— अमिताभ —
भारत में डिजिटल मीडिया का अस्तित्व तीन दशक से भी कम पुराना है लेकिन इतने कम समय में ही उसने बड़ी पूँजी पर आधारित परंपरागत मुख्यधारा के मीडिया (प्रिंट, टीवी, रेडियो) के दबदबे को कड़ी टक्कर दी है। वैसे तो सेटेलाइट टीवी भी हमारे देश में नब्बे के दशक में शुरू हुआ था और उसकी उम्र भी बहुत नहीं है लेकिन तेजी से हुए तकनीकी विकास, कम्प्यूटर, इंटरनेट के विस्तार और मोबाइल क्रांति की बदौलत डिजिटल मीडिया संरचनाओं के उपभोक्ताओं के लिए नई खिड़कियां खुली हैं जहाँ सूचनाएँ बहुलता में और ज्यादातर मुफ्त में या कम कीमत में सुलभ हैं। इसमें फेसबुक, ट्विटर और वाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया मंचों को भी जोड़ लें तो इस नए मीडिया का तेजी से दायरा भी बढ़ा है और असर भी। नतीजतन, देश में एक बड़ा वर्ग अब सूचनाओं और विश्लेषणों के लिए अखबारों या टीवी चैनलों पर निर्भर नहीं रह गया है। सुबह-सुबह अख़बार के इंतजार की आदत और टीवी के आगे बैठे रहने की मजबूरी को पीछे धकेल कर यह अब संचार और संवाद का पसंदीदा माध्यम बन चुका है। जब चाहें, जहाँ चाहें और जो चाहें, वैसी सूचना उपलब्ध है। एक पुराने गाने की तर्ज पर सूचनाओं के उपभोक्ता से कहा जा सकता है- बोलो जी, तुम क्या-क्या खरीदोगे, यहाँ तो हर चीज बिकती है।
डिजिटल मीडिया का यह फैलाव एक तरफ तो कॉरपोरेट पूँजी वाले पारंपरिक मीडिया के व्यवसाय और उससे होनेवाले मुनाफे के लिए खतरा बन गया है और दूसरी तरफ राजनीतिक दलों, नेताओं और सरकारों के लिए भी आम जनता से, अपने मतदाताओं से संवाद की नई चुनौती बनकर उभरा है, खासतौर पर लोगों के असंतोष के मामले में।
हालाँकि हमारे नेताओं ने इस नए माध्यम और इसके मंचों की ताकत को अच्छी तरह पहचाना है और इसका चुनावी फायदा भी उठाया है। 2010 में हुए ‘अरब स्प्रिंग’ से प्रेरणा लेकर अन्ना आंदोलन में सोशल मीडिया का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हुआ। 2013 में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की चुनावी जीत और 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी की कामयाबी में पारंपरिक मीडिया से ज़्यादा प्रभावशाली भूमिका सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया की रही। लगभग सभी राजनीतिक दलों में आईटी सेल का गठन इस नए मीडिया के दबदबे का ही नमूना है।
2014 में नरेंद्र मोदी मुख्यधारा के मीडिया से भी ज्यादा सोशल मीडिया प्रायोजित लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर सत्ता के शिखर तक पहुँचे थे। मोदी के उस दौर के चुनाव प्रचार को याद करते हुए हमें यह भी याद करना चाहिए कि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात दंगों के बाद खासतौर पर अंग्रेजी मीडिया से उनके संबंधों का ग्राफ किस तरह बदला था।
