— प्रेमशंकर झा —
मोदी सरकार के आठ साल बाद भारत के बहु-सामुदायिक, बहु-धार्मिक लोकतंत्र के बहुत गंभीर खतरे में होने की हकीकत को झुठला पाना संभव नहीं है। इसकी वजह है। 2019 में मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को दूसरी बार विजय मिलने के बाद हमारे लोकतंत्र का जो एकमात्र स्तंभ खड़ा था वह भी ढह गया है।
इतिहास न्यायमूर्ति ए. एम. खानविलकर को उनके दो आखिरी फैसलों के लिए याद रखेगा जिनमें सिविल सोसायटी के प्रति, नागरिकों के बुनियादी अधिकारों के प्रति, और जब तक आरोप साबित न हो जाए तब तक कोई भी व्यक्ति निर्दोष है हमारे संविधान में दर्ज इस मान्यता के प्रति बैरभाव किसी से छिपा नहीं था।
खानविलकर ने 25 जून को इन अधिकारों का ध्वंस शुरू किया जब उन्होंने न केवल जकिया जाफरी की अपील खारिज कर दी, बल्कि सरकार को उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई के लिए उकसाया जिन्होंने अपील दायर करने में जकिया जाफरी की मदद की थी।
उनकी ध्वंस परियोजना 27 जुलाई को पूरी हुई, उनकी सेवानिवृत्ति से महज दो दिन पहले, जब उन्होंने मनी लॉन्ड्रिंग यानी काला धन सफेद बनाने के आरोपी को (जबकि उसपर महज आरोप हो, आरोप साबित न हुआ हो), कर-चोरी के द्वारा धन जुटाने के आरोपी को परेशान करने, कंगाल बना देने, जेल में डाल देने के भयावह अधिकार सरकार को दे दिए, उन 242 याचिकाओं को खारिज करके, जो ऐसे अधिकार सरकार को देनेवाले कानून के खिलाफ दायर की गयी थीं। कथित आर्थिक अपराध के विरुद्ध एक के बाद एक कानून बनाए गए और उन कानूनों पर कार्रवाई करनेवाली विशेष एजेंसियां बनायी गयीं, जैसे कि गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआइओ), राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी)।
उपर्युक्त याचिकाओं में से आठ याचिकाएं विशेष रूप से धनशोधन निरोधक अधिनियम (प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट – PMLA) में किये गये संशोधनों के खिलाफ दायर की गयी थीं, इन संशोधनों ने सबूत पेश करने की जिम्मेदारी आरोपी पर डाल दी है- आरोपी को दोषी साबित करना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है- इसके बजाय आरोपी को साबित करना है कि वह निर्दोष है।
न्याय का प्राकृतिक सिद्धांत यहां उलट जाने से, पूछताछ करनेवाले ईडी अफसरों के लिए यह संभव हो गया है कि वे प्रथम दृष्टया कोई सबूत न होते हुए भी किसी व्यक्ति पर आरोप पर आरोप लगाते जाएं, उससे अधिक से अधिक जानकारी उगलवाने के लिए उससे अंतहीन पूछताछ करें, इस उम्मीद में कि वह गलती से कुछ ऐसा बोल दे जो असंगत हो और जिस बिना पर उससे आगे की पूछताछ की जा सके या उसे जेल भेजा जा सके।
पीएमएलए (प्रिवेंशन ऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट) अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय बना था और इसमें 2012 में मनमोहन सिंह की सरकार के समय संशोधन किए गए। लेकिन सबूत की जिम्मेदारी उलट देने के क्या खतरे हैं, वाजपेयी और मनमोहन सिंह दोनों इस बारे में सचेत थे। इसलिए उन्होंने काफी सावधानी से जॉंच के कदम उठाए थे। वर्ष 2002 से 2014 के दरम्यान कुल मिलाकर सिर्फ 112 केस दर्ज हुए थे और इतने ही छापे पड़े थे।
लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद से नाटकीय बदलाव आया है। जून 2014 से मार्च 2022 के दरम्यान प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने 5,310 केस दर्ज किये, 3086 छापे डाले, रु. 104,702 करोड़ की संपत्ति जब्त (अटैच) की (इसे अपराध से हुई आमद बता कर), और 880 आरोपपत्र (चार्जशीट) दायर किये। हालांकि सिर्फ 23 लोगों पर आरोप साबित हुआ। हर लिहाज से, पीएमएलए वित्तीय या आर्थिक अपराध रोकने में बुरी तरह नाकाम रहा है।
फिर मोदी सरकार क्यों इस कानून को इसी रूप में बनाए रखने के लिए अड़ी हुई है?
