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मंत्रिमंडल में फेरबदल का गवर्नेन्स से कुछ लेना-देना नहीं – योगेन्द्र यादव

by Rajendra Rajan
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रेंद्र मोदी सरकार के मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल के बारे में सबसे बेहतरीन कटूक्ति गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी ने की। उन्होंने ट्वीट किया : ‘खराबी इंजन में है और बदले डिब्बे जा रहे हैं’।

बात तो सचमुच बड़े मार्के की है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में कोई भी फेरबदल हो तो खबर बननी ही है। फेरबदल अगर बड़े विस्तार से किया गया हो तो समाचारों में उसकी सुर्खियां प्रमुखता से लगेंगी। ऐसे फेरबदल की व्याख्याएं होंगी, आलोचना होगी और हां, उम्मीद भी बाँधी जाएगी। लेकिन ये सारा कुछ इस यकीन के तले होगा कि मंत्रिमंडल में कुछ को बुलाया और कुछ को हटाया गया है तो फिर इस नयी बुनावट से कुछ बेहतर सधेगा, प्रशासन बेहतर होगा और मंत्री सचमुच ही अपने महकमे के काम को मति-गति देंगे, उसे अंजाम तक पहुंचाएंगे। लेकिन मोदी सरकार के मंत्रिमंडल के बारे में ऐसा यकीन पाल कर चलने की कोई वजह नहीं।

मोदी सरकार का मंत्रिमंडल पीएमओ की हांक से चलनेवाला मंत्रिमंडल है। कह लें कि आजाद भारत में पीएमओ की हांक पर चलनेवाला जैसा मंत्रिमंडल मोदी सरकार ने बनाया है वैसा अब से पहले कभी नहीं बना, उस वक्त भी नहीं जब देश में इमरजेंसी लगी थी और मंत्रिमंडल में पत्ते प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इशारे से हिला करते थे। मोदी सरकार के मंत्रिमंडल में चीजें कुछ यूं होती हैं कि प्रधानमंत्री चीजों की एक दिशा तय कर देते हैं, उस दिशा की लकीर पर प्रधानमंत्री का कार्यालय अलग-अलग क्षेत्रों के लिए नीतियां बना लेता है। इस काम में कोई बड़ा फैसला करना हो तो वह प्रधानमंत्री खुद करेंगे या फिर ऐसे फैसले का ऊंच-नीच और झोल तौलना हो तो ये काम भी खुद प्रधानमंत्री करेंगे। मंत्रियों को बस हुक्म बजाना होता है और वह भी एकदम समय की पाबंदी के साथ।

सच कहें तो, मंत्री नहीं बल्कि मंत्रालय के सचिव के रूप में काम कर रहा कोई आईएएस इस काम के लिए काफी है। इस मंत्रिमंडल में मंत्रियों का काम तो बस इतना भर रह जाता है कि वे हुक्म बजाते रहें, नजर रखें ताकि लोगों में यह धारणा जमी रहे कि मंत्रालय अपने काम पर मुस्तैद है, कि मंत्री जी काम को अंजाम तक पहुंचा रहे हैं, कि वे ठीक समय से चीजों को होता हुआ दिखा रहे हैं, फोटो खिंचा रहे हैं और धुआंधार प्रचारबाजी के काम पर डटे हुए हैं।

अब आपको किसी काम की सियासी दशा-दिशा जाननी हो तो मंत्रीजी को नहीं बल्कि स्वयं प्रधानमंत्रीजी को सुनना होगा कि किसी मंत्रालय के किसी काम की बाबत वे खुद क्या कह और बता रहे हैं। अगर आप कहीं यह खोजने में लगे हैं कि कोई नीतिगत परिवर्तन हुआ है कि नहीं तो इंतजार कीजिए, प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में फेरबदल होगा तो आपको पता चल ही जाएगा कि कोई नीतिगत बदलाव हुआ है या नहीं। अभी भारत में अगर गवर्नेंस निकम्मेपन की हद तक जा पहुंचा है तो फिर इसकी जवाबदेही किसी और की नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री की बनती है।