सांप्रदायिक हिंसा के लिए मोदी और बीजेपी की तीखी आलोचना के मद्देनजर पुराने मीडिया की वैधता पर लगातार सवाल उठाने और उसके सापेक्ष एक नया सरकार समर्थक मीडिया गढ़ने की सोची-समझी रणनीति पर आक्रामकता के साथ काम किया गया था। याद कीजिए, मोदी ने परंपरागत मुख्यधारा के मीडिया में अपने आलोचकों पर व्यंग्य करते हुए उन्हें न्यूज ट्रेडर्स कहा था। उसी दौर में पत्रकारों के लिए ‘प्रेस्टीट्यूट’ का अपमानजनक संबोधन भी उछाला गया जिस पर टीवी और अख़बारों से ज्यादा डिजिटल मीडिया में तीखी आलोचना हुई। इसमें अब कोई शुबहा नहीं होना चाहिए कि परंपरागत मुख्यधारा के मीडिया की धार और साख को तमाम तरह के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबावों के जरिये खत्म किया जा चुका है।
कॉरपोरेट मीडिया घरानों के डिजिटल उपक्रमों के तेवर भी नर्म हैं। ऐसे में वह मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता रहा है, केवल छोटे और स्वतंत्र मीडिया मंचों में ही जिंदा बचा है। सरकार की आलोचना के स्वर केवल यहीं सुनाई देते हैं किसी वेबसाइट पर, यू ट्यूब चैनल पर, फेसबुक, ट्विटर, वाट्सऐप पर सक्रिय स्वतंत्र पत्रकारों, विश्लेषकों के माध्यम से।
जो मीडिया मोदी और बीजेपी का हथियार बना था, अब वह उनके आलोचकों के भी बहुत काम आ रहा है। जाहिर है, यह एकाधिकारवादी राजनीति करनेवालों को सुकून पहुँचानेवाली बात नहीं है। ऐसे में डिजिटल मीडिया पर अंकुश लगाने के सरकार के कदम को जनहित की आड़ में जनता की आवाज को दबाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।
डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफार्म के लिए केंद्र सरकार के नए दिशानिर्देशों पर तीखी बहस जारी है। मामला देश की सबसे बड़ी अदालत में भी पहुंच चुका है और सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि डिजिटल और सोशल मीडिया के रेगुलेशन या विनियमन के लिए सख्ती बरतना जरूरी है। मौजूदा केंद्र सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम-2000 की धारा 87(2) के तहत मनमोहन सिंह की सरकार में तैयार किए गए सूचना प्रौद्योगिकी नियम-2011 की जगह 2021 में तैयार किए गए दिशानिर्देशों में डिजिटल मीडिया के लिए भी आचार संहिता तय कर दी है। सोशल मीडिया के दुरुपयोग को मुद्दा बनाया गया है। अपने आप में यह कोई बेजा बात नहीं है। पिछले कुछ सालों में ट्विटर, फेसबुक और वाट्सऐप के जरिये जिस तरह भड़काऊ सामग्री का प्रचार-प्रसार किया गया है, समाज में अशांति और असहिष्णुता फैलाने के लिए सोची-समझी रणनीति के तहत झूठी सूचनाएँ, तस्वीरें, वीडियो, फेक न्यूज़ और विश्लेषण लोगों के दिलोदिमाग को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल किए गए हैं उसे देखते हुए यह वाकई जरूरी लगता है कि डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफार्म की भी
जवाबदेही तय की जाए।
फिर खतरा कहाँ है? डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया की नकेल कसने के पीछे सरकार की नीयत पर संदेह क्यों होता है ? यह सवाल बराबर उठ रहा है कि सरकार सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने के नाम पर कहीं स्वतंत्र डिजिटल पत्रकारिता की आवाज दबाने की कोशिश तो नहीं कर रही है? वजह सरकारों का वर्ग चरित्र है। दुनिया भर में सरकारें अपने फैसलों पर सहमति का माहौल बनाने के लिए देश पर संकट की एक पटकथा तैयार करती हैं और मीडिया के माध्यम से आम लोगों की सोच अपने पक्ष में बदलने की रणनीति पर काम करती हैं। प्रख्यात अमरीकी बुद्धिजीवी नोम चॉम्स्की ने अपनी मशहूर किताब ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेन्ट’ में इसके बारे में विस्तार से लिखा है। सरकारों के लिए अपनी जवाबदेही से बचने का सबसे आसान तरीका होता है आम आदमी के अभिव्यक्ति के अधिकार को संकुचित कर देना।
