राजेन्द्र राजन
पिछले दिनों एक साहित्यिक मित्र की एक बात ने कुछ सोच में डाल दिया। बातों-बातों में अपनी निराशा प्रकट करते हुए उन्होंने कहा कि वह दिल्ली से बाहर, अपने शहर में, नौकरी की मजबूरी के कारण अटके हुए हैं। उनका बस चलता तो दिल्ली आकर बस जाते। वहां उनको महसूस होता है कि वह साहित्य में हाशिये पर हैं, दिल्ली में होते तो मुख्यधारा में होते। उनकी यह बात जहां एक साहित्यिक की निराशा जाहिर करती है वहीं हिंदी साहित्य के वर्तमान संकेंद्रण पर भी सोचने को विवश करती है। रोजगार के अवसरों तथा सत्ता और सुविधाओं के केंद्रीकरण का असर हमारे सांस्कृतिक कार्य-व्यापार पर भी पड़ा है। आज दिल्ली में हिंदी के लेखकों का जो जमावड़ा दिखाई देता है वह राजनैतिक और आर्थिक केंद्रीकरण के साथ ही सांस्कृतिक केंद्रीकरण की प्रक्रिया का परिणाम है। यह एक अजीब विडंबना है कि हिंदी साहित्य की सत्ता-विरोधी मुखरता के साथ ही उसका संकेंद्रण सत्ता की धुरी के आसपास ही हुआ है। आज हिंदी के अधिकतर लेखक दिल्ली में रहते हैं- हालांकि उनमें से विरले ही दिल्ली के मूल निवासी होंगे। यह स्थिति इस बात की द्योतक है कि बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से आगे बढ़ने के अवसरों तथा सुविधाओं का केंद्रीकरण निर्णायक रूप से दिल्ली में हो गया है।
सारे बड़े अखबार, प्रकाशन संस्थान, अकादमियां और कला-संस्कृति के अन्य प्रतिष्ठान- सब दिल्ली में हैं। यह स्थिति दिल्ली के प्रति एक सांसकृतिक आकर्षण पैदा करती है और इसके चलते दिल्ली से बाहर रहे रहे बहुत-से रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों केमन में यह आकांक्षा पैदा होना स्वाभाविक है कि काश, वे भी दिल्ली में होते!
ज्यादा वक्त नहीं बीता जब हिंदी साहित्य के भूगोल में दिल्ली जैसे महाकेंद्र के बजाय कई केंद्र होते थे। इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, पटना, मुजफ्फरपुर, आगरा, इंदौर, जबलपुर, भोपाल, जयपुर से लेकर कोलकाता और हैदराबाद जैसे गैर-हिंदी भाषी महानगरों तक हिंदी साहित्य की वैभवपूर्ण उपस्थिति दिखाई देती थी। हिंदी के ज्यादातर बड़े लेखक इन केंद्रों ने प्रकाश-स्तंभ की तरह थे। उस केंद्र-बहुलता की वजह से हिंदी की सांस्कृतिक गतिविधियां भी ज्यादा होती थीं। और गोष्ठियों का तो एक अनंत और जीवंत सिलसिला ही बना रहता था। हिंदी का सारा संस्मरण साहित्य उसकी केंद्र बहुलता का साक्ष्य है।
लेकिन जैसे-जैसे हिंदी के लेखकों का दिल्ली-संकेद्रण बढ़ता गया है, इन केंद्रों के साहित्यिक परिवेश का क्षरण भी हुआ है। इससे हिंदी की हाल की पीढ़ियों को वह अपेक्षित माहौल मिलना कम हो गया जो पहले आगंतुक रचनाकारों को सहज ही उपलब्ध हो जाता था। अगर महानगरों की तरफ सांस्कृतिक पलायन न हुआ होता, तो हमारे आधुनिक बोध का विकास किस रूप में हुआ होता? और वैसी स्थिति में बोलियों से नजदीकी संपर्क ने हमारी (मानक) हिंदी और साहित्यिक रचनाशीलता को किस दिशा में प्रेरित और पल्लवित किया होता? इतना तो निश्चित है कि इन सब का परिप्रेक्ष्य आज की तुलना में कहीं अधिक वैविध्यपूर्ण होता। सांस्कृतिक केंद्रीकरण महानगरों की तरफ होने का असर साहित्य के अलावा कला विधाओं पर भी पड़ा। सारी आधुनिक कला, कला दीर्घाओं की उपलब्धता पर आश्रित हो गई है और कला दीर्घाएं अमूमन महानगरों तक सीमित हैं। प्रदर्शन के लिए महानगरों की कला दीर्घाओं तक अपने काम को ले जाने में नए कलाकारों को जो आर्थिक और अन्य दिक्कतें उठानी पड़ती हैं उनका ब्योरा यदि इकट्ठा किया जाए तो वह किसी दारुण गाथा से कम नहीं होगा।
हिंदी के लेखक भाग-भाग कर दिल्ली आ रहे हैं इस बात से दिवंगत रामविलास शर्मा बहुत चिंतित रहते थे। कई बार उन्होंने यह चिंता जाहिर की थी।
शैलेश मटियानी जब कच्ची उमर में ही लेखक बनने की दीवानगी में भटक रहे थे और उस भटकन में खाक छानते दिल्ली आ गए थे, तब एक दिन इलाबाहाद की साहित्यिक ख्याति सुनकर दिल्ली छोड़ इलाहाबाद भागे। आज इसका विपर्यय हम देख रहे हैं। इलाहाबाद, बनारस जैसे पुराने साहित्यिक केंद्रों से भी रचनाकार दिल्ली की ओर रुख कर रहे हैं। नरेश मेहता अपवाद थे। जिन दिनों हिंदी के लेखक दिल्ली की ओर रुख किए हुए थे वे दिल्ली का जलवा छोड़कर इलाहाबाद गए। यह सही है कि लेखक अपने लिखे हुए से जाना जाता है, लेकिन यह विश्वास अब पहले जैसा दृढ़ नहीं रह गया है तो इसका कारण कहीं यह भी है कि देश के अनेक अंचलों में बहुत-से रचनाकारों को लगता है कि वे साहित्य के भूगोल में हाशिये पर हैं और दिल्ली में होना संपर्क तथा ध्यानाकर्षण की सुविधा प्रदान करता है। दिल्ली को और भी साहित्यमय होना चाहिए, लेकिन साहित्य (हिंदी) का दिल्लीमय होना उसके भविष्य के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है।