Home » सुंदरलाल की कुटिया के डूबने का अर्थ

सुंदरलाल की कुटिया के डूबने का अर्थ

by Rajendra Rajan
0 comment 12 views

— संजय गौतम —

(यह निबंध दिसंबर, 2001 में उस समय लिखा गया था, जब टिहरी शहर भागीरथी नदी को रोके जाने से डूब क्षेत्र में आ गया था। इस जल में पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा की कुटिया भी डूब गई थी। सुंदरलाल बहुगुणा अविरल नदी को अपनी माँ मानते थे, इसे माँ की मृत्यु मानते हुए उन्होंने अपने दाढ़ी-बाल तक छिलवा लिये थे। उनकी चिंतनधारा को विश्लेषित करता यह निबंध आज जब पर्यावरण की कीमत पर विकास का बुलडोजर और तेज चल रहा है तब और भी प्रासंगिक है, साथ ही बहुगुणा की स्मृति को समर्पित है।)

अंततः प्रख्यात पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा की वह कुटिया टिहरी में ठहरी हुई भागीरथी के जल में डूब गई, जिसे बचाने का प्रयास वह बरसों से कर रहे थे। इसी के साथ डूब रहा है पचास हजार की आबादी वाला करीब दो सौ वर्ष पुराना वह शहर, जो अपने आप में कई ऐतिहासिक स्मृतियों को तो समेटे हुए था ही, उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान का भी प्रतिनिधित्व करता था। दो हजार चार सौ मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए तैयार हो रहे एशिया के इस सबसे बड़े बाँध में चालीस वर्ग किलोमीटर में बसा यह शहर डूब जाएगा। अखबारों में आनेवाली खबरों के भावुक अंश पर न भी ध्यान दें तो इतना तो कहना ही पड़ेगा कि भागीरथी के रोक दिए जाने से स्थानीय जनता का वह विश्वास ही टूटा है जिसके कारण वह भागीरथी को अविरल, अविच्छिन्न धारा वाली माँ मानती थी। भागीरथी जब दो दिन के लिए पूरी तरह रोक दी गई तो स्त्रियों की आँखों से आंसुओं की धारा बह निकली। उनके मस्तिष्क में टिकी हुई वे मिथकीय स्मृतियां भी पछाड़ खाकर रोने लगीं, जो राजा भगीरथ से जुड़ी हुई थीं। भागीरथी के रुकने को वे भागीरथी की मौत तो मान ही रही थीं, उस संस्कृति की भी मौत मान रही थीं जो उनके जीवन से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई थी।

सुंदरलाल बहुगुणा ने अपने दाढ़ी-बाल बनवा लिये तो इसलिए नहीं कि वे राजनेताओं की तरह कोई नाटक करके लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। भागीरथी की मौत सचमुच उनकी माँ की मौत जैसा ही है, क्योंकि वे एक गहरे अर्थ में ठहरे हुए जल को मृत जल मानते हैं। बहुत सारे लोगों को पचास हजार की आबादी वाले इस शहर के साथ सुंदरलाल बहुगुणा की कुटिया के डूबने का कोई मतलब इसलिए नहीं है कि वे विकास के लिए इसे छोटी-सी कीमत मानते हैं। वे मानते हैं कि विकास के लिए बिजली जरूरी है, बिजली के लिए बाँध जरूरी है और बाँध बनेंगे तो लोग डूबेंगे ही। यह डूब उनके लिए साधारण विस्थापन है और इसे पुनर्वास के जरिये हल किया जा सकता है। उनके लिए इसके साथ-साथ संस्कृति का प्रश्न उठाना या भावुक होना नितांत पिछड़ापन है और विकास में बाधा डालना है, जैसा कि सुंदरलाल बहुगुणा और उनके साथी और वहाँ की जनता दिखा रही है। हालांकि सचमुच पुनर्वास भी प्रशासन संभव नहीं करा पाता है, जो एक अलग सवाल है।

