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पर्यावरण संकट ने लील लिया पर्यावरण योद्धा को

by Rajendra Rajan
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— अरुण कुमार त्रिपाठी —

खिरकार गांधीवादी पर्यावरण योद्धा सुंदरलाल बहुगुणा को कोविड-19 महामारी ने हमसे छीन लिया। उनकी उम्र 94 साल थी। उनके जैसे ऋषि के लिए यह कोई ज्यादा उम्र नहीं थी। उन्हें कम से कम सौ साल तो जीना ही था। लेकिन आक्सीजन की कमी ने उनकी सांसें बंद कर दीं। बहुगुणा जी की मृत्यु न तो किसी सामान्य वृद्ध की मृत्यु है और न ही महामारी से पस्त एक मरीज का अवसान है। वह क्रूर विकास के हाथों हिमालय और गंगा को बचाने की गुहार लगानेवाले एक योद्धा की हार है। वह जलवायु संकट और पर्यावरण संकट से जूझ रही हमारी आधुनिक सभ्यता के लिए एक चेतावनी है। वह चेतावनी है वनों की बेहिसाब कटाई के खिलाफ, नदियों पर बन रहे बड़े बांधों के खिलाफ, धरती की पारिस्थितिकी पर मनुष्य नाम की प्रजाति के एकाधिकार के खिलाफ और हिमालय क्षेत्र में निरंतर हो रहे विनाश के खिलाफ। उन्होंने अपना बलिदान देकर हमें बताया है कि मनुष्य ने अगर प्रकृति से अपने जटिल और अटूट रिश्ते पर गौर नहीं किया तो हम कितनी भी दवाएं बना लें, कितने टीके लगवा लें और कितने आक्सीजन सिलेंडर जमा कर लें लेकिन प्रकृति हमें लाचार करके कभी भी दबोच सकती है।

प्रकृति का विनाश करने के लिए हमने जो कुल्हाड़ियां चलाईं, जो बुलडोजर चलाए और जो डाइनामाइट लगाए उससे रक्षा करने के लिए गौरा देवी, चंडीप्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा की भूमिकाएं अब इतिहास का विषय हो चुकी हैं। प्रकृति को शायद अब मनुष्यों के प्रतिरोध पर भरोसा नहीं रहा। इसलिए वह अब अपने अदृश्य जीवों यानी वायरस के माध्यम से मानव सभ्यता पर हमला कर रही है।

स्मृतिशेष : सुंदरलाल बहुगुणा

बहुगुणा जी महात्मा गांधी के पर्यावरण दर्शन के मूर्त रूप थे। वह चाहते तो सरकारी गांधीवादी बन सकते थे और आजादी के बाद बननेवाली कांग्रेस सरकारों में तमाम अच्छे पदों का आनंद लेते हुए अपना जीवन सुख-सुविधाओं से भर सकते थे। वह चाहते तो दिल्ली और देश के दूसरे बड़े शहरों में गांधी के नाम पर चलनेवाले तमाम मठों में बैठकर मौज ले सकते थे। लेकिन वह वास्तव में थे कुजात गांधीवादी ही। उन्होंने अपने को निरंतर एक्शन में रखा और प्रकृति को बचाने में लगे तमाम योद्धाओं को प्रेरणा दी। चाहे रेगिस्तान में नदी को पुनर्जीवित करनेवाले जलपुरुष राजेंद्र सिंह हों या नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर हों, सभी उनसे प्रेरणा पाते थे। और बहुगुणा जी स्वयं छोटे-छोटे गांवों में जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए सक्रिय सामान्य स्त्री-पुरुषों से प्रेरणा लेते थे।

