इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका – एम.एन. राय : पहली किस्त

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एम.एन. राय (21 मार्च 1887 - 25 जनवरी 1954)

— एम.एन. राय —

(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)

भूमिका

इस्लाम के अनुयायियों का एकाएक उत्थान और नाटकीय ढंग से उनका प्रसार मानव-इतिहास का अत्यंत रोचक अध्याय है। भारत के इतिहास के आधुनिक युग में उसका निष्पक्ष अध्ययन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसका वैज्ञानिक अध्ययन एक महान कार्य है और उसके ज्ञान-अर्जन से अच्छा लाभ होगा। लेकिन भारत में और विशेष रूप से हिंदुओं में इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका और मानव-संस्कृति में उसके योगदान के महत्त्व की समझदारी का राजनीतिक दृष्टि से बड़ा महत्त्व है।

भारत में अरब के मसीहा हजरत मुहम्मद के अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक है। यह बात शायद ही लोगों को सही प्रतीत होती हो कि भारत में मुसलमानों की जितनी संख्या है उतनी संख्या किसी भी इस्लाम को माननेवाले देश में नहीं है। इसके बावजूद अनेक शताब्दियों के बीत जाने पर भी भारत के बहुत-से लोग उनको बाहरी तत्त्व मानते हैं। इस विचित्र लेकिन खेदजनक स्थिति का कारण भारत के राष्ट्रीय ढांचे का इतिहास है। आरंभ में मुसलमान भारत में आक्रमणकारी के रूप में आए। उन्होंने इस देश को जीता और कई सौ वर्षों तक इस पर राज्य किया। विजेता और पराजित के संबंधों के दाग हमारे राष्ट्रीय इतिहास में पाए जाते हैं, जिनका प्रभाव दोनों पर है। लेकिन पिछले संबंधों की दुखांत स्मृति वर्तमान गुलामी के समान अनुभव से धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुसलमानों के लिए उतना ही पीड़ादायक और विनाशकारी है जितना वह हिंदुओं के लिए है। इस प्रकार मुसलमान हमारे राष्ट्र का अंतरंग हिस्सा बन गए हैं और भारत के इतिहास में मुसलमान शासकों के काल का उल्लेख करना सर्वथा उचित है। वास्तव में राष्ट्रवाद ने पिछली पीड़ादायक स्मृतियों को समाप्त करने में सहायता दी है।

भारत के मुसलमान शासकों का राष्ट्रीय इतिहास में उल्लेख और उनकी वास्तविक और काल्पनिक गौरव-गाथाओं से हमारे राष्ट्रीय रूप में अच्छे रंग उभरे हैं।

फिर भी हिंदू, जो अकबर के शासनकाल का उल्लेख करके गौरव अनुभव करते हैं अथवा जो शाहजहां द्वारा निर्मित भवनों की प्रशंसा करते हैं, आज भी अपने पड़ोस में रहनेवाले मुसलमान से इतने कटे हैं कि उस खाई को पाटा नहीं जा सकता। हिंदू भारतीय इतिहास के जिन शासकों के प्रशंसक हैं उनके धर्मावलंबियों से दूर हैं। सामान्य रूप से रूढ़िवादी हिंदू, मुसलमानों को, चाहे वे उच्च वर्गों के हों और उनमें उच्च संस्कृति का प्रभाव हो, ‘मलेच्छ’, अशुद्ध, बर्बर मानते हैं और उनके साथ हिंदुओं के निम्नतर वर्गों के लोगों से किए जानेवाले व्यवहार से अच्छा व्यवहार करने को तैयार नहीं होते हैं।

इस स्थिति का कारण वह घृणा है, जो पिछली शताब्दियों में विजेता के प्रति उत्पन्न हुई थी और पराजित लोग विदेशी आक्रमणकारियों के प्रति स्वाभाविक ढंग से घृणा करते थे। जिन राजनीतिक संबंधों के कारण ऐसी भावना उत्पन्न हुई थी वह प्राचीनकाल की बात थी। लेकिन उस घृणा की भावना का अब भी बने रहना हमारे राष्ट्र की एकता के लिए बाधक है, साथ ही वह कारण इतिहास के निष्पक्ष अध्ययन में बाधक है। वास्तव में इस बात का और कोई उदाहरण नहीं मिलता जिसमें एक देश में दो समुदायों के लोग सैकड़ों वर्षों से एकसाथ रहते हों और वे एक-दूसरे की संस्कृतियों को उचित ढंग से समझने से दूर हों। कोई भी सभ्य देश इस्लाम के इतिहास से इतना अनभिज्ञ नहीं है जितना हिंदू हैं और वे मुसलमानों के धर्म से घृणा करते हैं। हमारे राष्ट्रवाद के सिद्धांत का मुख्य लक्षण आध्यात्मिक साम्राज्यवाद की भावना है। लेकिन यह खराब भावना मुसलमानों के संबंध में अधिक स्पष्ट है।

अरब मसीहा हजरत मुहम्मद के उपदेशों के संबंध में यहां सबसे अधिक अज्ञान है। सामान्य रूप से शिक्षित हिंदू को इस्लाम के अत्यंत क्रांतिकारी महत्त्व की जानकारी नहीं है और न ही उसकी समझ है। इस प्रकार की अनभिज्ञता को हास्यास्पद माना जा सकता था यदि उससे हानिकारक परिणाम निकलने का खतरा नहीं होता। इन दुर्भावनाओं का मुकाबला किया जाना चाहिए जिससे भारतीय जनता विज्ञान और इतिहास के सत्य को सही तरीके से समझ सके। भारतीय इतिहास के इस संकटकाल में इस्लाम के सांस्कृतिक महत्त्व को समझने की सबसे अधिक आवश्यकता है।

