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प्रयाग शुक्ल की सात कविताएं

by Rajendra Rajan
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1.

जल के साथ जल हूँ

 

जल के साथ जल हूँ,

खेतों तक उसे लाता हुआ।

बीज के साथ बीज हूँ,

उसे उगाता हुआ।

हवा के साथ हवा हूँ,

फसल के साथ लहराता हुआ।

धूप के साथ धूप हूँ,

धान पकाता हुआ।

ठंड के साथ ठंड हूँ,

पहरे पर जाता हुआ।

दिन हूँ, रात हूँ,

सुबह दुपहर शाम हूँ,

अनथक बेचैन हूँ।

आपका और अपना चैन हूँ,

अन्न के ढेर लगाता हुआ।

नन्हें दुधमुँहों के मुँह से,

बूढ़े बुजुर्ग मुँहों तक

मैं ही तो हूँ,

दुखी या मुस्काता हुआ।

 

2.

कथाएँ

 

चाहने भर से पूरी नहीं होतीं इच्छाएँ।

खरीद लेने भर से काम नहीं आतीं दवाएँ।

मन के जल के अभाव में मुरझा जाती हैं कल्पनाएँ।

बिखर जाती हैं कितनी ही संध्याएँ।

 

खो गयीं। खो जाती हैं आँधी-तूफान में समुद्री नौकाएँ।

बनती मिटती रहती हैं दिन भर छायाएँ।

अच्छा लगता है जब चलती हैं मंद हवाएँ।

खो जाती हैं कितनी ही कायाएँ।

 

राहत बस इतनी-सी

खत्म नहीं होती हैं कथाएँ।

 

3.

नयी साँस

 

धूप आयी निकल।

जो कुछ विकल

वह पिघला।

भूलकर पिछला

नये ने ली साँस।

फिर से बहुत कुछ बदला!

 

पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल

4.

वृक्ष छाया

 

वृक्ष की छाया

अपरिमित,

बहुत कोमल

बहुत शीतल।

डोलती बस परत-सी।

पर,

अनगिनत

तल

अतल।

जैसे जल!

 

5.

पत्तियाँ

 

पत्तियाँ खुलतीं।

पत्तियाँ खिलतीं –

कि जैसे फूल।

चंचला-सी हवा में,

जातीं स्वयं को भूल!

देखते जो उन्हें –

सुख देतीं।

हरी हों या झरी,

वे हैं कब विमुख होतीं!

पत्तियाँ हैं

पत्तियाँ –

चाहे जहाँ उगतीं।

रात हो या दिन,

सदा जगतीं!!

 

6.

पंखुड़ियाँ

 

पंखुड़ियों की तरह खुलती हैं किरणें।

पंखुड़ियों की शक्ल में उड़ते झुंड चिड़ियों के।

पंखुड़ियों की तरह दिखती हैं पर्वत चोटियाँ।

पंखुड़ियाँ बनकर ही बहती हैं लहरें।

पंखुड़ियों की तरह ही खिलती हैं आशाएँ।

पंखुड़ियों की तरह ही राह में

दिन की — फूटती हैं दिशाएँ!

 

7.

तुम मत घटाना

 

तुम घटाना मत

अपना प्रेम

तब भी नहीं

जब लोग करने लगें

उनका हिसाब।

 

ठगा हुआ पाओ

अपने को

अकेला

एक दिन –

तब भी नहीं।

 

मत घटाना

अपना प्रेम।

 

बंद कर देगी तुमसे बोलना

नहीं तो

धरती यह चिड़िया यह घास यह –.

मुँह फेर लेगा आसमान।

 

नहीं, तुम घटाना नहीं

अपना प्रेम।

 

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4 comments

dhananjay singh May 23, 2021 - 8:04 AM

समकालीन आधुनिक कविता के प्रमुख हस्ताक्षर कवि-कला मर्मज्ञ-अनुवादक व चित्रकर्मी श्री प्रयाग शुक्ल की कई कविताएं उक्त पटल पर मुखरित है।
कवि की कविता में या चित्रकार की कविता में समान छायाएं शब्द-आकार पाकर भावों का अनुकीर्तन करते है कवि प्रयाग जी की कविता में किसानों के आंसुओं की बूंदें भी सँवरती हैं ,दूसरी ओर प्रकृति संसाधनों को प्रतीक बनाकर मन-प्राण को पुनर्जीवित कर हौसला से भर देने का माद्दा रखती हैं । भाषा की सुगमता पाठक को कवि के भाव में बहा ले जाती है। यही खूबी उनके चित्रों में भी आपको दिखाई देती है, प्रकृति के अवयव प्रकृति की सुगबुगाहट उनकी भाषा में जान फूँकते हैं।
अनेक शुभकामनाओं के साथ आदरणीय श्रद्धेय कवि की कविता और चित्रकार की चित्रकारिता के लिए शुभकामनाये और ढेरों बधाईयाँ।
आपका स्नेहाकांक्षी

