Home » कोरोना से लड़ें लेकिन भय न बढ़ाएं

कोरोना से लड़ें लेकिन भय न बढ़ाएं

by Rajendra Rajan
1 comment 9 views


— अव्यक्त —

पिछले साल ईरान में 67 साल के एक बुजुर्ग में कोविड-19 की पुष्टि हुई। मधुमेह और उच्च-रक्तचाप की समस्या उन्हें पहले से ही थी। ऐसी स्थिति में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने लाया गया। उनकी बाकी शारीरिक स्थिति एकदम सामान्य थी। वे होश में थे और उन्हें साँसों की कोई ज्यादा तकलीफ नहीं थी। बिना बाहरी ऑक्सीज़न सपोर्ट के उनके ऑक्सीजन का स्तर 71 प्रतिशत था, और रिज़र्व मास्क के साथ उनकी रक्त-वाहिनियों में ऑक्सीजन की उपस्थिति 95 प्रतिशत तक थी। यानी उन्हें कोई विशेष खतरा नहीं था। लेकिन इतना सब होते हुए भी वे जोर-जोर से रोए जा रहे थे और चिल्ला-चिल्ला कर सबको कह रहे थे कि “अब मेरी मौत निश्चित है। अब मैं बच नहीं पाऊंगा। देखो, सब कह रहे हैं कि बूढ़े लोगों को यह वायरस जिंदा नहीं छोड़ता। अब यह बीमारी मुझे लेकर ही जाएगी।” डॉक्टरों और परिजनों के किसी भी आश्वासन का उनपर कोई असर नहीं पड़ रहा था।

हमें यह सुनकर थोड़ा अजीब लग सकता है। लेकिन दुनियाभर में यह समस्या एक मनोविकार के रूप में तेजी से बढ़ती हो सकती है। चिकित्सा विज्ञान में ‘डेथ एंग्ज़ाइटी’ के रूप में इसका व्यवस्थित रूप से अध्ययन किया जाता है। मनोवैज्ञानिकों की शब्दावली में इसे ‘थनैटोफोबिया’ भी कहा जाता है।

भारतीय परंपरा में यमराज की तरह ही यूनानी पौराणिक कथाओं में ‘थनैटोस’ नाम का एक चरित्र है जिसे मृत्यु का प्रतीक माना जाता है। इन कथाओं में मृत्यु को रात्रि नाम की स्त्री और अंधेरा नाम के पुरुष का पुत्र बताया जाता है। थनैटोस यानी मृत्यु को हिप्नोस यानि निंद्रा का जुड़वा भाई भी कहा गया है। पश्चिमी मनोवैज्ञानिक चिंतन पद्धति में मृत्यु को लेकर जितने भी शब्द गढ़े जाते हैं उसमें थनैटोस का यह रूपक मौजूद ही रहता है। इसी का उदाहरण है कि जिन मनुष्यों में मृत्यु का भय मनोवैज्ञानिक विकार के स्तर तक पहुँच जाता है उसे ‘थनैटोफोबिया’ का नाम दिया जाता है।

इसी से मिलती-जुलती एक अवस्था ‘नेक्रोफोबिया’ की कही जाती है। नेक्रोफोबिया से ग्रस्त मनुष्य मृत्यु से जुड़ी हुई किसी भी चीज को देखकर या उसके बारे में सोचकर भयभीत हो जाता है। जैसे किसी मित्र या परिजन का मृत शरीर, अर्थी, ताबूत या श्मशान को देखकर वह अपनी मृत्यु की कल्पना करके बहुत डर जाता है। इससे उसकी साँसें तेज हो जाती है, दिल की धड़कन बढ़ जाती है, पसीने छूटने लगते हैं, मुँह सूखने लगता है, शरीर काँपने लगता है या बहुत अधिक असहजता महसूस होने लगती है। अपने किसी परिजन के अंतिम संस्कार में भी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यहाँ तक कि टीवी, सिनेमा या मोबाइल में मृत्यु से जुड़े किसी दृश्य को देखकर भी ऐसी हालत हो सकती है। मृत्यु से जुड़े ऐसी सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के शास्त्रीय रूप से व्यवस्थित अकादमिक और वैज्ञानिक अध्ययन को भी ‘थनैटोलॉजी’ कहा जाता है।

