– राजू पांडेय –
जब पूरा देश कोविड महामारी से संघर्ष कर रहा था तब सरकार ने इस अफरातफरी का लाभ उठाकर पिछले साल जून माह में कॉरपोरेट-परस्त और कृषि के निजीकरण को बढ़ावा देनेवाले कृषि कानूनों को अध्यादेश के रूप में देश की जनता पर थोपने की प्रक्रिया प्रारंभ की। किसानों से बिना सलाह-मशविरे के तैयार किए गए इन कानूनों का विरोध फौरन शुरू हो गया और किसान संगठनों ने बड़ी मजबूती से इन कानूनों की विसंगतियों को उजागर करना प्रारंभ कर दिया। सरकार नाओमी क्लेन के शॉक डॉक्ट्रिन को चरितार्थ करती लगी जिसके अनुसार आपात परिस्थितियों और महामारी का फायदा उठाकर सरकारें कॉरपोरेट समर्थक सुधारों को लागू करने की कोशिश करती हैं क्योंकि इस समय जन प्रतिरोध की आशंका कम होती है और यदि प्रतिरोध होता भी है तो आपात स्थितियों का हवाला देकर इसे आसानी से कुचला जा सकता है।
सरकार ने इन बिलों को सेलेक्ट कमेटी को भेजने की विपक्ष की मांग ठुकरा दी और राज्यसभा में इन बिलों को, बड़ी हड़बड़ी में, लोकतांत्रिक प्रक्रिया की उपेक्षा करते हुए पास कराया गया जबकि मत विभाजन होने पर शायद सरकार परास्त हो जाती।
बहरहाल, सितंबर माह में ये सभी बिल अर्थात कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 और कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 एवं आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 पारित हो गए।
देश के अनेक अग्रणी कृषि विशेषज्ञों ने सरकार को बताया कि जिन विकसित देशों में इस प्रकार के सुधार लागू किए गए हैं उनमें इनका प्रभाव किसानों के लिए विनाशकारी रहा है। सरकार को यह भी बताया गया कि इन कृषि कानूनों के बाद खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। देश में कृषि भूमि सीमित है, फसलों की पैदावार वृद्धि में सहायक सिंचाई आदि सुविधाओं तथा कृषि तकनीकों में सुधार की भी एक सीमा है। इस अल्प और सीमित भूमि में ग्लोबल नार्थ (विकसित देशों की अर्थव्यवस्था एवं बाजार, ग्लोबल नार्थ एक भौगोलिक इकाई नहीं है) के उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए खाद्यान्नों के स्थान पर उन फसलों का उत्पादन किया जाएगा जो इन देशों में पैदा नहीं होतीं। जब तक पीडीएस सिस्टम जारी है तब तक सरकार के लिए आवश्यक खाद्यान्न का स्टॉक बनाए रखने के लिए अनाजों की खरीद जरूरी होगी। पर बदलाव यह होगा कि वर्तमान में जो भी अनाज बिकने के लिए आता है उसे खरीदने की अब जो बाध्यता है, वह तब नहीं रहेगी। सरकार पीडीएस को जारी रखने के लिए आवश्यक अनाज के अलावा अनाज खरीदने के लिए बाध्य नहीं होगी। इसका परिणाम यह होगा कि कृषि भूमि का प्रयोग अब विकसित देशों की जरूरतों के अनुसार फसलें पैदा करने की खातिर होने लगेगा।
विश्व व्यापार संगठन की दोहा में हुई बैठक से ही भारत पर यह दबाव बना हुआ है कि सरकार खाद्यान्न की सरकारी खरीद में कमी लाए, लेकिन किसानों और उपभोक्ताओं पर इसके विनाशक प्रभावों का अनुमान लगाकर हमारी सरकारें इसे अस्वीकार करती रही हैं। विकसित देश अपने यहाँ प्रचुरता में उत्पन्न होने वाले अनाजों के आयात के लिए भारत पर वर्षों से दबाव डालते रहे हैं। 1960 के दशक के मध्य में बिहार के दुर्भिक्ष के समय हमने अमरीका के दबाव का अनुभव किया है और खाद्य उपनिवेशवाद के खतरों से हम वाकिफ हैं। यह तर्क कि नया भारत अब किसी देश से नहीं डरता, केवल सुनने में अच्छा लगता है। वास्तविकता यह है कि अनाज के बदले में जो फसलें लगाई जाएंगी उनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव दर्शाती हैं। इसी प्रकार के बदलाव विदेशी मुद्रा में भी देखे जाते हैं और इस बात की आशंका बनी रहेगी कि किसी आपात परिस्थिति में हमारे पास विदेशों से अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं रहेगी।