जो बहुगुणा टिहरी में बननेवाले बांध के खिलाफ कभी डेढ़ माह तो कभी दो माह के अनशन के बावजूद जीवित बचे रहे उनका एक वायरस से सिर्फ महीने भर में हार जाना विचारणीय घटना है। दरअसल बहुगुणा जी वायरस से नहीं हारे हैं। वह हारे हैं विकास की उस क्रूर प्रक्रिया से, जिसने बहुत पहले ही उन्हें ‘अप्रासंगिक’ कर दिया था। उत्तराखंड के चिपको आंदोलन पर बहुत लिखा गया है और आगे भी लिखा जाएगा। लेकिन पत्रकार नवीन जोशी का उपन्यास `दावानल’ उसके उन पहलुओं पर पैनी नजर डालता है जिसके कारण पहाड़ से उठा इतना बड़ा नैतिक आंदोलन पराजित और पतित हो गया।

यह जानना रोचक है कि जिस टिहरी की जनता ने टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष करके अपने अधिकार हासिल किए और अंग्रेजों से लड़कर आजादी पाई, उत्तर प्रदेश की सत्ता से लड़कर वनों की रक्षा की, वह जनता और उसका आंदोलन तब अपनी अहमियत खोने लगा जब उत्तराखंड एक स्वतंत्र राज्य बन गया। नवीन जोशी इस उपन्यास में बताते हैं कि किस तरह से दसौली ग्राम स्वराज्य संघ, उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी और बढ़ियारगढ़ वन सुरक्षा समिति के लक्ष्य नया राज्य हासिल होने के साथ भुला दिए गए। उसी तरह जैसे आजाद भारत में गांधी के आदर्शों का स्मरण नहीं रहा। अब उत्तराखंड कहने के लिए देवभूमि हो गया और करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन वाले विकास के मॉडल की प्रयोग स्थली बन गया।

बहुगुणा जी का आंदोलन शराब के खिलाफ था। वनों की कटाई के खिलाफ था। भौतिकवादी संस्कृति के खिलाफ था और पहाड़ों में बड़े बांधों और चौड़ी सड़कों के निर्माण के खिलाफ था। आज वही सारे काम उत्तराखंड में अंधाधुंध चल रहे हैं। अगर सुंदरलाल बहुगुणा को चिपको आंदोलन खड़ा करने के लिए 1970 की अलकनंदा घाटी की बाढ़ ने सबक दिया था और 26 मार्च 1974 को अचानक एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो सका, तो 2013 की केदारघाटी का जल प्रलय भी एक चेतावनी थी मानव सभ्यता के लिए। उसी तरह 2020 की महामारी भी प्रकृति और मानवीय रिश्तों को फिर से परिभाषित करने की चेतावनी है। यह चेतावनी है विज्ञान और प्रकृति के रिश्तों को भी परिभाषित करने की।

लेकिन दिक्कत यही है कि सुंदरलाल बहुगुणा के संघर्ष को न तो ठीक से उत्तराखंड समझ पाया, न ही देश और न ही यह दुनिया। सिर्फ टिहरी गढ़वाल के रेणी गांव से शुरू हुआ एक छोटा-सा आंदोलन कैसे पूरी दुनिया का ध्यान खींच सकता है यह अपने तपोबल से बहुगुणा, गौरा देवी और चंडीप्रसाद भट्ट जैसे सत्याग्रहियों ने सिद्ध किया था। बहुगुणा जी के संघर्ष को देखकर किसी शायर की वह बात याद आ जाती है कि- यारो हम सब बंधे हुए हैं, कायनात के टुकड़े हैं। इक फूल को जुंबिश दोगे इक तारा कांप उठेगा। यानी दुनिया का हर बड़ा काम, हर बड़ी खबर और हर बड़ा प्रयोग पहले छोटे स्तर पर ही शुरू होता है। 1931 में जब दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए गांधी यूरोप गए तो उनसे वहां के लोगों ने कहा कि आप यहीं बस जाइए और दूसरा विश्वयुद्ध रोकने के लिए यूरोप में अपना योगदान दीजिए। गांधी ने कहा कि मैं धरती के एक हिस्से यानी हिंदुस्तान में अपना प्रयोग कर रहा हूं। अगर वह सफल हुआ तो दुनिया के और हिस्से में जाने के बारे में सोचूंगा। लेकिन पहले उस प्रयोग को सफल हो लेने दीजिए।

