Home » मुख्यधारा को मोड़नेवाला कर्मयोगी : दूसरी किस्त

मुख्यधारा को मोड़नेवाला कर्मयोगी : दूसरी किस्त

by Rajendra Rajan
0 comment 10 views

सुनील (4 नवंबर 1959 – 21 अप्रैल 2014)

— सुनील —

किशन पटनायक किसान आंदोलन के एक बड़े समर्थक थे। इसे कुलक आंदोलन कहनेवालों को उन्होंने काफी फटकारा। अस्सी और नब्बे के दशक के लगभग सभी बड़े किसान आंदोलनों के साथ उनका सम्पर्क हुआ तथा इन आंदोलनों को वैचारिक आधार देने की सफल–असफल कोशिश उन्होंने की। किसान आंदोलन में वे क्रांतिकारी संभावनाएँ देखते थे। आगे बढ़ने के लिए इसे अनिवार्य रूप से व्यवस्था-परिवर्तन के लक्ष्य के साथ जुड़ना होगा, यह बार-बार  कहते थे। संगठित मजदूर, कर्मचारी आदि के आंदोलन संकीर्ण व स्वार्थी हो सकते हैं, लेकिन किसान तो इतना बड़ा तबका है कि उसी के शोषण पर पूरी व्यवस्था टिकी है। और पूरी व्यवस्था के आमूल बदलाव के बगैर इसकी मुक्ति संभव नहीं। वैश्वीकरण विरोधी लड़ाई में भी किसान आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होगा, वे मानते थे। शरद जोशी से उनका वैचारिक टकराव बहुत पहले हो चुका था और इसी टकराव ने तभी स्पष्ट कर दिया था कि शरद जोशी जैसे नेताओं का असली चरित्र, सोच व इरादे क्या हैं?

सोलह-सत्रह वर्ष पहले नागपुर में किसान संगठनों की अंतरराज्यीय समन्वय समिति की उस बैठक का मैं भी साक्षी हूं, जिसमें काफी बहस हुई थी। इस बैठक में किशन जी ने किसान आंदोलन के एक वैचारिक आधार की जरूरत को प्रतिपादित किया था और कहा था कि किसान आंदोलन को अपनी उद्योग नीति, शिक्षा नीति, प्रशासन नीति आदि भी बनाना पड़ेगा। शेतकरी संघटन द्वारा यूकेलिप्टस की खेती के समर्थन, गेहूं व कपास की खेती छोड़ने का आह्वान आदि पर भी बहस हुई थी। शरद जोशी के जीन्सधारी चेलों ने किशन जी की व हमारी बात नहीं चलने दी और कहा कि कृषि उपज का लाभकारी मूल्य ही मुख्य चीज है। वह मिलने लगेगा, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। इसके बाद ही दिल्ली में किसानों की वह ऐतिहासिक रैली हुई, जिसमें टिकैत और शरद जोशी का झगड़ा हो गया। शरद जोशी इसके बाद अलग-थलग पड़ते गए। वैश्वीकरण की जिन नीतियों का समर्थन शरद जोशी कर रहे थे, उनका नतीजा यह निकला कि देश के कई हिस्सों में किसान आत्महत्या के कगार पर पहुँच गए। इतिहास ने एक बार फिर किशन पटनायक को सही साबित किया।

वर्ष 1993 में दिल्ली में डंकल प्रस्ताव के खिलाफ किसानों की ऐतिहासिक रैली के आयोजन में किशन पटनायक की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्व वाले आंदोलन के साथ भी उन्होंने एक संबंध व संवाद बनाने की कोशिश की, लेकिन ज्यादा सफलता नहीं मिली। ‘टिकैत और प्रोफेसर’ शीर्षक लेख उन्हीं दिनों लिखा गया। कर्नाटक के रैयत संघ और प्रो. नन्जुदास्वामी से तो उनका लगातार गहरा संबंध रहा। किशन पटनायक ने स्वयं किसी बड़े किसान आंदोलन का नेतृत्व नहीं किया, लेकिन बाद के वर्षों में स्वयं उनके क्षेत्र में लिंगराज, गौरचन्द्र खमारी, अशोक प्रधान जैसे युवा कार्यकर्ताओं की टीम सक्रिय होने के बाद पश्चिम ओड़िशा का एक जोरदार किसान आंदोलन अंगड़ाई ले रहा है। इसके प्रेरणा-स्रोत भी किशन पटनायक हैं।

आधुनिक पूंजीवादी विकास की विसंगतियों से ओड़िशा में और पूरे देश में पिछले तीन दशक में अनेक स्वतःस्फूर्त जन आंदोलन पैदा हुए, जिनमें किसान आंदोलन के अतिरिक्त आदिवासियों, दलितों, विस्थापितों, विद्यार्थियों, पिछड़े इलाकों आदि के अनेक आंदोलन उभर कर आए। यह समय एक प्रकार से विचारधारा पर आधारित समाजवादी और कम्युनिस्ट धाराओं के पराभव का तथा इन छोटे-छोटे जनान्दोलनों के उदय होने का समय था। नए आदर्शवादी नौजवान इन्हीं की ओर ज्यादा आकर्षित हुए। लेकिन वैचारिक-राजनैतिक दृष्टि की कमी और सम्पूर्णता तथा व्यापकता का अभाव इनका एक प्रमुख दोष रहा है, जिसके कारण वे ज्यादा स्थायी असर नहीं छोड़ पा रहे हैं। किशन पटनायक ने समय के इस प्रवाह को पहचानकर इन जनान्दोलनों के साथ आत्मीय रिश्ता बनाया और इनको व्यवस्था-परिवर्तन की सोच, राजनीति व रणनीति से जोड़ने की काफी कोशिश की। इस कोशिश में कितनी सफलता मिली है, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इस दिशा में गंभीरता से प्रयास करनेवाले प्रमुख नेता–विचारक वे ही रहे हैं।

