मेरे मित्र और देश के महत्त्वपूर्ण बुद्धिवादी तथा आंबेडकर-मार्क्सवादी लेखक! आज से नब्बे साल पहले के जर्मनी में- हिटलर के फासिस्ट राज में- यही आलम था कि आप अगर स्वतंत्र विचारों के लेखक या बुद्धिजीवी हैं या कम्युनिस्ट अथवा सोशलिस्ट विचारधारा के हैं तो जेल में डालना या हत्या करना बिल्कुल आम बात थी! जब से बीजेपी केंद्र की सत्ता में आई है तब से फासीवाद के भारतीय संस्करण की शुरुआत हो चुकी है। आनंद तेलतुंबडे के उदाहरण से याद आया कि सेवाग्राम में दो साल पहले के गणतंत्र दिवस पर एक बुजुर्ग के सामने कन्हैया नाम के किसी और युवक का नाम पुकारा, तो वह अचानक बोल पड़े ओ देशद्रोही, उसको यहाँ किसने बुलाया ? बोलनेवाले सज्जन एक बुजुर्ग गांधीवादी थे ! एक समय था जब सिर्फ संघ परिवार के लोगों की यह भाषा थी, तो मैं मान लेता था कि ये लोग ‘रेजिमेंटेंड’ हैं, संघ की शाखा में जो जहर दस साल की उम्र से जिसके दिमाग में डाला जाता है वह बेचारा क्या करेगा, इसी तरह की बात तो करेगा! लेकिन आजकल वैसी बात करने के लिए कोई संघ परिवार का होना जरूरी नहीं है, जिसके उदाहरण सेवाग्राम में मिले यह बुजुर्ग सज्जन थे।
ये सब लोग अपने-अपने दैनंदिन जीवन के तय काम तो बहुत अच्छा करते होंगे लेकिन विगत साढ़ नौ दशक से संघ ने अपनी शाखाओं या ‘बौद्धिकों’ में इस तरह की बातें बार-बार बताकर अपने स्वयंसेवक हिटलर या मुसोलिनी की तर्ज पर प्रशिक्षित किए हैं। इतने सालों में ये लोग सिर्फ संघ की शाखाओं तक सीमित नहीं रहे, ये जीवन के हर क्षेत्र में फैल चुके हैं और अपने प्रशिक्षण के अनुसार उस-उस क्षेत्र में संघ से पाई हुई शिक्षा का उपयोग कर रहे हैं, चाहे वह क्षेत्र राजनीति या प्रशासन का हो या फिर पत्रकारिता,लेखन,नाटक,सिनेमा आदि का। और सबसे चिंता की बात यह है कि विभिन्न संस्थाओं और संगठनों में तथा विभिन्न राजनीतिक दलों में उनके घुस जाने के कारण आज भारत का कोई क्षेत्र नही है जिसमें संघी विचारधारा के लोग न हों। उक्त बुजुर्ग गांधीवादी को मैं ऐसे ही लोगों के एक नमूने के रूप में लेता हूँ !
मैंने तो तथाकथित कम्युनिस्ट,सोशलिस्ट और गांधीवादी, आंबेडकरवादी समूहों-संगठनों और सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में भी इनकी उपस्थिति देखी है ! फिर पुलिस, सेना, आईबी, सीबीआई, एनआईए, न्याय व्यवस्था, प्रशासन के अंदर आजादी के पहले से ही वे लोग सुनियोजित तरीके से घुस चुके हैं ! पुलिस किसी भी दंगे में क्या भूमिका निभाती है, जगजाहिर है। इसी तरह बहुत-से प्रशासनिक अधिकारी और अनेक न्यायाधीश क्या करते हैं यह भी किसी से छिपा नहीं है। रंजन गोगोई इसके ताजा उदाहरण हैं ! हालाँकि इनके पिता अल्प समय के लिए कांग्रेस की तरफ से असम के मुख्यमंत्री भी रहे ! मैंने ऐसे दर्जनों कांग्रेसी देखे हैं जो राजनीतिक लाभ के लिए पार्टी मे जरूर हैं लेकिन उनकी मानसिकता संघ की होती है; वे दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों और सबसे ज्यादा अल्पसंख्यकों को लेकर बहुत ही पूर्वाग्रही होते हैं !
पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा मे राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाने को लेकर आवाज इंडिया टीवी पर मेरा साक्षात्कार देखने के बाद सबेरे-सबेरे अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के एक कार्यकर्ता का फोन आया था! वह बोला कि आप देशद्रोहियों में से एक हो, आप भारत के पूर्व न्यायाधीश के ऊपर टीका-टिप्पणी कर रहे हो? तो आप भी देशद्रोही हो !
केंद्र में वर्तमान सरकार आने के बाद से देशद्रोही वाली जुमलेबाजी ज्यादा चलन मे आई है! जो कोई भी सरकार कीं आलोचना करता है उसे देशद्रोही करार दे दिया जाता है ! आजादी के बाद इतनी सरकारें आईं, क्या उन्हें डॉ राममनोहर लोहिया, इंद्रजीत गुप्त, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीज, प्रोफेसर मधु दंडवते, बैरिस्टर नाथ पै, मधु लिमये देशद्रोही नजर आए? जबकि ये नेतागण तत्कालीन सरकारों की आलोचना करते ही रहते थे। वर्तमान सरकार में शामिल प्रधानमंत्री से लेकर सभी मंत्रियों ने विपक्ष में रहते हुए सत्ताधारी दल की बार-बार कड़े शब्दों में आलोचना की थी। क्या वे भी देशद्रोह वाली बातें थीं ?