पिछले साल मार्च, 2020 में जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को एक वैश्विक महामारी घोषित की. तो उसी दौरान नीदरलैंड के दो विश्वविद्यालयों (टिलबर्ग यूनिवर्सिटी और यूट्रैक्ट यूनिवर्सिटी) के पाँच शोधकर्ताओं की एक संयुक्त टीम ने 14 से 17 मार्च के दौरान अलग-अलग आयुवर्ग के 439 लोगों पर कोविड के भय संबंधी एक शोध किया। इससे यह सामने आया कि इस दौरान लोगों में तरह-तरह के भय अचानक से बढ़ गए। उदाहरण के लिए, बुजुर्गों के स्वास्थ्य का भय, सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के चरमरा जाने का भय, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था ठप हो जाने और इससे अपनी व्यक्तिगत आय भी कम हो जाने का भय, पूरे समाज में भयजनित घबड़ाहट फैल जाने और आपसी संपर्क टूट जाने का भय, वायरस के रूप बदलते रहने और लंबे समय तक बने रहने का भय, अनजाने में दूसरों से खुद में और खुद से दूसरों में वायरस फैलाने का भय, दूसरों द्वारा नियमों का पालन न करने का भय, क्वारंटीन होने के दौरान अकेले या अलग-थलग पड़ जाने का भय, लॉकडाउन में फँस जाने का भय, सरकार के प्रति अविश्वास या उसकी अकर्मण्यता से पैदा हुआ भय, खाना कम पड़ जाने का भय, यात्रा प्रतिबंधों का भय। इतने तरह के भय आम तौर पर सामने आए। इसके अतिरिक्त यह भी सामने आया कि मीडिया और सोशल मीडिया आदि पर फैलाए जा रहे झूठे फेक न्यूज़ आदि से भी भय फैल रहे थे। ध्यान रहे कि यह अध्ययन तब किया गया जब यह महामारी फैलनी शुरू ही हुई थी। उसमें भी उस देश में किया गया था जहाँ की सरकारी व्यवस्था, लोगों की आय और स्वास्थ्य सुविधाएँ दुनिया में सबसे अच्छी है।

भारत जैसे समाजों में तो अन्य कई प्रकार के भय भी जुड़ते जाते हैं। जैसे कि यहाँ की आबादी के अनुपात में अस्पतालों एवं विशेषकर आईसीयू जैसी सुविधा का नितांत अभाव, आपात स्थिति में ऑक्सीजन जैसी न्यूनतम सुविधाओं की भी कमी पड़ जाना, सरकारी तंत्र में संवेदनशीलता का अभाव, राजनीतिक नफे-नुकसान के आधार पर निर्णय लेने की प्रवृत्ति, जाँच की व्यवस्था में आनेवाली अड़चनें और लगनेवाला समय, आजीविका का संकट, न्यूज़ मीडिया द्वारा समाज में फैलायी जा रही सामाजिक वैमनस्यता और परस्पर-अविश्वास, अस्पताल में भर्ती होने या आईसीयू की सुविधा पाने में भी राजनीतिक पहुँच होने की आवश्यकता, ये सारी स्थितियाँ न केवल संसाधनों की बहुतायत के बीच भी व्यवस्थागत कमी को दर्शाते हैं, बल्कि हमारी सामाजिक, मानसिक और रूहानी दरिद्रता को भी दर्शाते हैं।

