कभी-कभी मेरे दिल में ये ख़याल आता है…

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पेंटिंग - बिंदु प्रजापति


— ध्रुव शुक्ल —

भी-कभी लोगों को ये ख़याल ज़रूर आता होगा कि बीते कुछ ही वर्षों में देश भयानक शोर से भरता जा रहा है और जीवन में बीतता समय गहरी ऊब में डूबा हुआ है। देश के मन में ऐसी राजनीतिक अशांति घर करती जा रही है कि किसी को उससे बाहर निकलने का रास्ता भी नहीं सूझ रहा। लोग अपनी तरफ देख ही नहीं रहे। उनने इतना ज़यादा दूसरापन पैदा कर लिया है कि उन्हें दूसरों पर दोष मढ़ने से फुर्सत ही नहीं मिल रही और एक ग़ैर जिम्मेदार जीवन का अमित विस्तार हो रहा है। लोग दूसरों पर आक्षेप लगाकर वही करते रहते हैं जो वे दूसरों को करने नहीं देना चाहते। इस तरह सब एक-दूसरे की नज़रों में संदिग्ध होते जा रहे हैं। देश के जीवन में विश्वस्नीयता और प्रसन्नता घट रही है। सब एक-दूसरे के प्रति अविश्वास से भरकर अप्रसन्न जीवन काट रहे हैं।

कभी-कभी लोगों को ये ख़याल ज़रूर आता होगा कि राज्य पाने का लोभ ऐसी राजनीतिक स्पर्धा को बढ़ाता ही जा रहा है कि जिससे बंधुता, स्वतंत्रता और सद्भाव का मान प्रतिदिन घटता है। राजनीतिक गठबंधन अपने बाड़ों में क़ैद करके उस बहुविश्वासी समाज को बचने ही नहीं दे रहे जो अभावग्रस्त होने के बावज़ूद भी प्रेम और आपसी सहयोग के मूल्य को अब तक बचाये हुए है। राज्य की नीतियां इस समाज को ऐसे बाज़ार में अकेला छोड़ रही हैं जहां वह दौड़-दौड़कर थक रहा है, हार रहा है।

कभी-कभी लोगों को ये ख़याल ज़रूर आता होगा कि मीडिया चैनलों पर बाज़ार और राजनीति के विज्ञापन आपस में इतने घुले-मिले लगते हैं जैसे राजनीति भी अब कोई धंधा हो। अस्सी करोड़ असहाय लोगों को मुफ़्त अनाज बांटते विफल राज्य और बाकी खूब खाये-पिये पचास करोड़ लोगों को पौष्टिक आटा बेचते सफल बाज़ार के विज्ञापन अपना धंधा चलाने के उपाय ही तो हैं। राजनीति में दूकान दब्बू ग़रीबी बनाये रखने से और बाज़ार में दूकान अराजक अमीरी फ़ैलाने से ही चलती।

कभी-कभी लोगों को ये ख़याल भी ज़रूर आता होगा कि कोई ईश्वर नहीं है पर हम तो हैं। हमें ये जल,जंगल, ज़मीन,जानवर और हमारा जन्म भी पूर्वजों से उत्तराधिकार में मिला है और हम सब ही इसके न्यासी हैं। हम क्यों अपने जन्म सिद्ध स्वराज्य को प्रमाणित करने में विफल होकर परराज्य में शरण खोजने लगते हैं? हम तो जनम-जनम से एक-दूसरे में ही बसे हुए हैं फिर हम यह अपनापन क्यों भूल जाते हैं? हमारी पार्टनरशिप तो जन्म-जन्मांतर से चली आ रही है फिर हम क्यों अपने जीवन का निवेश किसी और की पार्टनरशिप में गंवा रहे हैं?

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हमारे समय के सात अविवेक

पहला अविवेक यह कि हर मज़हब के अपने ख़ुदा और ईश्वर हैं। इस धरती से दूर उनकी रची जन्नतें और उनके स्वर्ग अभी भी कायम हैं। ज्यादातर लोग इस आश्वासन में आज भी जी रहे हैं कि एक दिन उन्हें इन जन्नतों और स्वर्गों में जाने का मौका ज़रूर मिलेगा। बिना किसी भेदभाव के सबको पालने-पोसने वाली यह धरती इन मतान्ध लोगों को नरक लगती है। ये मान बैठे हैं कि जीवन पतित है और उसे फिर ऊपर ले जाने का ठेका उनका है!