शक्ति का केंद्रीकरण हर कीमत पर
दरअसल बात यह है कि 2015 से और खासकर 2019 से, जब पीएमएलए में कम से कम आठ संशोधन हुए, मोदी इस कानून का इस्तेमाल एक बिलकुल भिन्न मकसद से कर रहे हैं। यह मकसद है विभिन्न विपक्षी दलों को जो भारत के राजनीतिक परिदृश्य को वैविध्यपूर्ण बनाते हैं, उन्हें पिट्ठू बनाना या नष्ट करना और भारत को एकदलीय राज्यतंत्र में बदल देना। अपने इस निश्चय का संकेत मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के पहले ही दिन दे दिया था और यह भी जता दिया था कि वह आजीवन प्रधानमंत्री बने रहना चाहते हैं। शपथ ग्रहण के बाद प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले भाषण में वह विस्तार से बोले कि वह अगले दस साल में क्या क्या हासिल करने की उम्मीद रखते हैं। दस साल, न कि पॉंच साल! मोदी सत्ता में आने के पहले ही दिन अगले आम चुनाव से आगे की सोच रहे थे!
तब से मोदी के हर काम से दंभ की और भारत के इतिहास पर अपनी निजी अमिट छाप छोड़ने के एक क्रूर निश्चय की बू आती रही है चाहे इसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े। इसका सबसे अच्छा उदाहरण नयी दिल्ली में उनका सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट है जिसके तहत न सिर्फ एक भव्य नया संसद भवन बनाया जाना है, जिसकी देश को कोई जरूरत नहीं है बल्कि प्रधानमंत्री के लिए एक महल जैसा आवास भी बनना है जिसमें उनका इरादा कम से कम 2034 तक रहने का तो है ही!
1933 में राइखस्टैग (जर्मनी की संसद) में आग लगने की घटना का फायदा उठाकर एडोल्फ हिटलर ने – भले आग उसी ने लगवाई हो – तत्कालीन जर्मन प्रेसिडेंट वोन हिंडेनबर्ग के द्वारा खुद को जिंदगी भर के लिए जर्मनी का चांसलर घोषित करवा लिया था। उसी मकसद को पूरा करने के लिए मोदी ने बेहतर तरीका ईजाद किया है। यह तरीका है लालच और भय के द्वारा विपक्षी दलों को एक के बाद एक नष्ट करना, जब तक वह भारत के लोकतंत्र पर बीजेपी के स्थायी वर्चस्व के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो जाते।
शक्तियों के इस्तेमाल में पहले की सरकार जहां पुलिस और केंद्रीय जांच एजेंसी पर बहुत अधिक निर्भर करती थी वहीं मोदी ने इस मकसद के लिए वह माकूल हथियार पा लिया है जिसकी उन्हें जरूरत थी। विपक्षी दलों को तोड़ने के लिए, जिन राज्यों में विरोधी दलों की सरकारें हैं वहां दलबदल कराकर उन्हें गिराने के लिए, विपक्ष के जो नेता धमकी, दबाव या लल्लो चप्पो से नहीं मानते उन्हें बर्बाद करने के लिए वह इस हथियार का इस्तेमाल पिछले आठ साल से कर रहे हैं।
इस मकसद के लिए पहले उनका हथियार था सीबीआई। लेकिन यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून) में हुए बदलाव के बाद 2019 से उनका हथियार हो गया एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी), और प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट (पीएमएलए) में हुए कम से कम आठ संशोधनों के बाद प्रवर्तन निदेशालय (ईडी)।
ईडी और पीएमएलए का बेजा इस्तेमाल
पिछले दो साल में विपक्ष को तोड़ने या काबू में करने के लिए पीएमएलए और ईडी पर निर्भरता और भी बढ़ गयी है। इसकी वजह यह है कि जो शख्स सरकार के निशाने पर है उसके खिलाफ मनमाने ढंग से कार्रवाई कर सकने की सीबीआई की क्षमता पर जहां दंड प्रक्रिया संहिता कुछ अंकुश लगाती है वहीं पीएमएलए ऐसा कोई अंकुश नहीं लगाता।