चिपको आंदोलन

सन 1974 से शुरू हुए सुंदरलाल बहुगुणा के चिपको आंदोलन का सबसे बड़ा प्रभाव यह था कि भारत में पहली बार 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बना। इसके कारण वनों की अंधाधुंध कटाई को नियमित किया गया। बहुगुणा ने अपने इस प्रयोग को एक बड़ा फलक उस समय दिया जब मई 1981 से फरवरी 1983 तक पूरे हिमालय क्षेत्र में पदयात्रा की। इसका लक्ष्य था हिमालय के विनाश के खिलाफ पर्यावरण की चेतना जगाना। पश्चिम में कश्मीर से लेकर पूरब में कोहिमा तक की 4,870 किलोमीटर तक की यात्रा भारत के कई राज्यों और हिमालयी क्षेत्र के नेपाल और भूटान राष्ट्र से भी होकर गुजरी। इस यात्रा के दौरान बहुगुणा ने जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, असम और नगालैंड राज्य की जनता से संवाद किया और अपनी पीठ पर 30 किलो का पिट्ठू लादकर लोगों को तमाम परचे बांटे और प्रोजेक्टर से अपने संदेश दिए।

इस यात्रा का इतना प्रभाव था कि उसके बाद उनसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मिलीं और वनों की कटाई पर दस साल तक के लिए पाबंदी लगा दी। इस यात्रा के बाद उन्होंने अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा, “ झरने सूख गए हैं, पहाड़ उजड़ गए हैं और मध्य हिमालय से दक्षिण में तलहटियों तक रेगिस्तान फैलता जा रहा है। … हमने देखा कि सूखे स्रोतों से पानी लेने के लिए ग्रामीण महिलाएं लंबी लाइनें लगाकर खड़ी थीं। … हमें हर जगह लकड़ी की व्यापारिक कंपनियों की ओर से पेड़ों की कटाई होती दिखी और जंगलों के भीतरी इलाकों में भी आरा मशीनें घनघना कर चलती मिलीं।”

बहुगुणा की यह यात्रा परोक्ष रूप से डॉ राममनोहर लोहिया के हिमालय बचाओ दर्शन का ही कार्यक्रम था। वही कार्यक्रम जिस पर डॉ लोहिया ने साठ के दशक में जोर दिया था और कहा था कि हिमालय के विविध क्षेत्रों में अलग अलग संस्कृतियां हैं और उनके साथ मिलकर अगर हम हिमालय की रक्षा नहीं करेंगे तो हमारा अस्तित्व एक दिन खतरे में पड़ जाएगा। हिमालय ग्लेशियरों, हमारी नदियों, वनों और विभिन्न प्रकार के जीवों का स्रोत है। उसकी रक्षा के साथ वह तिब्बत की स्वतंत्रता की बात भी करते थे ताकि हिमालय को बचाने में उसका सहयोग लिया जा सके।

बहुगुणा ने अपने आंदोलन के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक सभी प्रतीकों का इस्तेमाल किया लेकिन उनका मकसद समाज को बांटना नहीं उसे अपने संघर्षों और परंपराओं की याद दिलाकर समुदाय को जागृत करना था। सत्तर के दशक में `उत्तराणी मेला’ के मौके पर बागेश्वर में उत्तराखंड राज्य सम्मेलन का आयोजन किया गया और लोगों ने प्राकृतिक संसाधनों की लूट और बढ़ती बेरोजगारी के मुद्दों को उठाया। महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर न सिर्फ अपनी जान देने की तैयारी की बल्कि उन्हें राखियां बांधी। जंगलों में श्रीमदभगवत गीता का पाठ किया गया। जब वन अधिकारियों ने वनों में इस तरह के आयोजन पर आपत्ति की तो लोगों का कहना था कि हमारे वेद भी तो वनों में ही लिखे गए थे और हमारे ऋषि-मुनि भी जंगलों में ही रहते थे। लेकिन धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों का उनका यह प्रयोग सांप्रदायिक राजनीति के लिए नहीं था और न ही सत्ता पाने के लिए था। वह प्रकृति की रक्षा के लिए था।

