— विमल कुमार —
एक स्त्री जब कोई कलात्मक सृजन करती है तो उसमें उसकी दृष्टि अलग झलकती है जो पुरुषों से भिन्न होती है। एक पुरुष जब अपनी उदासी या उमंग को रचता है तो वह स्त्री द्वारा रचे गए भावों से भिन्न होता है।
अगर स्त्री कवयित्री है तो उसके भाव चित्रों में भिन्न होंगे।पिछले दिनों हिंदी की कवयित्री वाजदा ख़ान के चित्रों की प्रदर्शनी देखकर लगा कि उनके चित्र कुछ अलग ही कहानी कहते हैं। आखिर वह कहानी क्या है?
क्या वह एक स्त्री के उदास रंगों की कहानी है? वैसे इन चित्रों में उनकी कविता के रंग भी ढूंढ़े जा सकते हैं।
यूँ तो चित्रकला और साहित्य के बीच एक गहरा संबंध है।उन रिश्तों को गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। हिंदी साहित्य में अभी शब्दों और चित्रकला के आपसी सम्बन्धों पर कम बात हुई है।
यह सर्वविदित है कि हिंदी में ऐसे लेखकों की लंबी परंपरा रही है जो साहित्य रचने के साथ चित्रकला में भी अपना हाथ आजमाते रहे हैं। महादेवी वर्मा के चित्रों की प्रदर्शनी 1930 के दशक में लगी थी जिसे देखने प्रसाद भी आए थे। ‘दूसरा सप्तक’ के प्रख्यात कवि (जिन्हें ‘कवियों का कवि’ कहा गया) शमशेर बहादुर सिंह, आचार्य नलिन विलोचन शर्मा, जगदीश गुप्त, अवधेश कुमार (‘चौथा सप्तक’ के कवि) जैसे अनेक लेखक रहे हैं जो चित्रकला भी करते रहे हैं। प्रसिद्ध कथाकार रामकुमार की ख्याति समाज में एक बड़े चित्रकार के रूप में रही है।
पिछले कुछ वर्षों से हिंदी के वरिष्ठ कवि एवं कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल भी चित्र बना रहे हैं और उनके भी चित्रों की प्रदर्शनी लग चुकी है। इसी तरह हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार- नाटककार असगर वजाहत भी लंबे समय से चित्र बना रहे हैं और उनके भी चित्रों की एक प्रदर्शनी लग चुकी है। इस बीच हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई भी चित्र बनाने लगे हैं और उनके चित्रों की भी एक प्रदर्शनी लग चुकी है। हिंदी के व्यंग्यकार-पत्रकार-कवि विष्णु नागर भी जब तब चित्र बनाते रहे हैं, यह अलग बात है कि उनके चित्रों की कोई प्रदर्शनी नहीं लगी है। हिंदी के चर्चित कथाकार उदय प्रकाश को भी डूडलिंग करते हुए देखा गया है। इस तरह कई लेखक इन दिनों चित्र बना रहे हैं। नरेंद्र जैन, अशोक भौमिक भी चित्रकार और लेखक हैं पर चित्रकार अधिक।चर्चित कवि देवीप्रसाद मिश्र तो वर्षों से कार्टून बनाते रहे हैं। कवि राजेन्द्र धोड़पकर तो बाकायदा कार्टूनिस्ट बन गए।युवा कवि अमित कल्ला भी चित्रकार हैं।