सरकार के दिशानिर्देशों में कहा गया है कि सोशल मीडिया कंपनियों को सरकार और अदालत के आदेश पर आपत्तिजनक और विवादस्पद कंटेंट को 36 घंटों की निर्धारित समय-सीमा के भीतर हटाना होगा, एक मासिक कंटेंट रिपोर्ट तैयार करनी होगी जिसमें हटाए गए कंटेंट के बारे में स्पष्ट रूप से जानकारी देनी होगी।
डिजिटल न्यूज वेबसाइट को प्रेस काउंसिल की आचार संहिता और केबल टेलीविजन नेटवर्क्स रेगुलेशन एक्ट के प्रोग्राम कोड का पालन करना होगा, अपनी वेबसाइट पर छपने वाले कंटेंट के बारे में शिकायतों के निपटारे के लिए तीन-स्तरीय व्यवस्था बनानी होगी जिसके तहत एक चीफ कंप्लायंस अफसर की नियुक्ति करनी होगी जो कानून प्रवर्तन एजेंसियों के निर्देशों पर अमल के लिए नियमित रिपोर्ट देगा। कंटेंट की निगरानी और शिकायतों के निवारण के लिए तंत्र बनाना होगा। सरसरी तौर पर इस सब में कोई खराबी नहीं नजर आती। समस्या यह है कि जिनके पास वेबसाइट चलाने के लिए भी मुश्किल से पैसा जुटता है, वे लोग या समूह किस तरह कंटेंट की निगरानी के लिए एक अफसरी व्यवस्था विकसित कर सकेंगे जो सरकार को भी संतुष्ट रखे। सरकार तो उनकी आलोचना से ही अमूमन असंतुष्ट रहती है या रहेगी। उसके लिए कोई न कोई नुक्स निकाल कर ऐसे हर डिजिटल न्यूज मीडिया मंच पर लगाम कसने और उनकी आवाज बंद करने का रास्ता खुला रहेगा।
फिर उपाय क्या है ? एक तो स्वनियमन का कड़ाई से पालन किया जाए। यानी अपने तेवरों और धार को बरकरार रखते हुए कंटेंट की निगरानी की जाए, तथ्यों को अच्छी तरह पड़ताल के बाद ही छापा या दिखाया जाए, आलोचना में भी शालीनता और काम में पूरी तरह पारदर्शिता बरती जाए। सबसे अच्छा होगा गाँधीजी के उन सिद्धांतों पर अमल करना जो उन्होंने अपनी पत्रकारिता में इस्तेमाल किए थे।
गांधीजी ने कहा था- ‘पत्रकारिता लोकतंत्र की संरक्षक और प्रजा की सेवक है। पत्रकारिता को निरंकुश शक्ति नहीं मिली है , वह तो जनता के कल्याण और शुभ के लिए है।’
मुख्यधारा की भारी-भरकम पूँजी आधारित पत्रकारिता आज अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है। सरकारपरस्ती की वजह से उसे गोदी मीडिया कहा जा रहा है। ऐसे में डिजिटल मीडिया की वैकल्पिक पत्रकारिता का उत्तरदायित्व और बढ़ जाता है। किसी के भी हाथ में मोबाइल फोन आज की तारीख में सूचना का कारखाना भी है और गोदाम भी। वैकल्पिक मीडिया के लिए भी अपनी साख और प्रासंगिकता बनाना-बचाना एक बड़ी चुनौती है। मुक्तिबोध के शब्दों में- ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सब’। निर्भीक पत्रकारिता करनी है तो उसकी कीमत चुकाने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। गांधी यहां भी रास्ता दिखा सकते हैं, बशर्ते कोई देखना चाहे।