आज हमारे पास विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भंडार है किंतु आवश्यक नहीं कि यह स्थिति हमेशा बनी रहेगी। विदेशों से अनाज खरीदने की रणनीति विदेशी मुद्रा भंडार के अभाव में कारगर नहीं होगी और विषम परिस्थितियों में करोड़ों देशवासियों पर भुखमरी का संकट आ सकता है। भारत जैसा विशाल देश जब अंतरराष्ट्रीय बाजार से बड़े पैमाने पर अनाज खरीदने लगेगा तो स्वाभाविक रूप से कीमतों में उछाल आएगा। जब कमजोर मानसून जैसे कारकों के प्रभाव से देश में खाद्यान्न उत्पादन कम होगा तब हमें ज्यादा कीमत चुका कर विदेशों से अनाज लेना होगा। इसी प्रकार जब भारत में अनाज के बदले लगाई गई वैकल्पिक फसलों की कीमत विश्व बाजार में गिर जाएगी तब लोगों की आमदनी इतनी कम हो सकती है कि उनके पास अनाज खरीदने के लिए धन न हो।
यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि खाद्यान्न के बदले में लगाई जाने वाली निर्यात की फसलें कम लोगों को रोजगार देती हैं। जब लोगों का रोजगार छिनेगा तो उनकी आमदनी कम होगी और क्रय शक्ति के अभाव में वे भुखमरी की ओर अग्रसर होंगे। भारत जैसे देश में भूमि के उपयोग पर सामाजिक नियंत्रण होना ही चाहिए। भूमि को बाजार की जरूरतों के हवाले करना विनाशकारी सिद्ध होगा। कोविड-19 के समय देश की जनता को भुखमरी से बचाने में हमारे विपुल खाद्यान्न भंडार ही सहायक रहे।
लेकिन सरकार के लिए अपने कॉरपोरेट मित्रों के हित ही सर्वोपरि रहे और वह इन तीन कृषि कानूनों को बड़ी धृष्टता से किसान हितैषी बताती रही। मजबूरन किसानों को 26 नवंबर 2020 से आंदोलन प्रारंभ करना पड़ा। सरकार ने आंदोलनरत किसानों की विशाल संख्या और उन्हें मिलते जन समर्थन से दबाव का अनुभव किया और किसानों से बातचीत का नाटक प्रारंभ कर दिया। पहले सरकार यह कहती रही कि किसान इन कानूनों में प्रावधान-दर-प्रावधान अपनी आपत्तियां बताएं और जब किसान नेताओं ने ऐसा किया तब सरकार कानूनों में कॉस्मेटिक परिवर्तन करने के लिए सहमत होने का दिखावा करने लगी।
प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल सदस्य हकीकत को झुठलाते हुए कहने लगे कि एमएसपी थी, एमएसपी है और एमएसपी रहेगी। यही बात उन्होंने एपीएमसी के विषय में कही। किंतु जब किसानों ने एमएसपी पर होनेवाली खरीद के आंकड़े पेश किए और एमएसपी की निर्धारण प्रक्रिया की विसंगतियों को उजागर किया तथा एपीएमसी को कमजोर करने के षड्यंत्र को जनता के सम्मुख रखा तब सरकार समर्थक अर्थशास्त्री मिथ्या आंकड़े प्रस्तुत करने लगे। बहुत जल्द ही इन आंकड़ों की असलियत भी जनता के सामने आ गई। तब कुछ आंदोलन विरोधी सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। सुप्रीम कोर्ट ने इन कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगाते हुए कहा कि यह निर्णय संभवतः किसानों की आहत भावनाओं पर मरहम लगाने का कार्य करेगा और उन्हें वार्ता में आत्मविश्वास एवं भरोसे के साथ सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करेगा।
अनेक विधिवेत्ताओं की राय में यह निर्णय न्यायिक तदर्थवाद की अनुचित प्रवृत्ति का उदाहरण था। कमेटी बनाने का एक कारण माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय ने यह बताया कि वे कृषि और अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ नहीं हैं। यह बिलकुल स्वाभाविक है कि एक विधिवेत्ता इन बातों का विशेषज्ञ नहीं होता किंतु सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में वह इन कृषि कानूनों की संवैधानिकता के विषय में तो निर्णय ले सकता था। वैसे सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश धर्म, इतिहास और पुरातत्व के भी विशेषज्ञ नहीं थे किंतु उन्होंने रामजन्म भूमि मामले में लगातार सुनवाई कर निर्णय दिया था। जो समिति न्यायालय ने बनाई उसके सारे सदस्य इन कृषि कानूनों के घोषित समर्थक थे। एक सदस्य तो समिति से इस्तीफा भी दे चुके हैं। इस समिति को कोई विशिष्ट शक्तियां भी प्राप्त नहीं हैं।