परफार्मेंस, गवर्नेंस, पॉलिसी, स्किल-सेट्स (माने सरकारी हिन्दी में कहें तो कार्य-निष्पादन, अभिशासन, नीति और कौशल-समुच्चय) ये अभी के बीज-मंत्र हैं और सरकार की प्रचारबाजी में लगे, बातों की फिरकी घुमानेवाले स्पिन-डाक्टर्स वक्त-जरूरत इन बीज-मंत्रों का उच्चार करते रहते हैं। बेशक, कुछ मंत्रियों के सीवी (आत्मवृत्त और कार्यवृत्त) आपको गढ़कर लिखे और जमकर परोसे गये जान पड़ेंगे लेकिन वो बस आपका ध्यान भटकाये रखने की एक तरकीब भर है।

मोदी सरकार ने हाल में जो अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल किया है उसका गवर्नेंस से कुछ लेना-देना नहीं है, उसका सीधा रिश्ता जनता-जनार्दन के मन में धारणा बनाने और जमाने में है कि ये देखिए, सरकार गवर्नेंस के मोर्चे पर एकदम से चालू है। धारणाओं के मैनेजमेंट के इस खेल में नीति मत ढूंढ़िए, वहां नीति ढूंढ़ना फिजूल है। हां, कुछ ढूंढ़ना ही है तो उसमें राजनीति ढूंढ़िए।

मंत्रियों को हटाये जाने के मायने

नज़र इस बात पर दौड़ाने की जरूरत है कि मंत्रिमंडल में कौन-कौन से नये चेहरे बुलाये गये, निगाह इस बात पर टिकायी जाये कि मंत्रिमंडल से किन चेहरों को हटाया गया। वजह ये कि जिन्हें बुलाया गया है उनमें से बहुतों के बारे में हमें नहीं पता कि मंत्री के रूप में उनका ट्रैक रिकार्ड क्या रहा है। सो, बेहतर यही है कि हम मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल के मायने तलाशने के लिए इस बात पर सोचें कि किन चेहरों को मंत्रिमंडल से बाहर किया गया और ऐसे कौन-कौन हैं जो यूं तो आ सकते थे फिर भी फेरबदल के खेल में मंत्रिमंडल में आने से रह गये। मंत्रिमंडल में रखने और हटाने का फैसला बड़ा अहम होता है और उससे पता चलेगा कि हालिया फेरबदल से प्रधानमंत्री के मन में क्या मकसद साधने की बात रही होगी।

मोदी सरकार अपनी दूसरी पारी में गवर्नेंस के मोर्चे पर जहां-जहां बुरी तरह नाकाम हुई है उसकी बिना किसी राग-विराग के एक सूची बनायें तो वो यूं होगी। कोविड-काल के लॉकडाउन के ऐन पहले, बाद में और लॉकडाऊन के दौरान अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन, लद्दाख में भारत-चीन सीमा पर राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़, कश्मीर-घाटी से बात-विचार करने के जो भी संवाद-सूत्र बचे रह गये थे उनको तिलांजलि, राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) के मसले पर अल्पसंख्यकों में भारी घबड़ाहट पैदा करना, तीन कृषि कानूनों को हड़बोंग मचाने की शैली में सामने लाना और नतीजों में किसानों का जो प्रतिरोध उभरा उसके मसले को न सुलझाना और हां, इसी सूची में यह भी दर्ज होगा कि महामारी की दूसरी लहर ने जब जोर मारा तो बड़े हैरतअंगेज ढंग से अपनी सारी जिम्मेवारियों से कन्नी काट लिया गया।

अगर गवर्नेंस ही मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल का मुख्य मकसद है तो फिर निर्मला सीतारमण को बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाना चाहिए था, राजनाथ सिंह और नरेंद्र सिंह तोमर के विभाग बदल जाने चाहिए थे और अमित शाह के पर कतरे जाने चाहिए थे। लेकिन ये सब नहीं हुआ। ये सब अपने कद और पद में जस के तस जमे हुए हैं।

