प्रदायिकता आकर्षक लगती है। न सिर्फ साम्प्रदायिकता की चुनौती को झेलने के लिए बल्कि अलगाववाद पर नियन्त्रण पाने के लिए भी राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में एक दृढ़ और स्पष्ट अवधारणा को प्रचारित करना जरूरी हो गया है। वर्तमान सन्दर्भ इसके लिए अनुकूल है क्योंकि नयी आॢर्थिक नीतियों के कारण हमारी आजादी पर खतरे की आशंका व्यापक हो रही है। आॢर्थिक नीतियों के मामले में राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को परिभाषित करना है ही। यहाँ से शुरू करके राष्ट्र सम्बन्धी पूर्णांग धारणा विकसित हो सकती है।

12. सत्ता राजनीति के स्तर पर तत्काल एक ऐसा मोर्चा बनाया जाए जो नयी आर्थिक नीति विरोधी कार्यक्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता और सामाजिक विषमता विरोधी कार्यक्रम को द्वितीय सर्वोच्च प्राथमिकता देकर साम्प्रदायिक राजनीति के मुकाबले में एक राजनैतिक खेमे के रूप में खड़ा हो। आॢर्थिक गुलामी विरोधी कार्यक्रम के साथ जुड़े रहने पर सामाजिक विषमता विरोधी राजनीति का जातिवादी रूप नहीं उभर पाएगा। उपरोक्त दोनों कार्यक्रमों की दीर्घकालीन सम्भावनाएँ हैं। इसलिए तात्कालिक तौर पर संघ परिवार को कुछ चुनावी सफलता मिलती भी है तो अन्ततोगत्वा उसका मुकाबला सम्भव है।

13. जिस तरह राष्ट्रीयता का स्थान साम्प्रदायिकता लेने की कोशिश कर रही है, उसी तरह भारतीय संस्कृति का स्थान भी साम्प्रदायिकता ले रही है और ऐसा लगता है मानो पश्चिमी संस्कृति को माननेवाले लोग ही साम्प्रदायिकता का विरोध कर रहे हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति का एक गैर-साम्प्रदायिक आधुनिक रूप प्रचारित होना बहुत जरूरी है। आजादी के पहले रवीन्द्रनाथ ठाकुर इसके प्रभावी प्रतीक थे। आजादी के बाद पश्चिमीकृत संस्कृति के विकल्प में सिर्फ सती प्रथा और चन्द्रास्वामी स्थापित हो रहे हैं।

अत: यह जरूरी है कि शिक्षा, साहित्य, संस्कृति के स्तर पर आधुनिक पश्चिमीकृत संस्कृति का एक भारतीय विकल्प ढूँढ़ा जाए।

राष्ट्रीय मोर्चा और वाम मोर्चा में अगर गम्भीरता होती तो इन कार्यक्रमों को अपनाकर एक राष्ट्रव्यापी साम्प्रदायिकता विरोधी अभियान की अगुआई करते। उनकी अनुपस्थिति में इन कार्यक्रमों को चलाने का दायित्व उन सारे छोटे-छोटे अर्ध राजनैतिक और बौद्धिक समूहों का है जो साम्प्रदायिकता की चुनौती को स्वीकारते तो हैं पर उनकी सार्थकता दीर्घकालीन कार्यक्रम के अभाव में लुप्त हो रही है।

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