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भारतीय लोकतंत्र और संस्कृति का अंतर्विरोध

by Rajendra Rajan
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— रामप्रकाश कुशवाहा —

समें  सन्देह नहीं कि भारतीय संविधान को विश्व के अनेक देशों के संविधान से तुलनात्मक श्रेष्ठता हासिल है। इस संविधान की संकल्पना में  वैज्ञानिक चेतना, आधुनिकता, मानवतावादी दृष्टिकोण और समानता की अवधारणा सभी कुछ  है। जाति, वर्ण और सम्प्रदाय जैसे सामुदायिक विभाजन करनेवाले प्रश्नों को नागरिकों की इच्छा पर छोड़ दिया गया है कि वे उसका संरक्षण करे या विसर्जन कर दें। एक समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद और औपनिवेशिक प्रभाव से ऐसी संभावना बढ़ गयी थी कि विश्व के सभी देशों की जनता का एक दिन पश्चिमीकरण हो जाएगा और वैश्वीकरण के प्रभाव से लगभग एक समान जीवन-शैली वाला एक ऐसा वैश्विक समाज निर्मित होगा जो विश्वग्राम की अवधारणा को साकार करेगा। वर्गहीन समताजीवी समाज वाली व्यवस्था का एक सपना साम्यवादी देशों के भी पास था। लेकिन आजादी के पहले की महात्मा गांधी के आध्यात्मिक, धार्मिक और नैतिक व्यक्तित्व के प्रति भारतीयों की आम श्रद्धा आजादी के कुछ ही दशकों बाद उस समय के सत्ताधारी दल कांग्रेस में व्यक्ति-पूजा के रूप में उभरी और बाद में राजतंत्र और कुलीनतंत्र के अवशिष्ट सांस्कृतिक संस्कारों ने भारतीय लोकतंत्र को परिवारवाद तक पहुंचा दिया।

देखा जाए तो आज भी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों ही तरह के दलों में परिवार विशेष की इजारेदारी का रहस्य भी सांस्कृतिक ही है। कंप्यूटर की भाषा में कहें तो संस्कृति का पुराना साफ्टवेयर लोकतंत्र के नए साफ्टवेयर को दुष्प्रभावित कर रहा है। इसके कारणों को जानने के लिए यदि भारत के सांस्कृतिक अतीत की पड़ताल करें तो कई रोचक और महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष प्राप्त होते हैं।

प्राचीन काल से ही भारत एक राजनीतिक राष्ट्रीयता वाला देश कभी नहीं  रहा है। बौद्ध काल के बाद आदि शंकराचार्य द्वारा धार्मिक पीठों और  तीर्थों की स्थापना किए जाने से प्राचीन भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र में अवश्य ही लगभग छह सौ वर्षों के लिए बदल गया। इस्लाम के आगमन के बाद का भारतीय समय  उसके सांस्कृतिक राष्ट्र से साम्प्रदायिक राष्ट्र में क्रमशः बदलते जाने का है। फिर भारतीयों की एक बड़ी संख्या इस्लाम स्वीकार करती है। वृहत्तर इस्लामी समुदाय के संपर्क में आने पर भारतीय समाज का परम्परागत सांस्कृतिक विविधता वाला मुक्त आकाश छिन जाता है। एक ऐतिहासिक रूपांतरण की लम्बी प्रक्रिया में सामुदायिक विविधता का सम्मान करनेवाला भारतीय मूल का दीर्घकालिक समाज  एक सभ्यता के स्थान पर पहली बार  एक सांप्रदायिक समाज में बदलने लगता है।

आजादी के पहले अविभाजित भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा सेमेटिक धर्म इस्लाम को माननेवाला रहा है : जिसका जन्म स्वयं ही यहूदी धर्म  से प्रतिस्पर्धा के कारण उसके संस्थापक मूसा की असहिष्णुता और कट्टरता को आत्मसात करते हुआ था। मध्यकाल में इस्लाम के भारत आने पर सिख पन्थ के अनुयायियों से उसका हिंसक टकराव बताता है कि भारत में भी इस्लामी सल्तनत की स्थापना के प्रारंभिक दौर में संघर्ष द्वारा साम्प्रदायिक एण्टीबॉडी के निर्माण की प्रक्रिया देर तक चली। और फिर सूफी फकीरों और सन्त कवियों की कई पीढ़ियों के सांस्कृतिक प्रयासों ने जो सहिष्णु साझा समाज निर्मित किया था उसने अंग्रेजों के आने तक भारतीय समाज को सहअस्तित्व और शान्ति की समझदारी दी थी।