दूसरा अविवेक यह कि प्रजातांत्रिक कही जाने वाली राज्य व्यवस्थाएं मताधिकार पर आधारित थोड़ी-सी राजनीतिक समता देकर ग़ैरबराबरी दूर नहीं कर पायी हैं। वे भी तो आर्थिक समता की जन्नत और स्वर्ग का सपना दिखाकर अभाव दूर करने का ठेका लिए बैठी हैं!

तीसरा अविवेक यह कि विभिन्न जातियों के समाजों में ऊॅंच-नीच की भावना के नरक इसी धरती पर अभी भी बसे हुए हैं और इन जातियों के नेता इन नरकों से मुक्ति का मार्ग तलाशने की बजाय धर्म को राजनीति का पिछलगुआ बनाकर अपने-अपने स्वार्थ साधने का ठेका ले बैठे हैं!

चौथा अविवेक यह कि कामनाओं से भरे और उनका खूब विस्तार करते बाज़ार में अपना जीवन गंवाते लोग यह तय नहीं कर पा रहे कि वे स्वर्ग जा रहे हैं या इसी धरती पर उनके लिए कोई नरक रचा जा रहा है। बाज़ार के विज्ञापनों से यह भ्रम फैला हुआ है कि सबको स्वर्ग में बसाने की ठेकेदारी बाज़ार ने ले ली है!

पाॅंचवाॅं अविवेक यह कि सबकी जान बचाये रखने के राजनीतिक आश्वासनों के बीच लोग अपनी मृत्यु को भूलकर जी रहे हैं। धरती पर बसाये जा रहे विकास नामक स्वर्ग में धंसती हुई सड़कें, दरकते हुए बांध, टूटते हुए पुल और बहुरूपी आतंक आये दिन लोगों की जान लेते रहते हैं जिसे किसी मुआवजे की रकम से तौल दिया जाता है। प्रगति के नाम पर जीवन की दुर्गति की बोली लगाकर उसे ठेकेदारों के हवाले कर दिया गया है!

छटवाॅं अविवेक यह कि इस धरती पर शान्ति और सह-अस्तित्व के विवेक से स्वर्ग बसाने का नारा बुलंद करने वाली वैभवशाली शक्तियों ने ही जीवन को इसी धरती पर नरक में बसाये रखने के लिए साधनों की लूट, युद्ध और आतंक फैलाने का ठेका ले रखा है! जीवन अमंगल की खबरों से भरता जा रहा है। दुनिया में शुभ समाचार का टोटा पड़ गया है।

सातवाॅं अविवेक यह कि असहमत को अपना शत्रु मानकर मनमानी का बोलबाला है। स्वच्छंद अराजकता जीवन में एक-दूसरे के प्रति संयम और उदारता के मूल्य को गिराने का ठेका ले बैठी है।

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राम किसी राजनीतिक दल में नहीं, हनुमान को नहीं चाहिए किसी का वोट

हनुमान चालीसा नि:स्वार्थ कपि हनुमान जी का बायोडेटा है जिसे महाकवि तुलसीदास ने रचा है। इस जीवन परिचय में राम काज करने को आतुर हनुमान जी की महिमा का वर्णन है कि कैसे उन्होंने जलधि लांघकर राम की खोयी हुई सीता का पता लगाया। रामायण में सीता धरती की तरह हैं जो जीवन के बीजरूप राम से बिछुड़ गयी हैं। अगर यह धरती राम के पास नहीं लौटेगी तो सबके जीवन में राम रसायन सूख जायेगा। यह राम रसायन और कुछ नहीं, वह वर्षाचक्र है जो वन उजाड़ने वाली राजनीति के कारण देश में भटक रहा है। रामत्व सबके जीवन पर छाये हुए बादल जैसा है। राम किसी राजनीतिक दल की नहीं, जीवन जल होकर सबकी प्यास बुझाने को आतुर हैं।