बहुगुणा ने जब पहाड़ की ठेठ और स्वायत्त संस्कृति के संदर्भ में इन प्रश्नों को उठाना शुरू किया तो उन्हें पिछड़ा, लोकतंत्र विरोधी और विज्ञान विरोधी घोषित कर उनका मजाक उड़ाया गया, उनका उपहास किया गया। सन 1986 में उन्होंने ‘डा. राजेन्द्र प्रसाद व्याख्यानमाला’, के अंतर्गत लखनऊ में एक व्याख्यान दिया था, जिसका विषय था- ‘सभ्यता का संकट और संस्कृति का संदेश : पर्यावरण के संदर्भ में’। इस व्याख्यान में धारा के विरुद्ध तैरने की उनकी जीजिविषा और व्यापक दृष्टि का परिचय मिला। चिपको आंदोलन को भले ही विकास विरोधी घोषित कर दिया गया हो, लेकिन बहुगुणा ने विकास की समूची अवधारणा को ही चुनौती दी। उन्होंने विकास की प्रचलित अवधारणा से उपजे हुए संकट को पर्यावरण, संस्कृति और सभ्यता के संकट से जोड़ने का उपक्रम करते हुए अपने आप को उन सवालों से जोड़ा जो उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटेन में रस्किन ने, अमेरिका में थोरो ने और बीसवीं शताब्दी में महात्मा गांधी ने शिद्दत से उठाये थे और आज के समय में मेधा पाटेकर, किशन पटनायक जैसे लोग उठा रहे हैं।

उन्होंने कहा था- ‘आखिर, जिसको आज हम सभ्यता मानते हैं, वह है क्या? सामान्यतः तीन चार सौ वर्ष पहले यूरोप में जो औद्योगिक क्रांति हुई उससे उपजी एक नयी सभ्यता ने जीवन और प्रकृति के प्रति मनुष्य के दृष्टिकोण में एक बुनियादी परिवर्तन कर दिया। भाप के इंजन ने मनुष्य के हाथ में असाधारण शक्ति दे दी। इस शक्ति का प्रयोग करके प्रकृति के साथ व्यवहार करने का उसका जो रिश्ता था, वह बिलकुल बदल गया। प्रकृति उसके लिए एक संसाधन मात्र रह गई और वह उस संसाधन का स्वामी बन गया। इसके अलावा अब वह अपने को अन्य जीव-जंतुओं से बड़ा मानने लगा, क्योंकि प्रकृति पर काबू पाने की शक्ति और साधन उसके अलावा किसी के पास नहीं थे। दूसरे, उसने समाज की परिभाषा बदल डाली। पहली बार उसने केवल मानवों के समाज को ही समाज माना और इस प्रकार समाज केवल मानवों के समाज तक ही सीमित कर दिया गया। ये दो मान्यताएं आज की मानव सभ्यता के विकास का आधार बनीं। ‘प्रकृति वस्तु है, समाज केवल मानवों का है’।

इस तरह सुंदरलाल बहुगुणा ने बांध का विरोध करने और जंगल बचाने के क्रम में आज की सभ्यता की मूल प्रेरणा एवं प्रवृत्ति तथा उससे उपजे संकट को उजागर किया। कभी महात्मा गाँधी ने कहा था कि आज की जैसी सभ्यता ब्रिटेन की है, उसकी भूख शांत करने के लिए, उसकी जरूरतें पूरी करने के लिए उपनिवेश बनाने एवं उन्हें लूटने की अनिवार्यता है। लूट के माल पर ही इस तरह की उपभोक्तावादी संस्कृति पर टिकी हुई सभ्यता जीवित रह सकती है। आज अमरीका के संदर्भ में देखें तो यह बात ज्यादा नग्न होकर सामने आती है और साधारण जन को भी यह महसूस हो रहा है कि अमरीका अपने प्रभाव वाले संगठनों के माध्यम से पूरी दुनिया को आर्थिक रूप से गुलाम बनाकर अपनी जरूरतें पूरी करना चाहता है।

पर्यावरण एवं संस्कृति की सतही चिंता करने वाले लोग आज भी सभ्यता से इनके अंतर्संबंधों को देखने का उपक्रम नहीं करना चाहते हैं। वे पर्यावरण को लेकर विश्वव्यापी चिंता में शामिल भी होते हैं और आज की इस औद्योगिक सभ्यता को चलाए भी रखना चाहते हैं। सुंदरलाल बहुगुणा ने सच्चे पर्यावरणविद के नाते इसे और अधिक बुनियादी चिंताओं से जोड़ा- “इस प्रकार भोगवादी सभ्यता ने मानव जाति को तीन तोहफे दिए- युद्ध, प्रदूषण और भुखमरी। इनमें से प्रदूषण को मैं पहला स्थान देता हूँ, क्योंकि प्रदूषण की समस्या गरीब और अमीर देशों में समान रूप से है। इसका जन्म विपुलता वाले विकास की कोख से हुआ है और इसकी शुरुआत मानव की भोगलिप्सा वासना को भड़काकर होती है। इसलिए जब तक मूल पर प्रहार नहीं होगा, गरीब देशों को इससे मुक्ति मिलने की कोई आशा नहीं है।