अपने वैचारिक अभियान के तहत ही किशन पटनायक ने इस युग के एक और प्रमुख प्रश्न पर अपने विचार प्रखरता व मजबूती से रखे। साम्प्रदायिकता व धार्मिक कट्टरता का विरोध करते हुए ‘सेकुलरवाद’ पर भी उन्होंने प्रहार किए। साम्प्रदायिकता का जवाब आधुनिक पश्चिमी धर्म-विरोधी दृष्टि में खोजने के बजाय हमारी परंपरा, संस्कृति और राष्ट्रीयता में खोजने का आह्वान उन्होंने किया। आम वामपंथियों से उनके इस मामले में गहरे मतभेद थे। स्वयं नास्तिक होते हुए भी वे न तो धर्म का पूरी तरह विरोध करते थे, न राष्ट्रीयता की भावना को गलत मानते थे और न ही भारत राष्ट्र की संकल्पना को प्रतिगामी मानते थे। बल्कि सांप्रदायिकता, साम्राज्यवाद और वैश्वीकरण के खिलाफ लड़ाई में राष्ट्रीयता और देशप्रेम एक महत्त्वपूर्ण औजार होंगे, ऐसा वे मानते थे। साम्राज्यवाद के विरुध्द लड़ाई शून्य में अमूर्त ढंग से नहीं हो सकती है। वह अनिवार्य रूप से राष्ट्र-मुक्ति के संघर्ष का रूप लेती है, यह इतिहास का भी अनुभव है।

लेकिन राष्ट्रवादी होते हुए भी अंध राष्ट्रवाद या उग्र राष्ट्रवाद उन पर हावी नहीं हो पाया। असम आंदोलन, उत्तर पूर्व, उत्तर बंग, कश्मीर और पंजाब मसले जब सामने आए तो देश दो हिस्सों में बंट गया। एक बड़ा हिस्सा मानता था कि ये आंदोलन देश को तोड़नेवाले हैं, विदेशी साम्राज्यवादी साजिश का हिस्सा हैं और इसका सख्ती से दमन कर देना चाहिए। इन इलाकों में फौजी बलों द्वारा ज्यादतियों और मानव अधिकारों के हनन को भी ऐसे लोग बिलकुल अनदेखा कर देते थे लेकिन किशन पटनायक, सच्चिदानन्द सिन्हा और जसवीर सिंह जैसे लोगों ने पूरे मामले को अलग दृष्टि से देखने में मदद की। उन्होंने बताया कि कैसे पूंजीवादी विकास के कारण उपजी क्षेत्रीय विषमता, पिछड़ापन, सत्ता का केंद्रीयकरण, केंद्रीय सत्ता का अहंकार और क्षुद्र राजनीति ने इन इलाकों की जनता में तीव्र असंतोष को जन्म दिया और बढ़ाया। बहुसंख्यक सामप्रदायिकता ने भी उसमें मदद की। इन क्षेत्रीय आंदोलनों तथा उग्रवाद को विदेशी मदद हो सकती है, लेकिन यह इसका मूल कारण नहीं है। फौजी दमन से ये समस्याएं सुलझेंगी नहीं, बल्कि और गंभीर होती जाएंगी।

समता संगठन के अंदर भी इस मुद्दे पर बहस हुई और एक दृष्टि बनी। इस दृष्टि के कारण ही उत्तर बंग जैसे आंदोलन को देश के अंदर समर्थन मिल गया और वे समता संगठन तथा समाजवादी जनपरिषद के साथ जुड़े। असम आंदोलन के समर्थन में दिल्ली से गुवाहाटी तक की साइकिल यात्रा और पंजाब के प्रश्न पर दिल्ली से अमृतसर तक पैदल मार्च का आयोजन भी क्रमशः 1983 एवं 1984 में किया गया। बाद में कश्मीर की स्थिति गंभीर होने पर अशोक सेकसरिया ने ‘सामयिक वार्ता’ में एक लम्बा शोधपरक लेख लिखा, जो कश्मीर की गुत्थी को समझने में काफी मदद करता है। जनांदोलन का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) की बैठक थी या समाजवादी जनपरिषद की, मुझे याद नहीं, उसमें एक बार किशन जी ने भी कश्मीर समस्या का बहुत अच्छा विश्लेषण रखा। इन मसलों पर बाकी वामपंथियों से मतभेद भी सामने आए। मुझे याद है कि मधु लिमये और गणेश मंत्री जैसे समाजवादी विचारक मानते थे कि ये सारे क्षेत्रीय आंदोलन क्षेत्रीयतावादी, पृथकतावादी, विदेशी शक्त्तियों से प्रेरित तथा राष्ट्रीय एकता के लिए घातक हैं। बंगाल की सत्ता पर काबिज कम्युनिस्ट पार्टियां तो असम और उत्तर बंगाल के आंदोलन को विच्छिन्नतावादी और शॉविनिस्ट मानती ही थीं, ताकि वे स्वयं बंगालियों, की संकीर्ण भावनाओं का लाभ वोटों में ले सकें।

(कल तीसरी और अंतिम किस्त )

You may also like

Leave a Comment

हमारे बारे में

वेब पोर्टल समता मार्ग  एक पत्रकारीय उद्यम जरूर है, पर प्रचलित या पेशेवर अर्थ में नहीं। यह राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह का प्रयास है।

फ़ीचर पोस्ट

Newsletter

Subscribe our newsletter for latest news. Let's stay updated!