एक डॉक्टर हर्षवर्धन ही हैं जिनकी अपने काम से छुट्टी हो गई है तो कहा जा सकता है कि हां, ऐसा गवर्नेंस के मोर्चे पर उनके नाकाम रहने से हुआ। लेकिन जरा बारीकी से सोचें और करीब जाकर देखें तो जान पड़ेगा कि उन्हें तो नाहक ही बलि का बकरा बनाया गया। उनके विभाग के जो अहम फैसले रहे या फिर निर्णायक फैसले लेने में जो नाकामी रही, जैसे– महामारी की दूसरी लहर के शुरुआती समय में अंतरराष्ट्रीय उड़ानों से आनेवाले यात्रियों की टेस्टिंग में हुई देरी, संक्रमितों की ट्रेसिंग ना होना, पहली लहर के तुरंत बाद के दौर में इस निठल्ले खयाल को पाल हाथ पर हाथ धरके बैठ जाना कि महामारी तो अब गई, टीकाकरण की ढुलमुल नीति और उसका लचर क्रियान्वयन- ये सब तो पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) की देन रहे।

डॉक्टर हर्षवर्धन पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि वे ही महामारी के दौरान उसकी रोकथाम की जिम्मेवारी निभा रहे थे। प्रधानमंत्री की छवि बचाने की चिंता में उन्हें दंडित किया गया है। उन्हें सजा इस बात की नहीं मिली कि वे महामारी के पसारे को रोकने में नाकाम रहे बल्कि सजा इस बात की मिली है कि महामारी की रोकथाम में जो नाकामियां हुईं उन्हें ढंकने-छिपाने में वे कामयाब ना हुए।

जिन अन्य चेहरों को मंत्रिमंडल से बाहर किया गया है उनके साथ भी बर्ताव का यही व्याकरण काम करता दिखायी दे रहा है। पर्यावरणीय सुरक्षा के कुछ मानक लंबे समय से चले आ रहे थे लेकिन प्रकाश जावडेकर पर गाज इस बात के लिए नहीं गिरी कि उन्होंने इन सुरक्षा मानकों में ढील नहीं दी या फिर पर्यावरणीय प्रभावों के आकलन के विवादास्पद नियमों के कारण उन्हें बाहर का दरवाजा नहीं दिखाया गया। प्रकाश जावडेकर को मंत्रिमंडल से शायद इस कारण बाहर किया गया कि वे सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहते, अपने यंत्र-तंत्र के इस्तेमाल से मीडिया को साध पाने में नाकाम रहे।

रविशंकर प्रसाद अगर मंत्रिमंडल से बाहर हुए हैं तो इसलिए नहीं कि उन्होंने न्यायपालिका और सूचना प्रौद्योगिकी के ट्विटर और फेसबुक सरीखे महाबलियों से निपटने में अकड़ से काम लिया या फिर इनसे निपटने के लिए वो शैली अपनायी जिसमें देखा दायें जाता है और मुक्का बायें भांजते हैं। दरअसल, रविशंकर प्रसाद को सजा तो इस बात की मिली है कि वे आईटी के महाबलियों या फिर न्यायपालिका को उस कदर नहीं झुका सके जितना कि उनसे झुका सकने की उम्मीद बाँधी गई थी।

संतोष गंगवार से मंत्रालय इसलिए नहीं छिना कि वे लॉकडाउन के दौरान घर वापसी को निकल पड़े लाखों प्रवासी मजदूरों के हितों की रक्षा ना कर सके बल्कि गंगवार से मंत्रालय ले लिया गया है तो इसलिए कि उन्होंने यूपी की आदित्यनाथ सरकार पर सवाल उठाने का साहस किया।