आजकल बहुत ही सुविधाजनक ढंग से इस जुमले का प्रयोग किया जा रहा है ! गोगोई शायद भारत के इतिहास में पहले न्यायाधीश थे जिन्होंने अपने ऊपर अपने ही कार्यालय की एक महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन शोषण के आरोप के मामले में खुद ही बेंच बनाकर अपने आप को उसमे शामिल किया हो ! भारत के न्यायतंत्र के इतिहास में ऐसा शायद एकमात्र उदाहरण होगा।
और इस व्यक्ति ने आरोप लगानेवाली महिला कर्मचारी को सजा देने का काम किया ! मेरी पत्नी केंद्रीय विद्यालय की प्राचार्या थी तो बोर्ड की परीक्षा के पहले एक पत्र आता था कि यदि इस परीक्षा में आपके नाते-रिश्तेदार में से कोई परीक्षा दे रहा हो तो आप यह जिम्मेदारी (परीक्षा संपन्न कराने की) किसी दूसरे को सौंप दें!
शायद हमारी न्याय व्यवस्था में भी ये नियम होंगे। लेकिन जिस मामले में जस्टिस गोगोई आरोपी थे उस मामले में इसका पालन क्यों नहीं हुआ? बेंच के दूसरे जजों ने एतराज क्यों नहीं किया? इसी तरह राफेल के मामले में, जो कि हमारे राष्ट्र की सुरक्षा से संबंधित मामला है, सरकार ने एक बंद लिफाफा गोगोई साहब को अलग से देकर पूरा मामला रफा-दफा करा दिया। उसी तरह कश्मीर से धारा 370 हटाने के खिलाफ दायर याचिकाओं पर आज तक सुनवाई नहीं हुई। और सबसे संवेदनशील तथा विवादित बाबरी मस्जिद के मामले में हमारे देश के संविधान की अनदेखी करके जो फैसला दिया गया वह कुछ खास लोगों को खुश करने के लिए दिया गया फैसला था। नागरिकता संशोधन कानून को चुनौती देनेवाली अस्सी से अधिक याचिकाएं लंबित हैं, पर मामला बराबर टलता ही जा रहा है (या टाला जा रहा है)। और जिस जज के कई फैसलों को लेकर यह माना गया कि दाल में कुछ काला है, उनके रिटायर होने के तीन महीनों के भीतर उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किए जाने की मैंने आलोचना की, तो अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति में काम करनेवाले एक मित्र की नजर में मैं देशद्रोही हो गया ! यह वक्त का फेर है या नजर का?
इसलिए आनंद तेलतुंबडे पर जो देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया है उसे सही नहीं ठहराया जा सकता। मैं आनंद को काफी समय से जानता हूँ। वह मार्क्सवादी विचारो के हैं। मेरे उनसे कुछ वैचारिक मतभेद हैं लेकिन वह देशद्रोही हैं यह बात किसी तरह मेरे गले नहीं उतर सकती। वह इस देश से उतना ही प्यार करते हैं जितना कोई अन्य। इसलिए मुझे लगता है कि विरोध या आलोचना में देशद्रोह सूंघने का जो चलन चला है वह बहुत ही चिंताजनक है। इस तरह का रवैया हमारे लोकतंत्र का गला घोंट देगा।
जो लोग आजादी के आंदोलन से दूर रहे और जो लोग धर्म के नाम पर देशवासियों को दिन-रात बांटने और लडाने का काम करते हैं उन्हें मैं देश को तोड़नेवाले लोग कहूंगा। दुनिया में जितने भी धर्म हैं उन्हें माननेवाले लोग इस देश में रहते हैं और ऐसे में किसी खास धर्म को मानेनवालों को अपना और बाकी लोगों को पराया करार देने का अर्थ है अलगाववाद को बढ़ावा देना ! हमारे देश को एक सूत्र में पिरोकर विदेशी साम्राज्य का अंत करनेवाले सभी राष्ट्रीय नेता, जिनमें महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, और जाने कितने लोग थे जिनके त्याग और कुर्बानी से यह देश आजाद हुआ और उसे एक राष्ट्र का स्वरूप मिला। ऐसे देश में सांप्रदायिक राजनीति करना सबसे बड़ा देशद्रोह है क्योंकि किसी खास धर्म के नाम पर राजनीति करने से अन्य धर्मों के लोग अपने को असुरक्षित महसूस करते हैं और इससे देश की एकता कमजोर होती है। ऐसा देश-विरोधी काम कौन लोग कर रहे हैं, क्या यह किसी से छिपा है?
दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करनेवाले और उनके साथ काम करनेवाले कुछ प्रमुख लोगों को कुछ समय से नक्सलवादी या मुसलमान है तो आतंकवादी कहकर बदनाम करने और जनता में भ्रम पैदा करने की कोशिश की जाती है। यह सब बंद होना चाहिए और झूठे मामले वापस लिये जाने चाहिए।
आजादी के सात दशक बाद भी हमारे देश की आधी से ज्यादा आबादी घोर गरीबी में जीने को मजबूर है और इनमें सबसे बड़ी संख्या दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों की है। अगर इतने सालों बाद भी भारत की आधी से ज्यादा आबादी जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए हाय-हाय करती रहती है और हर साल पांच साल से कम आयु के पांच लाख से ज्यादा बच्चे कुपोषण की भेंट चढ़ जाते हैं, तो देश की स्वतंत्रता के पचहत्तर साल हो जाएं या सौ साल, क्या फर्क पड़ता है ?
और इसी आबादी के प्राथमिक सवालों को लेकर अगर कुछ उच्चशिक्षित लोग, अपने करियर को छोड़कर, काम कर रहे हों तो आप इन्हें देशद्रोही कहेंगे? यह आप बोल रहे हैं, या आपको बहकाकर बोलवाया जा रहा है?