महान इतिहासकार गिबन ने इस्लाम के प्रसार का उल्लेख करते हुए लिखा है – ‘वह एक ऐसी अविस्मरणीय क्रांति है जिसने संसार-भर के राष्ट्रों के चरित्र पर नया और स्थायी प्रभाव छोड़ा है।’ कोई भी व्यक्ति इस बात से आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सकता कि किस प्रकार प्राचीनकाल के दो महान साम्राज्यों को अरब के रेगिस्तान के नए धर्म के उत्साह वाले बद्दुओं ने तेजी से नष्ट कर दिया। हजरत मुहम्मद के तलवार की नोक पर शांति का संदेश देनेवाले मसीहा की भूमिका अपनाने के पचास वर्ष के भीतर उनके अनुयायियों ने इस्लाम का झंडा एक ओर भारत में और दूसरी ओर अटलांटिक महासागर के तट पर फहरा दिया। दमिश्क के प्रथम खलीफाओं के साम्राज्य को तेज रफ्तार वाले ऊंट पर बैठ कर पांच महीने की अवधि के पहले पार नहीं किया जा सकता था। हिजरी की पहली सदी के अंत में ‘धर्म के सेनापति’ संसार के सबसे शक्तिशाली शासक बन गए थे।

प्रत्येक मसीहा अपने ईश्वरीय गुणों को प्रमाणित करने के लिए अद्भुत रहस्यों को प्रकट करने का दावा करता है। इस दृष्टि से हजरत मुहम्मद अपने पहले और बाद के सभी मसीहाओं से महान हैं। उनका महान रहस्य इस्लाम का प्रसार है। अगस्तस के रोम साम्राज्य का प्रसार, जिसे बाद में महान योद्धा ट्राजन ने बढ़ाया था, सात सौ वर्षों में लड़े गए युद्धों में विजय प्राप्त करने से हुआ था। फिर भी वह अरब साम्राज्य की तुलना में, जो एक सदी से कम समय में स्थापित किया गया था, बड़ा नहीं था। अलक्जैंडर का साम्राज्य तो खलीफाओं के साम्राज्य के एक हिस्से के बराबर था। फारस के साम्राज्य ने करीब एक हजार वर्ष तक रोम साम्राज्य से लोहा लिया था, लेकिन ‘अल्लाह की तलवार’ ने उसको एक दशक से कम समय में पराजित कर दिया।

‘कहीं भी अरब राज्य के अवशेष’ उनकी संगठित सेना अथवा समान राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के चिह्न नहीं मिलते हैं। अरब लोग कवि, काल्पनिक, योद्धा और व्यापारी थे, उनमें राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा नहीं थी और न धर्म के आधार पर एकता की शक्ति थी। उन लोगों पर निम्नकोटि के बहुदेववाद का प्रभाव था।….एक सौ वर्षों के बाद ये असभ्य समझे जानेवाले संसार की महान शक्ति बन गये। उन्होंने सीरिया और मिस्र को पराजित किया। उन्होंने फारस को रौंद डाला और उसे अपना धर्मावलम्बी बनाया। उन्होंने पश्चिमी तुर्किस्तान पर अपना प्रभुत्व जमाया और पंजाब के एक हिस्से को अपने अधीन कर लिया। उन्होंने बेजेण्टाइन और बर्बर साम्राज्यों से अफ्रीका को छीन लिया, विशीगोथ नरेशों से स्पेन ले लिया। पश्चिम में उन्होंने फ्रांस के लिए खतरा खड़ा कर दिया और पूर्व में कुस्तुनतुनिया के लिए वे खतरा बन गये। उन्होंने सिकंदरिया और सीरिया के बंदरगाहों में अपनी नौसेना बनायी, जिसने भूमध्यसागर में अपना प्रभुत्व स्थापित किया। यूनान के द्वीपों को उन्होंने लूटा और बेजेण्टाइन साम्राज्य की नौसेना को चुनौती दी। उन्होंने आसानी से अपनी विजय प्राप्त की। केवल फारस के लोगों और एटलस पर्वतों के बर्बर लोगों ने उनका कड़ा प्रतिरोध किया। आठवीं शताब्दी के आरंभ में यह खुला प्रश्न था कि क्या कोई अन्य शक्ति उनकी विजय में बाधक बन सकती है। भूमध्यसागर की स्थिति रोम साम्राज्य की एक झील-भर की नहीं रह गयी। यूरोप के एक सिरे से दूसरे सिरे तक के ईसाई राज्य पूर्व की नयी सभ्यता और पूर्व के नये धर्म की चुनौतियों के खतरे का सामना कर रहे थे।’
(एच.ए.एल. फिशर – ए हिस्ट्री ऑफ यूरोप, पृष्ठ 137-38)

यह महान रहस्य घटित कैसे हुआ? यह प्रश्न इतिहासकारों को आश्चर्य में डाले हुए है। आज के शिक्षित जगत ने इस गलत बात को अस्वीकार कर दिया है कि इस्लाम का उदय कट्टरवाद की गंभीर और सहनशील लोगों पर विजय है। इस्लाम की सफलता का क्रांतिकारी महत्त्व है। उसकी सफलता उसकी इस क्षमता में निहित है कि वह संकटों से जनता को मुक्त कर सकती है, जो संकट पुरानी यूनानी और रोम सभ्यताओं से उत्पन्न हुए थे और फारस, चीन तथा भारत की सभ्यताओं में वे संकट उत्पन्न हो चुके थे।

(जारी)

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