अस्पताल में भर्ती कोविड-पीड़ित मरीजों खासकर बुजुर्गों में मृत्यु के भय के और भी कारण होते हैं। सबसे प्रमुख होता है वार्ड की स्थिति। स्वास्थ्यकर्मियों को ऐसे मरीजों के साथ अत्यंत करुणापूर्ण व्यवहार करने का कौशल प्रायः नहीं होता। परिजनों से या तो बिल्कुल नहीं मिल सकते या बहुत ही कम मिल सकते हैं। शारीरिक स्थिति अगर दुर्बल हुई तो खुद से अपना नित्यकर्म भी नहीं कर सकते। इस रोग के दौरान मरीजों के साथ बरती जानेवाली सावधानियों और उपचार के तरीकों के बारे में भी ठीक-ठीक जानकारी का भी कई बार अभाव पाया जाता है। कई बार स्वास्थ्यकर्मी स्वयं भी बहुत भयभीत होते हैं। बुजुर्गों के साथ उपचार और व्यवहार के एहतियाती नियमों का ठीक-ठीक पालन भी कई बार नहीं देखने में आता है। इन वजहों से अस्पताल जाने के बाद भी भय में और ज्यादा बढ़ोतरी की परिस्थितियाँ पैदा होने लगती हैं।

भारत में न्यूज़ मीडिया और सोशल मीडिया के विवेकहीन दुरुपयोग की वजह से भी ये भय और ज्यादा फैलते हैं। खासकर उन बुजुर्गों के बीच जो पहले से किन्हीं गंभीर रोग के शिकार हैं। एक तो उन्हें पहले से चली आ रही अपनी किसी गंभीर बीमारी का इलाज समय पर न मिल पाने का डर रहता है। ऊपर से जाने-अनजाने न्यूज़ मीडिया और सोशल मीडिया में बढ़-चढ़कर भय का वातावरण बनाया जाता है। श्मशान में जलती सामूहिक चिताओं की तस्वीरें बहुप्रसारित की जाती हैं। हालात काबू से बाहर हो जाने की बात भयावह तरीके से बार-बार दुहराई जाती है। वैक्सीन के साइड इफेक्ट्स और वैक्सीन के बेअसर होने की बात को भी सही परिप्रेक्ष्य में न रखकर, डरावने तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। ‘कोरोना बम’, ‘कोरोना का तांडव’, ‘मौत का कहर’, और ‘चौतरफा हाहाकार’ मचने की भाषा में बात की जाती है, तो ऐसे बुजुर्गों के मन में या पहले से किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित लोगों के मन में मृत्यु के भय से जनित चिंता या ‘डेथ एंग्ज़ाइटी’ बढ़ती ही जाती है। अभी कोविड के दौर में ‘डेथ एंग्ज़ाइटी’ और ‘न्यूरोटिसिज़्म’ नाम के मनोविकार के बीच संबंधों पर अध्ययन हो रहे हैं। न्यूरोटिसिज़्म की स्थिति में हमारे मन में लगातार नकारात्मक विचार आने शुरू हो जाते हैं और उससे चिड़चिड़ापन, तनाव, अवसाद, उन्माद, प्रलाप और उत्तेजना जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं।

दुनियाभर में चिकित्सा-विज्ञान से लेकर आध्यात्मिक ज्ञान परंपराएँ बार-बार हमें समझाने की कोशिश करती हैं कि शरीर और मन का गहरा संबंध है। मन में आनेवाले विचारों का अच्छा और बुरा असर हमारे शरीर पर होता ही है। विचारों का असर हमारी जीवनी-शक्ति और जिजीविषा के ऊपर भी होता है। इसलिए राग-द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह और भय जैसे विकारों को मन में न आने देने की साधना ऋषियों, तीर्थंकरों, बुद्धों, संतों और सूफियों ने हमें बताई। भय की वजह से हम जीते-जी ही हर क्षण मरे हुए के समान रहते हैं। भय की वजह से ही हमसे कई अन्य पाप भी होते हैं। इसलिए भय को त्यागने की शिक्षा दी। विशेषकर मृत्यु के भय को त्यागने की शिक्षा दी।