ऐसा भी नहीं है कि समिति के गठन के समय किसानों और सरकार के बीच वार्तालाप नहीं चल रहा था। नियमित अंतराल पर सरकार और किसानों के बीच बैठकें हो रही थीं। सरकार का प्रतिनिधित्व कृषिमंत्री समेत अनेक मंत्री और निर्णय लेने में सक्षम अधिकारी कर रहे थे। किसान न्यायालय के पास नहीं गए थे न ही उन्होंने इस प्रकार की किसी समिति की मांग ही की थी। वे शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलन के जरिए सरकार से अपनी मांगें मनवाने की कोशिश कर रहे थे। फिर इस समिति का उद्देश्य आंदोलन को लंबा खींचकर कमजोर करने की सरकारी इच्छा की पूर्ति के अतिरिक्त यदि कुछ अन्य है तो उसका ज्ञान सर्वोच्च न्यायालय को ही होगा।
सरकार की नीयत में खोट है यह बात तब स्पष्ट हुई जब सरकार समर्थक मीडिया, सरकार समर्थक ट्रोल समूहों और सत्ताधारी दल के आईटी सेल ने इस आंदोलन के विरुद्ध दुष्प्रचार प्रारंभ कर दिया। पहले इस आंदोलन को हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संपन्न किसानों के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश हुई किंतु आंदोलन का राष्ट्रव्यापी स्वरूप जगजाहिर था। फिर इस आंदोलन को खालिस्तानी और पाकिस्तानी षड्यंत्र के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की गई किंतु सौभाग्य से अनेक बहादुर स्वतंत्र पत्रकार किसानों के बीच से लाइव रिपोर्टिंग कर रहे थे, उन्होंने लोगों को यह बताया कि आंदोलनकारियों में अनेक पूर्व सैनिक भी हैं और बड़ी संख्या में ऐसे किसान भी हैं जिनके बेटे सीमाओं की रक्षा के लिए तैनात हैं। तब सरकार का यह झूठ पकड़ा गया।
फिर सरकार ने आजादी में सबसे ज्यादा कुर्बानी देने वाली सिख कौम को निशाने पर लिया और आंदोलन की फंडिंग पर सवाल उठाए किंतु कोरोना काल में सिख गुरुद्वारों के लंगरों और जनसेवा कार्यों की स्मृति जनता के मन में अभी ताजा ही थी, इसलिए सरकार का यह दांव भी असफल रहा। फिर कुछ सरकार समर्थक चैनलों ने किसानों को अराजक और आम करदाता के पैसे से अपना हित साधने वाला बताया, लेकिन तत्काल ही सोशल मीडिया पर सरकार द्वारा कॉरपोरेट घरानों के राइट ऑफ किए गए लोन के आंकड़े सार्वजनिक किए जाने लगे और यह स्पष्ट हो गया कि करदाता के पैसे को किस पर लुटाया जा रहा है।
दरअसल इस बार किसान आंदोलन की जमीनी कवरेज करते जांबाज और साहसी पत्रकारों की व्यक्तिगत कोशिशों और जनपक्षधर पत्रकारिता पर विश्वास करनेवाले न्यूज़ पोर्टलों के ईमानदार प्रयासों से किसान आंदोलन का शांतिप्रिय और अहिंसक स्वरूप आम लोगों के सम्मुख बड़ी मजबूती और पारदर्शिता के साथ रखा गया। ट्रॉली टाइम्स जैसे अखबारों ने जन्म लिया और किसान आंदोलन को वह स्पेस प्रदान किया जिससे उसे मुख्यधारा के मीडिया द्वारा वंचित किया गया था। अनेक यू ट्यूब चैनल अस्तित्व में आए जिन पर किसानों और किसानी से संबंधित खबरें दिखाई जाने लगीं। इन स्वतंत्र पत्रकारों और न्यूज़ पोर्टलों द्वारा आंदोलन की जो कवरेज हुईं वह किसी भी तरह एकपक्षीय नहीं थीं। किसान आंदोलन में राजनीतिक दलों के प्रवेश का मसला या ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा का मामला या बॉर्डर पर स्थानीय लोगों के आक्रोश का सवाल और ऐसे ही हर ज्वलंत मुद्दे बड़ी बेबाकी से इन पत्रकारों एवं पोर्टल्स द्वारा उठाया गए। किसान नेताओं से चुभते हुए सवाल भी पूछे गए और जनता की आशंकाओं एवं आकांक्षाओं को उन तक पहुंचाया भी गया। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग न केवल किसान आंदोलन बल्कि बुनियादी मुद्दों से जुड़ी अन्य खबरों के लिए भी इस वैकल्पिक मीडिया की ओर उन्मुख होने लगे। यह सरकार के लिए किसी झटके से कम नहीं था।