“अब इस दुनिया के विकासशील, अल्पविकसित और अविकसित माने जानेवाले अधिकतर देशों की मुख्य समस्या मिट्टी के क्षरण और जल संकट की है। लेकिन पश्चिमी ढंग के विकास और केंद्रीकरण के साथ-साथ जल और वायु तथा ध्वनि प्रदूषण की समस्याएं इन देशों के नगरों में जटिल रूप धारण कर रही हैं।..विकास की इस दौड़ में शामिल होनेवाला देश युद्ध से नहीं बच सकता, क्योंकि युद्ध की तैयारियों के पीछे बाजार और प्रभाव क्षेत्र का लालच है। फिर निर्धनता का सवाल आता है। आज गरीबी का मुख्य कारण धनवानों के वैभव को कायम रखने के लिए किया जानेवाला शोषण है। इथोपिया के अकाल ने स्पष्ट कर दिया है कि किस प्रकार मिट्टी के उपजाऊपन की नीलामी की त्रासदी सर्वसाधारण को भुगतनी पड़ती है।”

इस प्रकार बहुगुणा ने बड़े बाँधों की संकल्पना पर ही प्रश्नचिह्न लगाया और विकास की समूची अवधारणा और युद्ध, भुखमरी और पर्यावरण संकट से उसके संबंधों को उजागर किया। उन्होंने बताया कि युद्ध का वातावरण आज इसीलिए बनाया जा रहा है कि हथियार का बाजार बना रहे। उन्होंने बताया कि दूसरे विश्वयुद्ध के समय तीन प्रतिशत धन रक्षा पर खर्च होता था, उसके बाद शांति के प्रयास हुए और अब छह प्रतिशत धन रक्षा पर खर्च होता है। बहुगुणा ने ये बातें 1986 के एक व्याख्यान में कही थीं। और लगातार कहते रहे।

आज अमरीका का और आक्रामक चेहरा हमारे सामने है। अमरीका के प्रभाव वाले संगठन विकासशील देशों को अपनी नीतियों और कर्जे के ग्रास में लेते जा रहे हैं। साम्राज्यवादी अर्थनीति का अधिक उग्र रूप सामने आ रहा है। युद्ध का तनाव और आत्मघाती आतंकवाद परवान चढ़ रहा है और समूची दुनिया इस चिंता से गुजर रही है। पर्यावरणविद भविष्य के संकट से भयभीत हैं, लेकिन लोग इस पूरे संकट को समग्रता से देखने और इनके अंतर्संबंधों को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। उपभोक्तावादी प्रवृत्ति भी बढ़ रही है और पर्यावरण का संकट भी, सामाजिक विघटन भी, हिंसा भी, आत्मघाती प्रवृत्ति भी, अपराध भी, युद्ध भी और ‘सभ्यता’ भी विकसित हो रही है, लेकिन हम सब इनके अंतर्संबंधों को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। जिस दिन हम इन्हें समझने का प्रयास करेंगे, उसी दिन सुंदरलाल की ‘कुटिया’ के डूबने का अर्थ भी जान सकेंगे। यह केवल एक बाँध में एक कुटिया के डूबने का सवाल नहीं है, यह समूची ‘सभ्यता’ में ‘मानवीयता’ के डूब जाने का सवाल है, जिसे अच्छे से अच्छे पुनर्वास से भी हल नहीं किया जा सकता है।

You may also like

Leave a Comment

हमारे बारे में

वेब पोर्टल समता मार्ग  एक पत्रकारीय उद्यम जरूर है, पर प्रचलित या पेशेवर अर्थ में नहीं। यह राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह का प्रयास है।

फ़ीचर पोस्ट

Newsletter

Subscribe our newsletter for latest news. Let's stay updated!