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लैंगिक समता, खेल, भारतीयता और ‘स्केटर गर्ल’

by Rajendra Rajan
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— रवीन्द्र त्रिपाठी —

भी कभी, या अकसर, एक छोटे स्थान पर घटी घटना एक व्यापक असर डालती है।  यह घटना किसी गांव में भी घट सकती है और किसी मुहल्ले में भी। यह घटना एक बीज बन जाती है जिससे विशाल पेड़ उग सकता है। बात को सही ढंग से समझा जाए इसलिए शुरू में कह दूं कि ये सब मैं हाल में नेटफ्लिक्स पर आई फिल्म `स्केटर गर्ल’ के सिलसिले में कह रहा हूं।

यह फिल्म मंजरी माकीजानी ने निर्देशित की है जो `शोले’ फिल्म में एक ही संवाद `पूरे पचास हजार’ बोलकर मशहूर हो जानेवाले दिवंगत मैकमोहन की पुत्री हैं। फिल्म राजस्थान के उदयपुर के करीब बसे एक छोटे से गांव खेमपुर की पृष्ठभूमि में बनी है। यहां लंदन में पली-बढ़ी पर भारतीय और राजस्थानी मूल की चौंतीस साल की एक लड़की जेसिका बतौर पर्यटक आती है। जिसे आमतौर पर पश्चिमी स्टाइल की कहा जाता है जेसिका उसी तरह की है। गोरी तो है ही, वो एक खास अंदाज में हिंदी बोलती है। यानी ब्रिटिश एक्सेंट के साथ। शर्ट-पैंट पहनती है। कभी कभीर स्लीवलेस शर्ट भी। राजस्थान के उस दूरस्थ इलाके में वो `अंग्रेज’ लगती है।

गांव के कुछ बच्चे देसी किस्म का स्केटबोर्डिंग (आम बोलचाल में स्केटिंग भी कहते) करते हैं। जैसे कई गांवों और कस्बों में साधनहीन बच्चे क्रिकेट खेलने के दौरान विकेट कीपिंग के लिए हवाई चप्पल को ग्लव्ज की तरह इस्तेमाल करते हैं वैसे ही खेमपुर के बच्चे कुछ इधर उधर की चीजें जोड़कर स्केटबोर्ड जैसा कुछ तैयार कर लेते हैं। पर जेसिका वहां अपने एक परिचित अमेरिकी पुरुष मित्र, जो एक एनजीओ के साथ जुड़ा है, के साथ मिलकर सही ढंग का स्केटबोर्ड तैयार कराने में मदद करती है। गांव में एक गरीब और भील परिवार की एक लड़की है प्रेरणा। करीब चौदह-पंद्रह की है पर स्कूल नहीं जा पाती। वजह यह है कि उसके पास न यूनीफॉर्म है और न किताबें। उसका एक छोटा भाई अंकुश भी है जो शैतान किस्म का है।

प्रेरणा के पिता गरीब हैं पर पितृसत्ता वाली मानसकिता के हैं। यानी औरतों को घर से बाहर नहीं जाना चाहिए, इस विचार के हैं। जेसिका प्रेरणा को स्कूल का यूनीफॉर्म सिलाकर देती है और उसे स्केटिंग की तरफ प्रेरित करती है। प्रेरणा जब अपने भाई के साथ स्केटबोर्डिंग करती है उसके पिता नाराज हो जाते हैं। गांव का अध्यापक भी, जो ऊंची जाति (ब्राह्मण) का है। अध्यापक को इस बात की नाराजगी भी है कि गांव के बच्चे उसकी कक्षा में आने की बजाय स्केटिंग करते रहते हैं। बात गांव के पंचों तक पहुंचती है और बच्चों के स्केटबोर्डिंग पर प्रतिबंध लग जाता है। गांव का थानेदार भी जेसिका को हड़काता है कि ये सब यहां नहीं चलेगा। लेकिन जेसिका भी हार माननेवाली थोड़े  है। वो एक स्थानीय पूर्व महारानी के सहयोग से स्केटपार्क बनवाती है और स्केटबोर्डिंग की प्रतियोगिता कराती है। प्रेरणा इसमें भाग लेना चाहती है पर उसकी राह में कई तरह के अवरोध आते हैं।

ये सब अलग मामला है। प्रासंगिक बात यह है कि जेसिका स्केटबोर्डिंग की प्रतियोगिता आयोजित करके गांव में एक हवा बहा देती है। ये ऐसी हवा है जिससे पितृसत्ता की चूलें कुछ कुछ हिलती हैं, लैंगिक समानता की तरफ गांववालों के कुछ कदम बढ़ते हैं। लड़कियों की शिक्षा संबंधी भारत में जो स्थिति है उसकी तरफ भी हमारा ध्यान जाता है।

