बिहार सशस्त्र पुलिस विधेयक : दमन का नया औजार

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– अनिल सिन्हा —

बिहार विधानसभा में 23 मार्च, 2021 को पुलिस बुलाकर विधायकों की पिटाई का मामला फिलहाल शांत होनेवाला नहीं है। विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने विधानसभाध्यक्ष को पत्र लिखकर दोषी अधिकारियों को बर्खास्त करने की मांग की है। उनका आरोप है कि यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इशारे पर हुआ है। मुख्यमंत्री के पास गृह मंत्रालय भी है। गौरतंलब है कि पुलिस के इस अप्रत्याशित हमले में घायल एक विधायक को आईसीयू में भर्ती होना पड़ा और एक महिला विधायक के साथ ऐसा दुर्व्यवहार हुआ कि लोग सकते में हैं। लेकिन जिस विधेयक के विरोध के कारण विपक्ष को इस हमले का शिकार होना पड़ा वह खुद राज्य की राजनीति में बड़े भूचाल का संकेत दे रहा है।

यह विधेयक ऐसे सशस्त्र पुलिस बल की स्थापना का प्रावधान करता है जिसे बिना वारंट के, सिर्फ संदेह पर भी किसी की तलाशी लेने और गिरफ्तार करने का अधिकार होगा। इसके खिलाफ अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता और न ही कार्रवाई करनेवाले अधिकारी को अदालत में घसीटा जा सकता है। इस कानून के तहत सात साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। इसके पहले सरकार की आलोचना में सोशल मीडिया आदि में लिखनेवालों के खिलाफ कार्रवाई तथा विरोध-प्रदर्शन में हिस्सा लेनेवालों को सरकारी नौकरी से वंचित करने का फैसला सरकार ले चुकी है।
विधेयक का विपक्ष ने जमकर विरोध किया और सदन में इसके खिलाफ हंगामा भी। लेकिन इस हंगामे के प्रति सत्तापक्ष ने जो रवैया अपनाया, उसकी उम्मीद किसी को नहीं रही होगी। सदन में बाहर की पुलिस बुला ली गई और सादी वर्दी तथा वर्दीधारी पुलिसवालों ने विधायकों को अपराधियों की तरह पीटा तथा महिला विधायकों के साथ भी बदसलूकी की। एक महिला विधायक के तो वस्त्र भी शरीर से हट गए। विधायकों के साथ मारपीट तथा उन्हें घसीटकर बाहर ले जाने की घटना के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गए। देश की विभिन्न राज्य विधानसभाओं में हंगामे की इससे बड़ी-बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं, लेकिन कहीं भी पुलिस के जरिए विधायकों की पिटाई नहीं हुई। घटना के वीडियो यही जाहिर करते हैं कि सत्तापक्ष विधायकों से बदला ले रहा था क्योंकि सरकारी शह के बिना पुलिसवालों की हिम्मत नहीं होती कि चुने गए जनप्रतिनिधयों के साथ इस तरह का सलूक करें।
अगर बिहार के मौजूदा राजनीतिक माहौल पर गौर करें तो यह नहीं लगता कि सत्ताप़क्ष का यह व्यवहार अचानक हुआ है। जेडी-यू के तीसरे नंबर की पार्टी होने के बाद भी मुख्यमंत्री बन गए नीतीश कुमार की राजनीतिक शक्ति काफी कम हो गई है। वह इसकी भरपाई विरोधियों पर हमले तथा दमन के जरिए करना चाहते हैं। इस बार चुनाव के समय तथा सत्ता संभालने के बाद उन्होंने जिस तरह का व्यवहार करना शुरू किया, उसे लेकर उन्हें नजदीक से जानने वाले भी हैरान हैं। पहले निचले स्तर की टिप्पणियां करने से परहेज करनेवाले नीतीश ने अपनी भाषा में आश्चर्यजनक बदलाव किया है। विधायकों की पिटाई के बाद भी उन्होंने किसी तरह का खेद प्रकट नहीं किया, उलटे उन्हें ही जिेम्मेदार ठहरा दिया। उन्होंने विधायकों पर यह आरोप भी लगा दिया कि उन्हें संसदीय व्यवहार नहीं आता है। लगता यही है कि वह विपक्ष की मौजूदगी स्वीकार नहीं करना चाहते हैं।