संविधान के तहत सीबीआई केवल उस अपराध की जांच कर सकती है जिसके तार एक से अधिक राज्यों से जुड़े हों और यह जांच वह संबंधित राज्य सरकारों की सहमति प्राप्त करने के बाद ही कर सकती है। लिहाजा दिल्ली पुलिस अधिनियम के तहत राज्यों के लिए यह आवश्यक है कि वे ऐसी सहमति प्रदान करें। लेकिन तब भी सीबीआई को राज्य की पुलिस के सहयोग की जरूरत तो पड़ती ही है।
लेकिन पीएमएलए के तहत ईडी किसी को भी कभी भी देश भर में कहीं से भी पूछताछ के लिए बुला सकती है, बिना कोई कारण बताए, उससे घंटों लगातार पूछताछ कर सकती है, बचाव पक्ष के वकील की गैरमौजूदगी में हरेक बात रिकार्ड कर सकती है, और जिससे पूछताछ की जा रही है उसके बयान में अगर कोई मामूली भी असंगति हो तो उसे गिरफ्तारी और जेल भेजने का आधार बना सकती है।
ईडी के अधिकार सीबीआई और राज्य की पुलिस से बहुत ज्यादा हैं, क्योंकि सीबीआई और पुलिस खुद के सामने किये गये किसी भी कबूलनामे को अपराध के सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर सकतीं, जब तक वह कबूलनामा मजिस्ट्रेट के सामने दुहराया और दर्ज न किया गया हो।
पीएमएलए के तहत ईडी को गिरफ्तारी के लिए ईसीआईआर की कॉपी देना जरूरी नहीं है जबकि पुलिस के लिए एफआईआर की कॉपी देना जरूरी है। फिर, आईपीसी के तहत आनेवाले मामले की तुलना में पीएमएलए के मामले में जमानत मिलना बहुत ज्यादा मुश्किल है क्योंकि ईडी ने बार बार यह दलील दोहराई है कि आरोपी के पास इतना धन है कि वह न सिर्फ गवाहों को प्रभावित कर सकता है बल्कि देश से बाहर भाग जा सकता है और वहां ऐश की जिंदगी जी सकता है।
पहले ‘आप’
एक खराब कानून को उत्पीड़न के हथियार में बदलने का काम मोदी सरकार ने कई चरणों में किया है।
पहला चरण वह था जब मोदी ने आम आदमी पार्टी को नष्ट करने का अभियान शुरू किया। जब दिसंबर 2014 में बीजेपी दिल्ली विधानसभा चुनाव हार गयी, मोदी ने केजरीवाल सरकार पर हमलों की झड़ी लगा दी और उसे वास्तव में पंगु बना दिया। ये हमले इतने तेज और लगातार हो रहे थे कि इन्हें रोकने के लिए जुलाई 2016 के आखीर में एक दस मिनट के टीवी इंटरव्यू में केजरीवाल ने कह दिया कि मोदी उनकी हत्या कराना चाहते हैं।
मध्यवर्ग के लोगों ने इसे अतिशयोक्ति के रूप में लिया लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि आगामी महीनों में मोदी ने तब के उपराज्यपाल (लेफ्टिनेंट गवर्नर) के जरिए दिल्ली सरकार की नाक में दम कर दिया था।
मोदी ने जिन हथियारों का इस्तेमाल किया उनमें एक है सीबीआई। दिल्ली में सेवारत संघ प्रशासित काडर के डेढ़ सौ अफसरों को विस्तृत विचार-विमर्श के लिए बुलाया गया, जो एक परोक्ष चेतावनी में बदल गया कि केजरीवाल जो कुछ भी कर रहे हैं और जो कुछ भी करने की सोच रहे हैं, हरेक बात की खबर केंद्र सरकार को देनी है। जिस बहाने का उन्होंने इस्तेमाल किया वह केजरीवाल के निजी सचिव राजेंद्र कुमार के खिलाफ सीबीआई द्वारा दर्ज किया गया भ्रष्टाचार का एक मामला था। राजेन्द्र कुमार एक बेदाग अफसर थे और जब उन्होंने केजरीवाल के निजी सचिव के पद से इस्तीफा दे दिया तो मोदी के रडार से गायब हो गए।
बीजेपी ने इसके साथ ही केजरीवाल के खिलाफ देश भर में 33 अदालतों में मानहानि का केस भी दायर किया था। फिर भी बीजेपी केजरीवाल सरकार को तोड़ नहीं पायी, तो दिल्ली पुलिस ने आम आदमी पार्टी के विधायकों को गिरफ्तार करना शुरू किया। जुलाई 2016 तक ‘आप’ के 67 में से 11 विधायक हिरासत में लिये जा चुके थे।