हनुमान जी इसी राम रसायन के ज्ञाता हैं। वे इसे सबके जीवन में बचाये रखने के लिए रामदूत होकर दुर्गम काज करने को तत्पर हैं। अतुलित बलधाम हनुमान ये दुर्गम काज अपने बल-बुद्धि और विद्या से ही संभव कर दिखाते हैं। वे ऐसे ज्ञान-गुनसागर हैं जो कुमति का निवारण करके सुमति की नाव में सबको बिठाकर पार लगा सकता है।

यह सुमति ‘निज मन मुकुर सुधार’ याने अपने-अपने मन के दर्पण की धूल पोंछने से आती है और सबके हृदय में हनुमान जी की तरह नि:स्वार्थ भावना जागती है। ऐसी भावना ही हमारे हृदय में हनुमान के डेरे जैसी है। जो राम की खोयी हुई धरती उनके पास ले आने में सहायक होती है और राम से बदले में कुछ नहीं मांगती। हनुमान पवन-पुत्र हैं। नि:स्वार्थ वायु ही तो सबके हृदय को सबके प्रति स्पंदित करती है। हनुमान के हृदय में राम ऐसे ही बसे हैं। रामायण में राम का परिचय भी तो सबके जीवन के स्वार्थरहित सखा के रूप में अंकित हुआ है।

हनुमान चालीसा गाते हुए यही भाव मन में गहरा होता जाता है कि राम से और उनके नाम से कहीं कुछ मांगना नहीं है बल्कि हनुमान की तरह रामचरित का रसिया होकर सबका मनबसिया हो जाना है। हनुमान जी कोई राजनीतिक सत्ता नहीं है। उन्हें किसी का वोट नहीं चाहिए।उनके इस बायोडेटा में साफ़ लिखा है कि वे उस तपस्वी रामराजा के सकल काज करने को आतुर हैं जिससे सबका जीवन सुखमय अमित फल पा सके । रामराज में हनुमान को कोई पद नहीं चाहिए।

ऐसे नि: स्वार्थ कपि हनुमान के बायोडेटा को जो लोग राजनीतिक शोर में बदल रहे हैं, वे एक दिन ऐसी दुविधा में फंस जाने वाले हैं, जहां न माया मिलती है और न राम।

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लोकतंत्र की उमर बढ़ाने के लिए मीडिया-महामारी का टीका बनाना चाहिए

टीवी न्यूज चैनल लोकतंत्र के सामूहिक मन पर किसी बाजारू राजनीतिक महामारी के वेरिएण्ट की तरह रोज़ हमला कर रहे हैं। यह कुटिल राजनीतिक वेरिएण्ट मतान्ध राष्ट्रवादी अंधेरे में छिपायी गयी प्रयोगशाला में बनाया गया है और जो लोकतंत्र को मार रहा है। लोकतंत्र की लम्बी उमर की कामना करने वाले लोग क्या किसी ऐसे मानसिक स्वास्थ्य केन्द्र की तुरन्त स्थापना कर सकते हैं जो एकाधिकारवादी शक्तियों द्वारा गुपचुप रची गयी इस साम्प्रदायिक मीडिया-महामारी से लोकतंत्र के प्राण बचा सके?

कानों में रुई ठूंस लेने, आंखें बंद कर लेने और चुप्पी साध लेने से यह मीडिया-महामारी वेरिएण्ट दूर नहीं होगा। वह देश के तन-मन को रोज़ मतान्धता के बुखार में तपाकर जीवन को दुर्बल करता रहेगा। लोकतंत्र की प्रतिरोधक क्षमता( इम्यूनिटी ) को बचाये रखने के लिए परस्पर आश्रित जीवन से रची गयी सभ्यता के सत्य की प्रयोगशाला में जनशक्ति को मथकर इस महामारी के प्रबल प्रतिवाद का टीका बनाना चाहिए। यह टीका जनता के साथ पैदल चलकर और उसके दुखों में भागीदार होकर ही बनाया जा सकता है।

अगर कोई अकेला ही जनता की ओर निकल पड़ा हो तो उसके साथ चलकर बहुत हो जाना चाहिए।

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