रमेश पोखरियाल की विदाई हुई है तो इसलिए नहीं कि शिक्षा मंत्रालय का कामकाज चला पाने की कूबत वे ना दिखा पाये या फिर 2020 की नई शिक्षा नीति को लेकर अपनी समझ नहीं बना पाये बल्कि वे कुछ प्रमुख पदों पर नियुक्तियों के मामले में प्रधानमंत्री कार्यालय के आड़े आते दिखे और सीबीएसई के इम्तिहानों को लेकर लोगों में जो सरकार की लानत-मलानत हुई उसे रोकने में नाकाम रहे। तो यूं समझिए कि मंत्रिमंडल में फेरबदल के पीछे सारा खेल राजनीतिक निष्ठा-प्रदर्शन और सरकार को लेकर बननेवाली धारणाओं के सूत्र किसी बाजीगर की तरह अपनी मुट्ठी में रखने का है।

दीवार पर लिखी इबारत

मंत्रिमंडल में नये चेहरों को शामिल करना कुछ वैसा ही है जैसे कि रोटी की बंदरबांट हुई हो ताकि चुनावी चूल्हे पर पतीला अच्छे से चढ़े और दाल मन-मुताबिक सींझे। बातों की फिरकी घुमाकर सरकार को ‘दीनदयाल-सदासहाय’ साबित करने में लगे स्पिन डाक्टर्स तो यही बतायेंगे कि ये देखिए मंत्रिमंडल में शामिल किये गये इन नये चेहरों को! ये नये चेहरे गवर्नेंस को बेहतर बनाने के लिए शामिल किये गये हैं। लेकिन, उनकी बातों पर यकीन करने का कोई मतलब नहीं क्योंकि एक बार में केंद्रीय मंत्रिमंडल में किया गया यह महाविस्तार है, शायद अब तक का सबसे बड़ा विस्तार और इस विस्तार के पीछे मुख्य बात है गठबंधन के साथियों को रेवड़ी बांटना क्योंकि बीजेपी के सामाजिक गठजोड़ और राजनीतिक दखल के इलाकों के इन गठबंधनी नवागंतुकों का महत्त्व पार्टी समझ रही है, बीजेपी को लग रहा है कि उसके भविष्य के लिहाज से गठबंधन के ये साथी महत्त्वपूर्ण हैं।

अब अगर नारायण राणे को मंत्रिमंडल में शामिल कर ही लिया गया है तो ऐसे में सरकार की साफ-सुथरी, भ्रष्टाचार-मुक्त बेदाग छवि की बात ही क्या करना? ज्योतिरादित्य सिंधिया को शामिल किया गया है तो निश्चित ही सवाल उठेंगे कि बीजेपी की वंशवाद-विरोधी राजनीति के कौल-ओ-करार का क्या हुआ! सर्बानंद सोनोवाल सरीखे अनेक नेताओं को मंत्रिमंडल में जगह देने के कारण सरकार की कार्यदक्षता पर भी सवाल उठेंगे ही। लेकिन, दरअसल मोदी सरकार के लिए इन बातों का कोई खास मतलब नहीं। ज्यादा से ज्यादा नेता मंत्रिमंडल में आ गये, उनकी लालबत्ती वाली गाड़ी चल पड़ी, बस हो गया गवर्नेंस!

मन के भोले, दिल के सहज विश्वासी प्राणी ही मानेंगे कि मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल से गवर्नेंस में कोई बदलाव आने जा रहा है। बीजेपी के खेमे में वैसे प्रतिभावान नहीं बचे जो गवर्नेंस का मोर्चा सँभाल सकें, प्रधानमंत्री के ऐन सामने ये चुनौती खड़ी है और जो सरकार के महाभक्त होंगे वे ही मानेंगे कि मंत्रिमंडल में फेरबदल गवर्नेंस के प्रचंड प्रतिभावानों को मौका देने के लिए हुआ है।

एक सच यह भी है कि प्रतिभाओं की यह कमी प्रधानमंत्री की ही देन है क्योंकि उन्होंने पार्टी के सभी अनुभवी नेताओं को एक-एक करके बाहर कर दिया। मोदी सरकार अपनी दूसरी पारी में अक्षम साबित हुई है- दीवार पर यह इबारत लिखी दिख रही है। मंत्रिमंडल के महाविस्तार के साथ ही इस इबारत को आप और ज्यादा साफ-साफ पढ़ पायेंगे।

(द प्रिंट से साभार )

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