मोदी के अगले निशाने पर बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार थी। तहलका के स्टिंग आपरेशन से हाथ लगे वीडियो उनका मुख्य हथियार बने, ये वीडियो यह दिखाते थे कि 13 लोगों ने चिटफंड मालिकों से धन लिया। उनमें से बारह लोग तृणमूल कांग्रेस की पहली कतार के नेता थे, और वे फौरन सीबीआई/ईडी की जॉंच के विषय बन गए। यह स्टिंग आपरेशन 2014 में हुआ था, लेकिन जाने किन कारणों से इसे एक निजी टीवी चैनल नारद टीवी ने दो साल बाद दिखाया, जब बंगाल विधानसभा चुनाव में कुछ ही महीने रह गए थे।
जब बंगाल और कोलकाता पुलिस ने तृणमूल कांग्रेस के उन बारह नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की तो, फरवरी 2019 में, सीबीआई के चालीस अफसर गिरफ्तारी का वारंट लेकर कोलकाता पुलिस कमिश्नर को गिरफ्तार करने और पूछताछ की खातिर दिल्ली ले जाने के लिए कोलकाता जा धमके। लेकिन हुआ यह कि कोलकाता पुलिस कमिश्नर के आवास पर तैनात एक पुलिसकर्मी ने तुरंत जो अक्लमंदी दिखाई उसके चलते सीबीआई के उन अफसरों ने खुद को कोलकाता पुलिस द्वारा घिरा हुआ पाया, वास्तव में वे गिरफ्तार थे और तब तक अनौपचारिक हिरासत में रहे जब तक केंद्र सरकार उन्हें दिल्ली वापस बुलाने के लिए राजी नहीं हो गयी।
केंद्र सरकार के इस हमले का नतीजा यह हुआ कि बंगाल, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़, इन तीन राज्यों ने दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत सीबीआई जांच के लिए दी गयी अपनी ‘आम सहमति’ वापस ले ली। कई और राज्यों ने भी शीघ्रता से उनका अनुसरण किया : मार्च 2022 तक सात और राज्य सीबीआई तथा अन्य केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के लिए दी गयी अपनी सहमति वापस ले चुके थे। ये राज्य थे – मिजोरम, राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल, झारखंड, पंजाब और मेघालय।
सीबीआई से ईडी
कोलकाता में सीबीआई के कड़वे अनुभव से मोदी सरकार हतोत्साह नहीं हुई बल्कि विपक्ष को घुटनों पर लाने के लिए 2002 में बने मनी लांड्रिंग एक्ट की ओर मुड़ गयी। उसका पहला निशाना उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना-कांग्रेस सरकार थी जिसने नवंबर 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के हाथ से महाराष्ट्र को छीन लिया था।
नवंबर 2021 और फरवरी 2022 में शिवसेना के दो वरिष्ठ नेताओं अनिल देशमुख और नवाब मलिक को मनी लांड्रिंग के आरोप में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। वे दोनों क्रमश: छह महीने और आठ महीने बाद भी जमानत के लिए जूझ रहे हैं।
इस तरह शिवसेना के विधायकों को संदेश दिया जा चुका था। इसीलिए इस साल जून में जब बीजेपी उद्धव ठाकरे की सरकार को गिराने में जुट गयी तो उसे शिवसेना के 40 विधायकों तथा 12 सांसदों को तोड़ने और उन्हें एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले शिवसेना के अलग हुए धड़े में शामिल होने के लिए मनाने में कोई खास कठिनाई नहीं हुई। दरअसल, कई सदस्य अपनी लगभग आपराधिक पृष्ठभूमि के कारण ऐसी नाजुक स्थिति में थे कि ‘मनाने’ के बीजेपी के खास तरीके के आसानी से शिकार हो गए।
मोदी के लिए महाराष्ट्र में शिवसेना-कांग्रेस गठजोड़ को धूल चटाना काफी नहीं था। जून माह की 30 तारीख को ईडी ने उद्धव ठाकरे का दाहिना हाथ कहे जानेवाले संजय राउत को गिरफ्तार किया और उनके ठिकानों पर नौ घंटे तलाशी ली, इस उम्मीद में कि कुछ ऐसा मिल जाएगा जिसे सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकेगा। राउत पर मुंबई में एक चाल के ‘पुनर्विकास’ के मामले में काफी पैसा बनाने के आरोप पहले लग चुके हैं। लेकिन तलाशी में सिर्फ 11.75 लाख रुपए नकद मिले जिसे ईडी ने ‘सबूत’ की खातिर जब्त कर लिया।
