विदेश नीति : न घर के रहे न घाट के

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— आनंद कुमार —

 

भी हम सभी 10 मार्च को तिब्बत मुक्ति साधना के समर्थन में हुए आयोजनों से फ़ुरसत पाए बिना पिछले दो सप्ताह से म्यांमार में लोकतंत्र के ख़ात्मे और सेना की संगीनों से निर्दोष नागरिकों के संहार के बारे में न्यायसंगत नीति की जरूरत के बारे में चिंतित होने के लिए विवश हो गए हैं। पिछले दशकों में म्यांमार के बारे में राष्ट्रीय हितों के कारण चुप रहने की शर्म अभी धुली नहीं है। तब हमारे विदेश मंत्रालय ने चेतावनी दी थी कि म्यांमार के सैनिक तानाशाह चीन के भरोसे प्रचंड बहुमत से चुनी आंग सान सू की समेत पूरे म्यांमार को बंदी बनाने पर आमादा हैं। लेकिन हमारे विरोध से चीन का लाभ होगा। इसलिए हम बीस बरस चुप रहे।

हमारी चुप्पी से तो चीन का लाभ कम नहीं हुआ। उलटे, हम न घर के रहे न घाट के! यह सच तब सामने आया जब लंबी कैद से रिहा होने के बाद म्यांमार की लोकनायिका आंग सान सू की ने हमारे निमंत्रण पर दिल्ली आकर हमें आईना दिखाया।

वैसे भी चीन-तिब्बत-भारत त्रिकोण में हिमालय और हिंद महासागर के सभी देशों का महत्त्व है। इसलिए 1949 में चीन द्वारा तिब्बत की शिशु-हत्या से लेकर 2021 में म्यांमार में लोकतंत्र हत्या जो भूमिका निभाई गई है उसके बारे में भारत की नीतियों का अल्पकालिक और दीर्घकालिक परिणाम जाँचने की जरूरत है। भारत की भूमिका से किस हद तक राष्ट्रीय हितों का संवर्धन हुआ इसका मूल्यांकन करने का समय आ गया है।

यह निर्विवाद है कि चीन-पाकिस्तान-अमरीका के त्रिकोण के दबाव को सँभालने के लिए पिछले सभी प्रधानमंत्रियों ने तीनों देशों से सीधे संपर्क बनाने की कोशिश की है। इन देशों का विश्वास जीतने के लिए नागरिक मंचों को प्रोत्साहित किया है। स्वयं इन देशों की यात्राओं पर गए और इनके राष्ट्रनायकों का भारत बुलाकर मन बदलने की कोशिश की है। इसमें नरेंद्र मोदी ने बाकी सभी प्रधानमंत्रियों से ज्यादा जोखिम उठाया है। फिर भी चीन, पाकिस्तान और अमरीका, तीनों का रुख बद से बदतर होता गया है। इसकी तुलना में भारत की दक्षिण अफ्रीका समेत सारी दुनिया में रंगभेद और नस्लवाद के वैश्विक विरोध के सिद्धांत के आधार पर अपनाई गई नीतियों के नतीजे बेहतर रहे हैं। दूसरे शब्दों में, यदि हम लोकतंत्र की कसौटी पर अपनी विदेश नीति को आधारित करें तभी चीन-पाकिस्तान-अमरीका के त्रिकोण के कारण हो रहे नफा-नुकसान के बदलते गणित पर काबू पा सकेंगे।

वैसे भी सामंतवाद और साम्राज्यवाद से शताब्दियों पीड़ित रह चुकी दुनिया के लिए लोकतंत्र ही शुभ का मार्ग है। इसके पक्ष में खड़े रहना ही भारत का युगधर्म है। इसमें कोई भी ‘किंतु’-‘परंतु’ हमें पथभ्रष्ट ही करता रहा है और करता रहेगा। इसके लिए हमें चीन से अपने को कमजोर समझने की ग्रंथि से छुटकारा पाना होगा क्योंकि हमारी राष्ट्रीयता, हमारी नागरिकता, हमारा राजनीतिक ढाँचा और हमारी वैश्विक पहचान चीन से बेहतर है। हम सिर्फ अंतरराष्ट्रीय नीतियों और पूँजीवादी प्रबंधन में चीन से मात खा रहे हैं।

हमें अपने पास-पड़ोस और शेष संसार में युद्ध नहीं चाहिए लेकिन बुद्ध तो चाहिए! बुद्ध मार्ग बनाने का विवेक, संकल्प और पुरुषार्थ चाहिए। हतप्रभ होना आत्महीनता पैदा करता है। किंकर्तव्यविमूढ़ होना महाविनाश का पहला लक्षण होता है। इसलिए तिब्बत से लेकर म्यांमार तक हमारी अबतक की नीतियों का लोकतांत्रिक कसौटी पर स्वस्थ सुधार चाहिए। तिब्बत, नेपाल, लद्दाख और अरुणाचल के बारे में हुई देर म्यांमार में न दुहराना ही इस दिशा में पहला कदम होगा। फिर हिमालय बचाओ-हिंद महासागर बचाओ की ओर ध्यान देना होगा। हिमालय क्षेत्र की नदियों पर निर्भर सभी देशों का मंच बनाना होगा। हिंद महासागर के तटों पर बसे हुए राष्ट्रों की चिंताओं को स्वर देना होगा। हर भारतीय की यही उम्मीद है। नहीँ तो न भारतमाता हमें माफ़ करेंगी और न धरतीमाता हमें क्षमा करेंगी।

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