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बिना मज़हब का त्योहार

by Rajendra Rajan
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— क़ुरबान अली —

सैर-ए-गुल फ़रोशां यानी दिल्ली में ‘फूलवालों की सैर’ का मतलब फूलवालों का वह उत्सव है जो दिल्ली वाले हर साल सप्ताह भर तक एक त्योहार के तौर पर मनाते हैं। दिलचस्प बात ये है कि इस त्योहार का कोई मज़हब नहीं है।

दिल्ली वाले चाहे वो हिन्दू हों  या मुसलमान, सिख हों या ईसाई, आपस में मिल-जुलकर अपनी उस तहज़ीब का मज़ाहिरा करते हैं जो आपसी मेल- मिलाप की साझा संस्कृति है। जिसे गंगा-जमुनी तहज़ीब और हिन्दोस्तानियत के नाम से भी जाना जाता है।

बरसात के मौसम के ठीक बाद, आमतौर पर सितंबर या अक्टूबर के महीने में आयोजित किया जानेवाला यह एक ऐसा अनोखा और अलबेला मेला और त्योहार है जिसकी शायद कोई दूसरी मिसाल देश भर में देखने को नहीं मिलती। जो सेक्युलरिज़्म, सांप्रदायिक सदभाव और क़ौमी एकता को मज़बूत करता है और लोगों को सिर्फ़ प्यार और मुहब्बत करना सिखाता है।

इस त्योहार में भाग लेने देश भर से कलाकार आते हैं और शहनाई, ढोल, ताशे-बाजे तथा नृत्य और लोक कला के ज़रिये लोगों का मनोरंजन करते हैं।

कहते हैं कि 1857 की तबाही के बाद जब दिल्ली वीरान हो गयी तो मिर्ज़ा ग़ालिब के एक दोस्त ने बज़रिये ख़त उनकी और दिल्ली की ख़ैरियत मालूम करना चाही। इसके जवाब में ग़ालिब ने लिखा “भाई क्या पूछते हो, क्या लिखूं?

दिल्ली की हस्ती मुनहसिर कई हंगामों पर थी। लाल क़िला, चांदनी चौक, हर रोज़ मजमा जामा मस्जिद का, हर हफ़्ते सैर जमुना के पुल की, हर साल मेला फूल वालों का। ये पांचों बातें अब नहीं। फिर कहो दिल्ली कहाँ? हाँ, कोई शहर इस नाम का हिंदुस्तान में कभी था।”

दिल्ली में फूलवालों की सैर का सिलसिला किस तरह शुरू हुआ, जाने-माने दिल्ली वाले और मशहूर इतिहासकार आर.वी. स्मिथ लिखते हैं कि “मुग़लिया सल्तनत की बदहाली के उस दौर में जब अकबर शाह दोयम (1808-1837) दिल्ली की गद्दी पर तख़्तनशीं था, वह अपने छोटे बेटे मिर्जा जहांगीर को अपना वली अहद बनाना चाहता था, लेकिन ब्रिटिश अहलकार उनके बड़े बेटे बहादुर शाह ज़फ़र की ताज़पोशी चाहते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि बड़े बेटे को दरकिनार कर छोटे बेटे को वारिस बनाना ग़लत होगा।”

इस सिलसिले में एक बैठक के बाद जब ब्रिटिश रेजिडेंट आर्चीबाल्ड सेटन, लाल किले से बाहर आ रहा था, उस वक़्त मिर्जा जहांगीर ने उसपर गोली चला दी। कहते हैं उस गोली से सेटन के साथ आए एक साथी की मौत हो गई।

इसका बदला लेने के लिए सेटन ने उसे गिरफ्तार करवा के दिल्ली से दूर इलाहाबाद भेज दिया। उस वक़्त बहादुर शाह ज़फ़र की सौतेली और मिर्ज़ा ज़हांगीर की सगी मां मुमताज़ महल दोयम ने मन्नत मांगी कि अगर उनका बेटा सही-सलामत घर वापस आ जाए तो वो सूफ़ी-संत ख़्वाजा कुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की मज़ार पर फूलों की चादर चढ़ायेंगी और साथ ही  मज़ार के नजदीक स्थित योगमाया देवी (भगवान श्रीकृष्ण की बहन) के मंदिर में फूलों का पंखा चढ़ायेंगी।

माता योगमाया भगवान श्रीकृष्ण की बहन थीं, जिन्हें कंस ने कृष्ण समझ कर वध कर दिया था। कहते हैं उनका शीश इस जगह गिरा था। तब से इस मंदिर में योगमाया की पिंडी स्थापित है। यहां चढ़ाये जानेवाले पंखे साल भर मंदिर में लगे रहते हैं। ये पंखे भारत के अलग-अलग राज्यों से आते हैं।