संतों ने कहा है कि मृत्यु का सदैव स्मरण रखोगे तो उसका भय मिटेगा। मृत्यु का सदैव स्मरण रखोगे तो पापकर्म से भी बचोगे। अहंकार का भी क्षय होगा। धम्मपदं में महात्मा बुद्ध की वाणी है— ‘परे च न विजानन्ति मयमेत्थ यमामसे। ये च तत्थ विजानन्ति ततो सम्मन्ति मेधगा।।’ यानी हम सभी को एक दिन यहाँ से जाना ही है, इस तथ्य को सामान्य लोग नहीं जानते। जो इस तथ्य को जानते हैं उनके सारे कलह (विकार) शांत हो जाते हैं। संत कबीर ने कहा— ‘जाहि मरण से जग डरै मोरे मन आनंद। कब मरहूँ कब पावहूँ पूरण परमानंद।।’ कहते हैं कि भूटान में हर व्यक्ति एक दिन में कम-से-कम पाँच बार अपनी मृत्यु का स्मरण करता है। और वह समाज सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही कसौटियों पर भी दुनिया का सबसे खुश और प्रसन्नचित्त समाज कहा जाता है।

लेकिन इतना होने पर भी ऐसे दुःखद दौर में मानव समाज के जागृत सदस्य के रूप में हमारा तो यही फर्ज बनता है कि हम समाज में भय का वातावरण न बनाएँ। बुजुर्गों, पीड़ितों और सशंकितों के भय को और ज्यादा न बढ़ाएँ। श्मशानों की तस्वीरों को भयावह बनाकर प्रसारित न करें। न ही ऐसी तस्वीरों से और अधिक भयभीत होना है। जीवन को समझने के लिए श्मशान सबसे अच्छी जगह होती है। पीड़ितों, परिजनों और आशंकाग्रस्त मित्रों से भी विनती कि हमें दारुण दुःखों के बीच भी अपने भय को त्यागना है। मृत्यु का भय हमें मृत्यु के निकटतर लेकर जाता है। भय अपने आप में मृत्यु है। इसे ठीक से समझना है।

एक अत्यंत दुर्बल-सा कोई सूक्ष्म अणु हमारे अत्यंत शक्तिशाली शरीर में थोड़े दिनों के लिए आता है। अतिथि की भाँति आता है, जो स्वतः ही नियत समय बाद चला भी जाता है। एकांतवास में उस अतिथि के साथ गहन आत्मीय संवाद करना है। चित्त को शांत रखना है। पीड़ा के साथ भी आनंदित रहना है। व्यवस्थापकों से और अधिक संवेदनशील होने की उम्मीद है। भावना यदि सच्ची सेवा की हो, तो संसाधनों की कमी भी बाधा नहीं बनती। क्षुद्र और विषाक्त चुनावी राजनीति से ध्यान हटाकर हमें अपनी सारी ऊर्जा वास्तविक व्यवस्था और सेवा में लगानी है। यह दौर भी बीत जाएगा। हम सबको एक-दूसरे का संबल बनना है। सबके लिए प्रार्थना करनी है।

You may also like

1 comment

Sugyan Modi April 22, 2021 - 10:00 AM

अत्यंत महत्वपूर्ण सामयिक आलेख प्रकाशन हेतु ‘समतामार्ग’ पोर्टल का अत्यंत आभार ।
युवा विचारक-चिंतक अव्यक्त जी का सभी दुर्लभ संदर्भों से संपुष्ट यह आलेख आज के निराशाजनक वातावरण में
जीवन-शक्ति के प्रति अडिग विश्वास रखते हुए
आत्म-चेतना को जीवंत बनाये रखता है.
लेखक और संपादक के प्रति पुन: आभार.
???

Reply

Leave a Comment

हमारे बारे में

वेब पोर्टल समता मार्ग  एक पत्रकारीय उद्यम जरूर है, पर प्रचलित या पेशेवर अर्थ में नहीं। यह राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह का प्रयास है।

फ़ीचर पोस्ट

Newsletter

Subscribe our newsletter for latest news. Let's stay updated!