क्या विपक्ष की मौजूदगी स्वीकार नहीं करने के पीछे सिर्फ नीतीश कुमार की व्यक्तिगत निराशा है? क्या लोकतंत्र का गला दबाने के पीछे सिर्फ किसी नेता की हताशा काम करती है? इतिहास और राजनीति की समझ रखनेवाले लोग इस तरह के निष्कर्ष को भोलापन ही मानेंगे। असलियत यह है कि बिहार की राजनीतिक परिस्थितियां एकदम बदली हुई हैं। इस बार के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार को राज्य की जनता ने अस्वीकार कर दिया और उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर रही। धन के अंधाधुंध इस्तेमाल तथा मीडिया के खुले सहयोग के बाद भी नरेंद्र मोदी भाजपा को एक नंबर की पार्टी नहीं बना पाए। नीतीश कुमार तथा मोदी का साथ-साथ का चेहरा भी दोनों पार्टियों को ऐसी स्थितियों में नहीं ला पाया कि छोटी पार्टियों की मदद के बिना सरकार बना सकें। सरकार मामूली बहुमत से ही बन पाई।
बिहार विधानसभा में विप़क्ष न केवल मजबूत है बल्कि एक साफ राजनीतिक दिशा में है। वाम दलों, खासकर सीपीआईएमएल की उपस्थिति ने उसे एक अलग किस्म की ताकत दे रखी है। वाम विधायक पैसे तथा स्थानीय निहित स्वार्थों की मदद से नहीं बल्कि उनका मुकाबला कर जीते हैं। वैसे, महागठबंधन के बाकी दलों ने भी धन की कमी तथा मीडिया के विरोध के बावजूद चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया है। रोजगार के मुद्दे ने उन्हें व्यापक समर्थन दिलाया।
सवाल है कि इस मजबूत विपक्ष की आवाज को सुनने के बदले नीतीश सरकार उसे दबाना क्यों चाहती है? इस मामले में भाजपा को लेकर शिकायत भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि आरएसएस तथा भाजपा से किसी लोकतांत्रिक व्यवहार की उम्मीद नहीं रह गई है। अलबत्ता नीतीश कुमार की समाजवादी पृष्ठभूमि तथा अतीत के शालीन व्यवहार की वजह से लोग उनसे ऐसी उम्मीद जरूर रखते थे। लेकिन नीतीश कुमार एक ऐसे गठबंधन के पक्के नेता के रूप में काम कर रहे हैं जिसकी कमान एक लोकतंत्र विरोधी पार्टी यानी भाजपा के हाथों में हैं। वह इस बात के संकेत दे रहे हैं कि वह सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा के राजनीतिक दर्शन को स्वीकार कर चुके हैं। वह वाम की ओर झुके विपक्ष से एक दक्षिणपंथी राजनेता की तरह लड़ रहे हैं। इसमें भी किसी को अचरज नहीं होना चाहिए अगर वह भाजपा शासित राज्यों की तर्ज पर लव जिहाद के खिलाफ भी कानून लेकर आ जाएं। नीतीश के हाथों यह काम कराने का अवसर भाजपा कभी नहीं छोड़ेगी।

सवाल यह है कि जिस विधेयक को लेकर यह बवाल हुआ उसे अभी लाने की क्या मजबूरी थी? इसे लेकर वरिष्ठ समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी ने सही कहा है कि बिहार विशेष सशस़्त्र पुलिस विधेयक के समर्थन में जिन परिस्थितियों का जिक्र किया गया है वे तथ्यों से परे हैं। उनका कहना है कि रणवीर सेना तथा नक्सलवादियों के बीच जनसंहार का दौर चला था और इसके पहले जयप्रकाश जी को उग्रवाद को शांत करने के लिए मुजफ्फरपुर के मुसहरी में डेरा जमाना पड़ा था। लेकिन उन दिनों भी किसी भी पक्ष ने पुलिस को इस तरह के निरंकुश अधिकार देने की बात नहीं की थी। शिवानंद जी ने अचरज व्यक्त किया है कि गांधी, लोहिया और जयप्रकाश की धारा से निकले नीतीश ऐसा कैसे कर सकते हैं?
दरअसल, अंतिम फैसले के लिए नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह पर निर्भर रहनेवाले नीतीश इसके अलावा कुछ नहीं कर सकते हैं। केंद्र और राज्य की सरकार को अंदाजा हो गया है कि बेरोजगारी तथा बदहाली से घिरे बिहार में उसे बड़े जनांदोलनों का सामना करना पड़ेगा। मंडियों को बंद कर नीतीश सरकार ने किसानों को पहले ही बाजार के भरोसे छोड़ दिया है। यह अनायास नहीं है कि अडानी का सबसे बड़ा गोदाम बिहार के कटिहार में है जो देश के महत्त्वपूर्ण रेल तथा सड़क मार्गों से जुड़ा है। राज्य में किसानों का आंदोलन भी जोर पकड़ने लगा है।

विशेष सशस़्त्र पुलिस का गठन कारपोरेट बनाम जनता के इस संघर्ष को दबाने की राष्ट्रव्यापी तैयारी का हिस्सा है। विपक्ष के विधायकों की पिटाई के जरिए नीतीश ने साफ कर दिया है कि वह अपनी विरासत नहीं, बल्कि भाजपा की कमान वाली सरकार संभालेंगे।

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