लेकिन हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बहुसंख्यक विभाजन वाले भारत की एक बड़ी समस्या प्राचीन भारतीय समाज में चली आ रही शूद्र ग्रंथि यानी कुछ जातियों के साथ अस्पृश्यतापरक अलगावबोध वाले व्यवहार की भी रही है। इसने इस्लाम के अनुयायियों के प्रति भी उच्चवर्णीय हिन्दुओं में  एक साम्प्रदायिक अस्पृश्यताबोध की मानसिकता और आचरण दिया। यही सांप्रदायिक घृणा का भी आधार है, जो दलितों से दूर रहने का अनुभव मुसलमानों से भी दूर रहने के व्यवहार में बदल जाता है। प्राय: इसीलिए दलितों का सम्मान करनेवाला समाज बनाए बिना भारत में सांप्रदायिक भेदभाव से रहित समाज बनाना संभव ही नहीं है ।

प्राय: एक जैसे मान लिये जानेवाले बहुसंख्यक हिन्दू नागरिकों का जातीय अवचेतन अलग-अलग राजतंत्रीय और गणतंत्रीय मूल का हैइसके बावजूद कि एक समय गणतंत्रीय जीवनशैली और दर्शन ने ही कृष्ण और बुद्ध जैसे लोकनायक भी दिये 

दरअसल भारत की धार्मिक संस्कृति का विकास प्राचीन गणराज्यों और राजतंत्रीय व्यवस्था वाले महाजनपदों में अलग-अलग और लगभग एक दूसरे से असहमत रूप में हुआ था। गणतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करनेवाली जातियाँ सामूहिक विवेक और अनुशासन में विश्वास करती थीं। उनमें जातीय पंचायतों से स्वशासित रहने की प्रवृत्ति रही है। क्योंकि प्राचीन गणराज्यों में किसी को सर्वोपरि मानकर चुपचाप उनकी अधीनता स्वीकार करने की प्रवृत्ति नहीं रही है – उनमें वह गुलाम मानसिकता और दास्य-भाव की भक्ति नहीं मिलती जो राजतंत्रीय व्यवस्था वाले नगर-राज्यों में मिलती है।

पेंटिंग : कौशलेश पांडेय

एक रहस्य यह भी रहा है कि नगरीय बस्तियाँ भले ही एक दूसरे की पूरक और सहयोग की भूमिका में बहुजातीय प्रकृति की रही हों , प्राचीन काल से ही भारत की अनेक बड़ी ग्रामीण बस्तियाँ एकजातीय बसावट वाली रही हैं। महाजनपदों या फिर किसी राजतंत्रीय नगर से दूर स्थित होने पर ये स्वायत्त और स्वशासित गणराज्य मान ली जाती थीं। उन गणराज्यों में सामूहिक विचार-विमर्श से मुखिया या सरपंच चुनने की प्रथा थी। जातीय समूह की सदस्यता तो स्थिर रहती थी लेकिन नेतृत्व बदलता रहता था। यह कहें कि नेतृत्व राजतंत्रीय व्यवस्था की तरह वंशानुगत न होकर आपसी सहमति और चयन पर आधारित होता था। इस संस्कृति ने किसी एक व्यक्ति विशेष को ही ईश्वर का प्रतिनधि या प्रतिरूप मानने का मनोवैज्ञानिक आधार ही समाप्त कर दिया था।

प्राचीन भारत के इस गणराज्यीय व्यवस्था वाले जीवनानुभव ने बिलकुल अलग तरह के नायक, जीवन और धर्म-दर्शन दिया। बुद्ध और महावीर दो बड़े नाम हैं और पौराणिक नायकों में कृष्ण का व्यक्तित्व और चरित्र भी गणतांत्रिक राजा-प्रजा संबंधों का ही प्रतिनिधित्व करता है। यद्यपि वे द्वारिका में भले ही गणराज्य को स्वीकार करते हैं लेकिन स्वयं राजघराने का भी वारिस होने के कारण वे सिर्फ राजाओं के चरित्र-परिवर्तन पर ही बल देते दिखाते हैं; राजतंत्र का सम्पूर्ण उन्मूलन उनका लक्ष्य नहीं था। यह कहा जा सकता है कि श्रीकृष्ण का चरित्र राजतंत्र में गणराज्य के मूल्यों के प्रचार-प्रसार का प्रयास करता है। श्रीकृष्ण सामंती राजाओं के विरुद्ध और लोक के पक्ष में हैं।