लेकिन सबूत किस बात का? सेंट्रल मुंबई में अपार्टमेंट की कीमत 23,044 से 36,195 रु. प्रति वर्गफुट है, 11.75 लाख रुपए में कोई अधिक से अधिक 3 से 4.6 वर्गमीटर की बनी-बनाई रिहाइशी जगह खरीद सकता है। जाहिर है आरोप हास्यास्पद है, फिर भी छह हफ्तों बाद भी राउत जेल में हैं।
पीएमएलए यानी प्रिवेंशन huऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट का मोदी का प्रहार इन्हीं राज्यों तक सीमित नहीं है। अगला नंबर झारखंड और बंगाल का है।
बंगाल में ममता के सबसे निकट सहयोगी पार्थ चटर्जी को भी ईडी जेल भेज चुकी है। ईडी का कहना है कि उसने 100 करोड़ रु. पार्थ चटर्जी की साथी अर्पिता मुखर्जी के फ्लैट से बरामद किए। ईडी का दावा है कि वह फ्लैट वास्तव में चटर्जी का है। ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी का मनोबल तोड़ने के लिए ईडी इस मामले में उनसे कई बार पूछताछ कर चुकी है।
आम आदमी पार्टी फिर निशाने पर
भारत के राजनीतिक बहुलवाद पर मोदी का हालिया हमला पहले नयी दिल्ली में हुआ है। छह साल के असहज सहअस्तित्व के बाद उन्होंने एक बार फिर आम आदमी पार्टी पर बंदूक तान दी है। यह सोच कर कि सीधे केजरीवाल पर हमला बोलना बीजेपी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है जैसा कि फरवरी 2020 में हुआ था, उन्होंने ईडी को पहले दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन और अब उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के पीछे लगा दिया है। वजह साफतौर पर बचकानी है। पंजाब में फतह हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी स्थानीय या सिर्फ शहरी पार्टी नहीं रह गयी है बल्कि एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर उभरती देखी जा रही है जो विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और बीजेपी दोनों को चुनौती और शिकस्त दे सकती है।
अब जब हिमाचल प्रदेश में, और उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण मोदी के गृहराज्य गुजरात में चुनाव सिर पर आ गए तब आम आदमी पार्टी को बाकी दलों जितना ही भ्रष्ट दिखाकर उसकी साख को समाप्त करने का प्रयास जरूरी हो गया था।
लेकिन मोदी ने अपना सबसे बड़ा हमला गांधी-परिवार के लिए तय कर रखा था। ईडी की तरफ से सोनिया गांधी को तीन समन, राहुल गांधी से पचास घंटे से ज्यादा की पूछताछ और नेशनल हेराल्ड बिल्डिंग में यंग इंडिया के दफ्तर को सील किये जाने के पीछे मकसद गांधी परिवार को अपमानित करना तथा एक समय जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के चारों ओर जो आभामंडल था उसकी बची खुची चमक को नष्ट करना और भारत के नए सुप्रीमो के रूप में मोदी के आरोहण को पूर्णता तक पहुंचाना था।
जस्टिस खानविलकर अखबार भी पढ़ते होंगे और टीवी भी देखते होंगे। इसलिए जब वह 545 पेज का बेंच का फैसला लिख रहे थे तब उन्हें यह भान जरूर रहा होगा कि मौजूदा रूप में पीएमएलए (प्रिवेंशन ऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट) का मकसद न्याय नहीं बल्कि राजनीतिक भयादोहन है। अगर उनके प्रति अधिक से अधिक उदारता दिखाई जाए तो यही कहा जा सकता है कि उन्होंने बस कानून के शाब्दिक स्वरूप से वास्ता रखा, उसके मकसद के प्रति वह आंख मूंदे हुए थे।
(The Wire से साभार)
अनुवाद : राजेन्द्र राजन