सुंदरलाल बहुगुणा की पर्यावरण राजनीति पारंपरिक भी थी और आधुनिक भी। वह गैर-राजनीतिक भी थी और राजनीतिक भी। पारंपरिक इसलिए कि वह अपने आंदोलन और चेतना के प्रसार के लिए धार्मिक प्रतीकों और त्याग-तपस्या जैसी पद्धतियों का इस्तेमाल करते थे। आधुनिक इसलिए क्योंकि उनका आंदोलन पर्यावरण की रक्षा का सबसे आधुनिक उद्देश्य की ओर संदेश देनेवाला था। उनके आंदोलन में महिलाओं की बड़ी संख्या में भागीदारी उसकी एक बड़ी उपलब्धि थी। यह इको फेमनिज्म है। वही इको फेमनिज्म जो सबसे आधुनिक दर्शन है जिसे पूरी दुनिया में वंदना शिवा ने प्रचारित किया है। वह अराजनीतिक इस मायने में थे कि पहले कांग्रेस पार्टी से जुड़े थे लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी विमला नौटियाल के कहने पर दलगत राजनीति में हिस्सा नहीं लिया। उनके सभी पार्टियों और नेताओं से संबंध अच्छे थे। वह मोरारजी देसाई, इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायण, एच.एम. पटेल और पीवी नरसिंह राव, सभी से समान रूप से संवाद करते थे। यही कारण है कि उन्हें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में एक हद तक कामयाबी मिली। उनके जो अनुयायी पार्टियों से बैर बनाकर खड़े हुए वे इसीलिए विफल हुए।

लेकिन भारत में उदारीकरण, उद्योगीकरण और शहरीकरण की जो तेज लहर 1990 के दशक में शुरू हुई उसका सामना करने की नैतिक और राजनीतिक सामर्थ्य बहुगुणा जी नहीं जुटा पाए। वह गंगा को बड़े बांधों से बचाने के लिए लड़े लेकिन हार गए। टिहरी बांध के निर्माण को रोकने के लिए उन्होंने दो बार सत्याग्रह के हथियार का जोरदार तरीके से इस्तेमाल किया लेकिन न तो इससे सरकार पर कोई असर पड़ा और न ही न्यायपालिका पर। गंगा को बचाने की इसी लड़ाई में जाने-माने पर्यावरण विज्ञानी प्रोफेसर जीडी अग्रवाल ने अपनी जान दे दी। लेकिन उससे भी मौजूदा निजाम पर कोई फर्क नहीं पड़ा।

दरअसल मौजूदा निजाम ने धर्म और संस्कृति की चादर इस तरह से ओढ़ रखी है कि वह पर्यावरण का कितना भी विनाश करे इससे लोगों को फर्क ही नहीं पड़ता। उत्तराखंड हो या उत्तर प्रदेश, सभी जगह धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन ने पर्यावरण और संवैधानिक नैतिकता को निरंतर कुचलने की ठान रखी है।  इस दौरान उनके नक्शेकदम पर जो लोग पर्यावरण रक्षा की राह पर चले वे प्रसिद्धि भले पाए लेकिन अपने दर्शन और कार्यक्रम को मूल रूप से लागू नहीं करवा पाए। आज का पर्यावरण आंदोलन जरूरी नहीं कि बहुगुणा जी के रास्ते पर चले। लेकिन उन्होंने अपनी मृत्यु से पर्यावरण चेतना को एक बार फिर जगाने की कोशिश की है। इसलिए उनके संघर्ष और उससे निकले सवालों पर विचार होना चाहिए।

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