बसंत राघव की चार कविताएं
गाज़
एक गाज़ गिरी
और उसकी चपेट में
आ गया एक गरीब
देहाती
एक गाज़ और गिरी
जब पेट्रोल, गैस के दाम बढ़े
और उसकी चपेट में
आ गया एक आम आदमी।
एक गाज़ फिर गिरी
जब पढ़े लिखे बेरोजगारों को
पकौड़े बेचने के लिए
कहा गया!
उसकी चपेट में
आई, युवाओं की बरसों की मेहनत ।
यह पहली बार नहीं हुआ
फिर भी इस बार जो गाज गिरी
ईडी, सीबीआई, आईटी के जरिए विरोधी …
नेताओं पर
सुनकर दिल को
बड़ा सुकून मिला
एक नई परम्परा शुरु हुई
इसकी चपेट में आए, सभी विपक्षी दल।
ढोंग
तुम्हारे पैरों के घाव से
बहता हुआ मवाद देखकर
पेड़ के नीचे
इकठ्ठा हुई भीड़ में तुम्हें अकेले छोड़
मैं आगे बढ़ गया….!
मुझे इस बात का दुःख नहीं कि
फाड़कर
अपनी साफ सुथरी सफेद चादर
तुम्हारे कोढ़ ग्रस्त पांव में बांधा नहीं
बल्कि दुख इस बात का है कि
मैं उस भीड़ में
फरिश्ता क्यों न बन सका!
(गज़ल)
धुंवा
हमें नहीं चाहिए ऐसी ऊंचाइयां
जहां सांसों में जहर घुला हो
विकास का हिमालय व्यर्थ है
जो तेजाबी बर्फ से ढ़का हो
हमें नहीं चाहिए ऐसा वरदान
जो अनीति के पलड़े में तुला हो
हमें नहीं चाहिए फायदे का बाजार
जिसके पीछे शोषण का व्यापार हो
गमेहस्ती
उमस भरा है, मौसम, और दिल बेजार है
ठंडी बयार का अब बाशिद्दत इंतिजार है।
वही रह गुज़र है, और वही अपनी नजर है
सहर वही, शाम वही, गर्दिश-ओ-गुबार है।
कुछ भी नहीं बदला है इस जिंदगी में यार
वही प्यार का ढर्रा और वैसी ही तकरार है।
लाख कोशिशों पर फितरत नहीं बदल पायी
हम दुनिया को बदलने के लिए बेकरार हैं।
मकड़ियों के जाल सी फैली हुईं मक्कारियां
कीट से फंसे हुए न्याय धर्म लाचार हैं।
समझ नहीं आता लोग कितने खुदगर्ज हैं
पीर के दरबार में सब तलबगार हैं।
अंतहीन ख्वाहिशों के सामने लाचार हैं सब
झुलझ रहा जमीर बहुत गर्म है बाजार।

बसन्त राघव
बसन्त राघव