यह देखना दिलचस्प होगा कि पौराणिक नायकों में श्रीकृष्ण से अलग राम का चरित्र प्राचीन गणराज्य की पृष्ठभूमि से बिलकुल भिन्न कुलीनतावादी और राजतंत्रीय हैरामकथा के विभिन्न चरित्रों के माध्यम से वर्णव्यवस्था के श्रेष्ठता-क्रम का भी पता चलता है 

विश्वामित्र और वशिष्ठ का वर्चस्व-संघर्ष इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। ऐसा प्रतीत होता है कि विश्वामित्र के चरित्र के क्रान्तिकारी स्वरूप को कमतर करने के लिए परवर्ती आख्यानकारों ने राजपुरोहित वशिष्ठ का महिमामंडन रचा है। लेकिन नियोगज होने से रामकथा के अनुसार राम का जो व्यक्तित्व और चरित्र निर्मित होता है वह कुलीनातावादी नहीं है बल्कि राजतन्त्र की सामंती संस्कृति से असहमत किसी अनासक्त ऋषि या श्रमण की संस्कृति का है। वह राजसत्ता का त्याग करनेवाला और समाजसत्ता के पक्षधर नायक का है।

आधुनिक युग के अनेक जननायकों का इन पौराणिक चरित्रों से मानसिक और मनोवैज्ञानिक रिश्ता रहा है। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के चरित्र से महत्मा गांधी का बाल्यावस्था में प्रभावित होना एक सर्वज्ञात प्रसंग है। यह आख्यान मूल्य संरक्षण के लिए नैतिक निष्ठुरता को महिमामंडित करता है। यह निष्ठुर संयम राम के चरित्र में भी देखा जा सकता है।

कृषि कार्य और पशुपालन के प्रयोजन से जनपदों और महाजनपदों से दूर अपनी अलग बस्तियां बसाकर रहनेवाली स्वशासित गणतंत्र मूल की अनेक जातियों के वंशजों के संस्कार आज के लोकतान्त्रिक समय में भी दास्य भक्ति-भाव वाली तथा अपने नेता को भगवान बनानेवाली एकतंत्रीय सत्ता की चाटुकारिता का समर्थन नहीं कर पाते। अन्न उपजाने के कारण ही सही वे उत्पादक वर्ग में आते हैं , उपभोक्ता वर्ग में नहीं। आपूर्तिकर्ता होने के कारण वे एक सीमा तक व्यवसायी या विक्रेता वर्ग से मोल-भाव करने की स्थिति में भी होते हैं। अपने जीवन-यापन के लिए उनका पूरी तरह बाजार-निर्भर न होना उनकी प्रतिरोधी ताकत का कारण है और रहस्य भी। ध्यानपूर्वक देखने पर आज के जनांदोलनों में भी प्राचीन गणराज्यों की उत्तराधिकारी जातियों मे जनमे नागरिकों की सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक भूमिका महत्त्वपूर्ण होगी। यद्यपि भारत की मुख्य धारा का सांस्कृतिक प्रवाह महाजनपदों और राजतंत्रों में विकसित होने के कारण दास्य भाव की भक्ति यानी सामाजिक-सांस्कृतिक एवं आर्थिक गुलामी वाला ही है लेकिन ऐसी गुलामी लम्बे समय तक निर्विरोध और निर्विघ्न ही रहेगी – ऐसा सोचनेवाले मुगालताजीवी ही माने जाएंगे। यह हमारी क्षेत्रीय और जातीय नैतिकता ही है जो घूसखोरी को भी दान-दक्षिणा वाली हमारी गौरवमयी संस्कृति की निकृष्टतम उत्तराधिकारी के रूप में सहज-स्वीकृति दिला देती है और हमें घूस देते और लेते हुए बिलकुल बुरा नहीं लगता।

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