सरकार ने मनदीप पुनिया को असंतुष्ट स्थानीय निवासियों के रूप में किसानों पर हमलावर होते स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं का सच दिखाने के लिए प्रताड़ित किया तो किसान आंदोलन के लिए समान विचार वाले लोगों का समर्थन तलाश करने की कोशिश का दंड एक सामान्य सी सामाजिक कार्यकर्ता दिशा रवि को मिला। दिशा रवि को जमानत देते हुए दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट कॉम्प्लेक्स के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा की टिप्पणी वर्तमान सरकार के अहंकार, अलोकतांत्रिक सोच एवं दमनकारी रवैये को समझने में सहायक है।
माननीय न्यायाधीश ने लिखा- “मेरे विचार से नागरिक एक लोकतांत्रिक देश में सरकार पर नजर रखते हैं। केवल इस कारण कि वे राज्य की नीतियों से असहमत हैं, उन्हें कारागार में नहीं रखा जा सकता। राजद्रोह का आरोप इसलिए नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को उनकी असहमति या विरोध से चोट पहुंची है। मतभेद, असहमति, अलग विचार, असंतोष, यहां तक कि अस्वीकृति भी राज्य की नीतियों में निष्पक्षता लाने के लिए आवश्यक उपकरण हैं। एक सजग एवं मुखर नागरिकता एक उदासीन या विनम्र नागरिकता की तुलना में निर्विवाद रूप से एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र का संकेत है। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत असंतोष का अधिकार बहुत सशक्त रूप से दर्ज है। महज पुलिस के संदेह के आधार पर किसी नागरिक की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। मेरे विचार से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियंस तलाशने का अधिकार सम्मिलित है। संचार पर किसी प्रकार की कोई भौगोलिक बाधाएं नहीं हैं। प्रत्येक नागरिक के पास विधि के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है। यह समझ से परे है कि प्रार्थी पर अलगाववादी तत्वों को वैश्विक मंच देने का लांछन किस प्रकार लगाया गया है? एक लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार पर नजर रखते हैं, केवल इस कारण से कि वे सरकारी नीति से असहमत हैं, उन्हें कारागार में नहीं रखा जा सकता। देशद्रोह के कानून का ऐसा उपयोग नहीं हो सकता। सरकार के घायल अहंकार पर मरहम लगाने के लिए देशद्रोह के मुकदमे नहीं थोपे जा सकते। हमारी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता अलग-अलग विचारों की कभी भी विरोधी नहीं रही। ऋग्वेद में भी पृथक विचारों का सम्मान करने विषयक हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का उल्लेख है। ऋग्वेद के एक श्लोक के अनुसार- हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से भी रोका न जा सके तथा जो अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों।”
सरकार ने किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई घटनाओं को आधार बनाकर भी आंदोलन को दबाने की चेष्टा की किंतु बहुत जल्दी ही यह तथ्य सामने आ गया कि रैली में हिंसा भड़काने की कोशिश करनेवाले शरारती तत्वों के संबंध किस राजनीतिक दल से हैं और सरकार का झूठ यहाँ भी नहीं चला। इधर किसान आंदोलन के नेताओं ने ट्रेक्टर रैली के दौरान हुई घटनाओं की निंदा करते हुए दोषियों को दंडित करने की मांग की और ट्रैक्टर परेड को तत्काल रोक भी दिया।
बहरहाल, इस सब का नतीजा यह हुआ कि सरकार और किसानों के बीच वार्तालाप का सेतु टूट गया। इधर विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में किसान नेता अपनी बात रखने और बीजेपी को परास्त करने की अपील करते घूम रहे हैं।
इस किसान आंदोलन के चलते इन चार महीनों में न केवल कृषि और किसानों की समस्याएं विमर्श के केंद्र में आई हैं बल्कि इसके कारण किसान-मजदूर-छोटे व्यापारी-सरकारी कर्मचारी, सभी निजीकरण की नीतियों के विरुद्ध लामबंद हुए हैं। यह देखना भी सुखद है कि कृषि में केंद्रीय भूमिका निभाने वाली महिलाओं के योगदान को पहली बार स्वीकारा गया है और इस आंदोलन के संचालन में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। किसान आंदोलन ने इन चार महीनों में कम से कम यह स्थिति तो पैदा कर ही दी है कि देश की भावी राजनीति अब किसानों की उपेक्षा नहीं कर सकती।