इस तरह हिंदी में कई लेखकों ने चित्र बनाने में अपनी पहचान बनाई है। इस क्षेत्र में लेखिकाएं भी पीछे नहीं हैं। तेजी ग्रोवर के चित्रों की भी प्रदर्शनी लग चुकी है। हिंदी की चर्चित कथाकार प्रत्यक्षा ने भी शानदार वाटर कलर बनाये हैं। युवा कथाकार-कवि श्वेता स्वाति ने भी कुछ बेजोड़ चित्र बनाये हैं। संभव है कुछ और लेखिकाएं चित्र बनाती रही हों। इधर कुछ सालों से हिंदी की कवयित्री वाज़दा ख़ान भी चित्रकला में अपनी पहचान बना चुकी हैं। शनिवार शाम ललित कला अकादेमी के गैलरी नंबर 3 में उनके चित्रों की एकल प्रदर्शनी आयोजित हुई जिसका उदघाटन हिंदी के प्रख्यात कवि एवं संस्कृतिकर्मी तथा ललित कला अकादेमी के पूर्व अध्यक्ष अशोक वाजपेयी ने किया। श्री वाजपेयी ने चित्रों के कैटलॉग की भूमिका भी लिखी है। “एंड एट” शीर्षक से आयोजित यह प्रदर्शनी विश्व प्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रजा की जन्मशती के मौके पर लगाई गई है जो 22 दिसंबर तक चलेगी। इस प्रदर्शनी के कैटलॉग के अनुसार वाजदा के 23 तैलचित्र प्रस्तुत किए गए हैं।
कैटलॉग के अनुसार वाज़दा की पहली एकल प्रदर्शनी 2001 में इलाहाबाद में लगी थी और उसके बाद 2006 में दिल्ली में उनकी एकल प्रदर्शनी लगी। इसके बाद भुवनेश्वर में भी उनकी एकल प्रदर्शनी लग चुकी है। साथ ही उनकी 3 एकल प्रदर्शनियां ऑनलाइन भी लगी हैं जिनमें एक ऑनलाइन प्रदर्शनी पोलैंड में लगी है। 38 ग्रुप प्रदर्शनियों में भी उनके चित्र शामिल किए गए हैं। इसके अलावा वह तेरह वर्कशॉप और कैंप में भाग ले चुकी हैं। वह संस्कृति मंत्रालय की सीनियर फेलो भी रही हैं। उनका पहला कविता संग्रह 2009 में “जिस तरह घुलती है काया” प्रकाशित हुआ था जिस पर उन्हें हेमंत स्मृति सम्मान भी मिल चुका है। इस साल भी उनका एक कविता संग्रह ‘खड़िया’ छप चुका है। इस तरह वाजदा चित्रकला की दुनिया में एक परिचित नाम हो गई हैं। आखिर उनके चित्रों की दुनिया क्या कहती है?
अशोक वाजपेयी का कहना है कि “वाज़दा श्यामवर्ण की चित्रकार हैं यानी उनके चित्रों में श्याम रंग अधिक है और वह पहले से अधिक मौन हुई हैं। उनके चित्रों में लाउडनेस कम हुई है। वे ‘मौन की व्यंजना’ को साधने लगी हैं। कला के लिए वाचालता अच्छी चीज नहीं है। उसमें रंग और रेखाएं नियंत्रित होनी चाहिए। अशोक जी ने वाज़दा के चित्रों में रिल्के का हवाला दिया है। वाज़दा के चित्रों में ‘रिल्केवादी’ कलाकार बोलता हैं। उनके चित्र अवसन्न अवस्था को दिखाते हैं। उनमें यथार्थ का शोर नहीं बल्कि एक मर्म और मौन क्रंदन है।”
क्या यह क्रंदन स्त्री का दुख नहीं है जो गहरी उदासी लिये हुए है। क्या यह उसके मन की उदासी नहीं है। क्या काले धूसर रंगों में एक व्यथा कथा नहीं छिपी हुई है। वाज़दा के चित्रों के माध्यम से अगर हम इन प्रश्नों पर बात करें तो बेहतर होगा। संवाद का एक रास्ता कायम होगा।
बहरहाल, इस प्रदर्शनी के उदघाटन के अवसर पर रामेश्वर ब्रूटा, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, सविता सिंह, वन्दना राग, मनोज मोहन, मीना जोशी, गोपाल रंजन, रवींद्र त्रिपाठी आदि मौजूद थे।