कुछ वक़्त बाद सन 1812 में जब मिर्ज़ा जहांगीर रिहा हुए और इलाहाबाद से दिल्ली वापस आये तो बादशाह और उनकी बेगम ने अपने इस वायदे को पूरा किया। कहा यह भी जाता है कि मुमताज़ महल अपनी मन्नत पूरी करने के लिए नंगे पैर चल कर गई थीं तब शहरवालों ने सारे रास्ते को फूलों से सजा दिया था।

उस साल यह समारोह इतने धूमधाम से मनाया गया कि फिर बादशाह ने इस त्योहार को हर साल मनाने का हुक्म दे दिया। तब से हिंदुस्तान के सबसे बड़े सांप्रदायिक एकता के उदाहरणों में से एक इस मेले को हर साल मनाया जाने लगा।

मुग़लकाल में दिल्ली के महरौली स्थित जहाज महल के नजदीक झरना नाम की जगह पर फूलवाली मंडी लगती थी। यहीं पर फूलों के पंखे बनते थे। पर अब न वो फूल वाले रहे न फूलों की मंडी। पर इस जगह का इतिहास अब भी जिन्दा है।

वैसे उर्दू में ग़ुल फ़रोश, फूल बेचनेवाले को कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि उस वक़्त महल की झील का पानी झरने के रूप में यहां आता था इसलिए इस जगह का नाम ‘झरना’ पड़ गया। ‘फूलवालों की सैर’ का उत्सव सात दिन तक मनाया जाता है जिसमें कई तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस दौरान मेहरौली में मेला भी लगता है।

1857 के गदर और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजों ने फूट डालो राज करो की नीति के तहत दिल्ली में ‘फूलवालों की सैर’ पर रोक लगा दी थी। 1947 में देश की आजादी और विभाजन के बाद हुए दंगों के कारण यह त्योहार कुछ वर्षों की रुकावट के बावजूद बदस्तूर चलता रहा।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1961 में लाला योगेश्वर दयाल की मदद से सांप्रदायिक सौहार्द के इस अनुपम त्योहार को दोबारा शुरू करवाया और फिर इसमें विभिन्न राज्यों के लोग भी शिरकत करने लगे। तब से यह लगातार जारी है। इस दिन दिल्ली सरकार आधे दिन की छुट्टी करती है ताकि उसके कर्मचारी भी इस त्योहार में शरीक हो सकें।

इस त्योहार की औपचारिक शुरुआत दिल्ली के उपराज्यपाल, मुख्यमंत्री और मुख्य सचिल को फूलों का पंखा देकर की जाती है। इस दौरान राजनिवास (एलजी हाउस) और दिल्ली सचिवालय में शहनाई वादन भी किया जाता है।

बाद में फूलवालों की सैर के आयोजक ‘अंजुमन सैर-ए-गुल फ़रोशां’ के सदस्य देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पंखे भेंट करते हैं। दोपहर तीन बजे से इंडिया गेट पर फूलों के पंखे, शहनाई और ढोल-ताशे के साथ सद्भावना यात्रा निकाली जाती है जिसमें सभी समुदायों के लोग शामिल होते हैं।

इस मेले के आखिरी दिन महरौली के जहाज महल में भव्य समापन समारोह आयोजित किया जाता है। दोपहर में महरौली के डीडीए पार्क में कुश्ती, कबड्डी जैसे खेलों का आयोजन होता है। आखिरी दिन अलग-अलग राज्यों से फूलों के पंखे भेंट करने के साथ जहाज महल में लोक नृत्य प्रस्तुति दी जाती है जिसके बाद कव्वाली का कार्यक्रम शुरू होता है जो रात-भर चलता है।

और इस तरह कौमी एकता और सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देनेवाले इस ऐतिहासिक उत्सव को सभी दिल्लीवासी मिलजुल कर मनाते हैं जिससे लोगों में एक-दूसरे के प्रति प्रेम, आदर और सद्भावना का संदेश फैलता है।

कहा जाता है कि भारत में गंगा-ज़मुनी तहज़ीब आदिकाल से चली आ रही है। यहां किसी भी धर्म-संप्रदाय के लोग एक-दूसरे के त्योहार को बड़े ही धूमधाम से और अपना समझकर मनाते रहे हैं और उसमें शामिल होते हैं। इस भावना का प्रतीय है ‘फूलवालों की सैर’, यह त्योहार जो सरकारी स्तर पर नहीं बल्कि आम लोगों के सहयोग से मनाया जाता है।

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