●धनञ्जय सिंह
132/117,नागबासुकि मार्ग, दारागंज
इलाहाबाद(प्रयागराज)-06
फ़ोन:7999413073.

Reply
Vivek mishra May 24, 2021 - 12:03 PM

प्रयाग शुक्ल की कविताएं आकार में चाहे जितनी छोटी हों पश्र मन पर हमेशा के लिए छाप छोड़ती हैं । उनके यहां प्रकृति से खुलकर बातचीत है और वह कितने रंग से कितने रूप से हमारे साथ संवाद करती है कि आप बस अवाक होकर देखते रह जाते हैं । मत घटाना /अपना प्रेम । यह कविता जीवन की कितनी पर्तो को लेकर बैठी है यह तभी जाना और समझा जा सकता है जब आप जीवन प्रक्रिया से गुजरते हैं उनकी कविता प्रकृति के पथ से चलते हुए जीवन की असीम संभावना पर बात करते हुए चलती है । उनकी कविता मूलतः दृश्यता की आंख है ।

Reply
Vivek mishra May 24, 2021 - 12:05 PM

प्रयाग शुक्ल की कविताएं आकार में चाहे जितनी छोटी हों पश्र मन पर हमेशा के लिए छाप छोड़ती हैं । उनके यहां प्रकृति से खुलकर बातचीत है और वह कितने रंग से कितने रूप से हमारे साथ संवाद करती है कि आप बस अवाक होकर देखते रह जाते हैं । मत घटाना /अपना प्रेम । यह कविता जीवन की कितनी पर्तो को लेकर बैठी है यह तभी जाना और समझा जा सकता है जब आप जीवन प्रक्रिया से गुजरते हैं उनकी कविता प्रकृति के पथ से चलते हुए जीवन की असीम संभावना पर बात करते हुए चलती है । उनकी कविता मूलतः दृश्यता की आंख है ।

विवेक कुमार मिश्र
कोटा

Reply
प्रकाश मनु June 2, 2021 - 1:35 PM

प्रयाग जी की कविताएँ जीवन की कविताएँ हैं, जीवन-राग की कविताएँ हैं, प्रकृति से सच्चे अनुराग की कविताएँ हैं, पर साथ ही हमारे जीवन की उन कठोर सच्चाइयों और संघर्षों की कथाएँ भी हैं, जिन्हें बहुतेरे लोग और माध्यम नजरों से ओट करने की कोशिश करते हैं। हमारे समाज में एक आम आदमी को धीरे-धीरे अपदस्थ करने की जो निरंतर कोशिशें हो रही हैं, ये कविताएँ उसके खिलाफ खड़ी होती हैं। गो कि वे अपनी बात बहुत धीमे सुर और शांत मुहावरे में कहती हैं। फिर सबसे बड़ी बात यह कि हताशा के इस दौर में भी ये कविताएँ आशा और उम्मीद के साथ खड़ी हैं, और एक फूल का खिलना, एक पत्ती का प्रफुल्ल होकर हवा में नाचना–कुछ भी उसकी नजरों से ओट नहीं होता।
प्रयाग जी की कविताओं में प्रेम न सिर्फ बचा हुआ है, बल्कि वह जीवन, साहित्य और प्रकृति में एक प्रसन्न हिलोर बनकर उपस्थित है और हमें मुश्किल घड़ियों में भी हारने नहीं देता। इसके साथ ही इन कविताओं में एक अद्भुत गीतात्मक लय है और चित्रकार की सी सजगता भी, जो उन्हें औरों से अलग और विशिष्ट बना देता है। थोड़े आखरों में बहुत बोलने वाली प्रयाग जी की इतनी जीवंत कविताएँ पढ़वाने के लिए ‘समता मार्ग’ का आभार। – स्नेह, प्रकाश मनु

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