`स्केटर गर्ल’ पूरी तरह काल्पनिक फिल्म नहीं है। मोटे तौर पर यह छह साल पहले, यानी 2015 में मध्यप्रदेश की एक घटना पर आधारित है। वहां एक गांव है जनवार, जहां मुख्य रूप से गोंड जनजाति के लोग बसते हैं। वहां जर्मनी की एक सोशल एक्टिविस्ट, लेखिका और व्यापार सलाहकार उर्लिके रीनहार्ड आईं। रीनहार्ड एक स्कूल खोलना चाहती थीं लेकिन उसने `स्केटिस्तान’ नाम के अंतरराष्ट्रीय एनजीओ के काम से प्रेरित होकर जनवार में एक स्केटपार्क बनाने का तय किया। और जर्मनी की `स्केड एड’  नाम की संस्था के सहयोग से बनाया भी, जिसका शुरू में गांव में कई प्रभावशाली लोगों ने विरोध भी किया। पर इसी गांव की आशा गोंड नाम की लड़की बहुत अच्छी स्केटर बनी। उसने भारत में कई स्केटबोर्डिंग प्रतियोगिताओं में शिरकत तो की ही, साथ ही चीन के नानजिंग शहर में विश्व स्केटबोर्डिंग प्रतियोगिता में भाग भी लिया। हालांकि वो उसमें आखिरी स्थान पर रही लेकिन महिला स्केटबोर्डिंग वाली प्रतिभागियो में वो अकेली भारतीय थी। उस प्रतियोगिता में उन देशों के लोग ज्यादा थे जहां स्केटबोर्डंग की लंबी परंपरा है। फिल्म `स्केटर गर्ल’ इसी आशा गोंड की कहानी से प्रभावित है और प्रेरणा का चरित्र भी।

यह फिल्म `स्केट’ कई सामाजिक, लैंगिक और वैचारिक पहलुओं को स्पर्श करती है। इसमें जातीय विषमता तो है ही भारतीय समाज में, विशेषकर ग्रामीण इलाकों में, औरतों और ल़ड़कियों को जिस भेदभाव का सामना करता पड़ता है उसकी ओर भी हमारा ध्यान खींचती है। प्रेऱणा का पिता यह सहन नहीं कर पाता कि उसकी बेटी स्केटिंग करे। इसलिए नहीं कि स्केटिंग से चिढ़ है, उसे बेटे के स्केटिंग करने पर आपत्ति नहीं है, बेटी को लेकर है। और प्रेरणा इसलिए स्केटिंग नहीं करना चाहती कि यह एक खेल है, बल्कि इसलिए कि ऐसा करते हुए उसे खुशी और मुक्ति का एहसास होता है। इसलिए वो शादी के दिन घर से भागकर स्केटिंग की प्रतियोगिता में भाग लेने चली जाती है।

इस फिल्म में एक और वैचारिक पहलू उभरता है जिसे हम मोटे तौर पर `भारतीयता’ संबंधी  दृष्टिकोण कह सकते हैं। आमतौर पर हर नई चीज को विदेशी बताकर संदिग्ध और `अभारतीय’ करार देने का रिवाज है यहां। फिल्म में जब गांव के बच्चों को सार्वजनिक जगहों पर स्केटबोर्डिंग करने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है तो जेसिका थाने में जाती है। वहां भी थानेदार उससे कहता है कि `आप भारतीय हैं तो ये विदेशी चीजें क्यों ला रही हैं’। उसे और कई दूसरों को स्केटबोर्डिंग को लेकर यह भी आपत्ति है कि ये विदेशी है। हालांकि भारत में फुटबॉल, हॉकी और क्रिकेट जैसे लोकप्रिय खेल भी विदेशों से यहां आए हैं। वास्तविकता यह है कि स्केटबोर्डिंग को लेकर आपत्ति इसलिए है कि ये गांव के भीतर निहित यथास्थितिवाद को बदल रहा है और इसके विरुद्ध बहाना बनाया जाता है अभारतीयता का।

यह हमारे दैनंदिन जीवन में भी अकसर दिखाई देता है। औरतों या लड़कियों के लिए खास `ड्रेसकोड’ को लेकर। वहां भी भारतीयता बनाम अभारतीयता का तर्क दिया जाता है। भारतीय लड़कियों या महिलाओं की अपनी भावना या पसंद को नजरअंदाज किया जाता है और उनको खास पहनावा ही पहनने के लिए कहा जाता है। इस बात को समझने और स्वीकार करने में भी हमें शायद  कई दशक, या उससे भी अधिक लगेंगे कि मनुष्य सिर्फ अपने गांव या देश के रीति-रिवाजों में नहीं जीता, वो एक वैश्विक समय भी जीता है। इसलिए `स्थानीयता या भारतीयता बनाम वैश्विकता’  का मामला नहीं होता, स्थानीयता या भारतीयता और वैश्विकता का होता है। कोई भी बात, खेल या पहनावा इसलिए बुरा नहीं हो जाता कि  वो विदेशी मूल का है। `संकुचित भारतीयता’ अतत:   भारतीयों के खिलाफ चली जाती है।

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