इस राष्ट्रीय संकट काल में भी झूठ की कोई इंतहा नहीं – कुमार प्रशांत

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कोरोना सबकी कलई खोलता जा रहा है।

हमारे शायर कृष्ण बिहारी नूर ने कहा है : सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे/ झूठ की कोई इंतहा ही नहीं। कोरोना इसे सही साबित करने में लगा है।

कोई है जो दस नहीं हजार मुख से चीख-चीख कर कह रहा है कि न अस्पतालों की कमी है न बिस्तरों की, न वैक्सीन कहीं अनुपलब्ध है, न कहीं डॉक्टरों-नर्सों की कमी है। वह बार-बार कह रहा है कि ऑक्सीजन तो जितनी चाहो उतनी उपलब्ध है। दूसरी तरफ राज्य हैं कि जो कभी चीख कर, कभी याचक स्वर में कह रहे हैं कि हमारे पास कुछ भी बचा नहीं है। हमें वैक्सीन दो, हमें ऑक्सीजन दो, हमें बिस्तर और वेंटिलेटर लगाने-बढ़ाने के लिए संसाधन दो। हमारे लोग मर रहे हैं। लेकिन वह आवाज एक स्वर से, एक ही बात कह रही है : देश में कहीं कोई कमी नहीं। जिन राज्यों में कमल नहीं खिलता है, वे ही राज्य सारा माहौल खराब कर रहे हैं।

हमारा शायर बेचारा कह रहा है, कहता जा रहा है : झूठ की कोई इंतहा ही नहीं!

उच्च न्यायालय गुस्से में कह रहे हैं : लोग मर रहे हैं और आपकी नींद नहीं खुल रही है! चाहे जैसे भी हो- छीन कर लाओ कि चुरा कर लाओ कि मांग कर लाओ लेकिन ऑक्सीजन लाओ, वैक्सीन लाओ। यह तुम्हारा काम है, तुम करो।

सर्वोच्च न्यायालय कह रहा है : यह राष्ट्रीय संकटकाल है। सबकुछ रोक दीजिए। बस एक ही काम : लोगों का समुचित इलाज! जान बचाई जाए। कारखानों व दूसरे कामों में ऑक्सीजन की एक बूंद भी इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगा दीजिए। सारे संसाधन अस्पतालों को मुहैया कराइए।

क्या इससे पहले भी इनमें से किसी ने ऐसा कहा था?

जो प्रधानमंत्री रातो-रात लॉकडाउन लगाकर सारे देश की सांस बंद कर दी थी और अपनी पीठ थपथपा कहता ही रहे थे कि समय पर लॉकडाउन लगाकर मैंने सारे देश को बचा लिया वही प्रधानमंत्री अब कह रहे हैं कि तब लॉकडाउन इसलिए लगाया था कि हमारी तैयारी नहीं थी, संसाधन नहीं थे, इस बीमारी का कोई इलाज पता नहीं था। हमने सबकी सांस इसलिए बंद कर दी थी ताकि हमें सांस लेने का मौका मिले, ताकि हम तैयारी पूरी कर सकें। वे कह रहे हैं कि आज ऐसा नहीं है। अब हम लॉकडाउन नहीं करेंगे। राज्यों को भी इसे एकदम आखिरी विकल्प मानना चाहिए, क्योंकि आज सारे संसाधनों के साथ हम तैयार भी हैं और हमें इस कोविड का इलाज भी पता है।

देश अपनी टूटती हुई सांसें संभालता हुआ कह रहा है : मैं तो तब भी सांस नहीं ले पा रहा था, अब भी नहीं ले पा रहा हूं। मेरे लोग तब भी बेहिसाब बीमार पड़े, तड़प रहे थे, मर रहे थे; आज भी तब से ज्यादा बीमार हैं, तड़प रहे हैं, मर रहे हैं। तुम लाशें गिन सकते हो, लाशें छिपा सकते हो लेकिन मेरा दर्द नापनेवाला ऑक्सीमीटर बना ही कहां है!

जवाब में आंकड़े पेश किए जा रहे हैं : जंबो कोविड सेंटर यहां भी बन गया है, वहां भी बन गया है। इतने बेड तैयार हैं, इतने अगले माह तक तैयार हो जाएंगे। ऑक्सीजन प्लांट अपनी पूरी क्षमता से काम कर रहे हैं। वैक्सीन में तो हम सारी दुनिया में अव्वल है- विश्वगुरु! वैक्सीन बर्बाद न होने दीजिए, ऑक्सीजन बर्बाद न कीजिए! प्रधानमंत्री रात-दिन बैठकें कर रहे हैं। देश की सबसे अ-सरकार सरकार राजधानी दिल्ली की है जिसका मुखिया नौजवानों से कह रहा है : हमने दिल्ली के अस्पताल चौबीस घंटे आपके लिए खोल दिए हैं। मुफ्त वैक्सीन लगाई जा रही है। आप घर से बाहर मत निकलिए तो कोई खतरा नहीं है। हम तब भी जीते थे, अब भी जीतेंगे। वे कोविड से जीतने की बात कर रहे थे, मुझे सुनाई दे रहा था- चुनाव!

शायर गा रहा है : झूठ की कोई इंतहा ही नहीं!

विश्व स्वास्थ्य संगठन कह रहा है : हमने फरवरी में ही भारत सरकार को आगाह किया था कि यूरोप आदि में जैसा दिखाई दे रहा है, कोविड का वैसा ही विकराल स्वरूप आपके यहां भी लौटेगा। इसलिए अपने ऑक्सीजन का उत्पादन जितना बढ़ा सकें, बढ़ाइए। किसी के कान पर तब जूं क्यों नहीं रेंगी? अखबारों में यह खबर सुर्खी क्यों नहीं बनी?

पहले लॉकडाउन से इस लॉकडाउन के बीच (आपको अंदाजा न हो शायद कि कोई पंद्रह राज्यों में लॉकडाउन लगाया जा चुका है- हां, उसका नाम बदल दिया गया है!) स्वास्थ्य सेवा में क्या-क्या सुधार किया गया है, किस क्षेत्र में क्या-क्या क्षमता बढ़ाई गई है, कोई तो बताए! अस्पताल में जब भी एक मरीज दाखिल होता है तो वह अपने साथ एक डॉक्टर, एक नर्स, एक निपुण जांचकर्ता, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर विशेषज्ञ से लेकर कितने ही स्वास्थ्यकर्मी की मांग करता हुआ दाखिल होता है। कोई तो बताए कि उस लॉकडाउन से इस लॉकडाउन के बीच इनकी संख्या में कितनी वृद्धि हुई?

कोई हमें यह न बताए कि डॉक्टर, नर्स, विशेषज्ञ आदि एक-दो-दस दिन में तैयार नहीं किए जा सकते। जब आपातकाल सामने होता है तब तर्क से अधिक संकल्प व ईमानदारी की या ईमानदार संकल्प की जरूरत होती है, जुमलेबाजी की नहीं। किया यह जा सकता था कि कैसे उन सब डॉक्टरों को, जो समर्थ हैं लेकिन कानूनन रिटायर हो गए हैं, वे जो नौकरी के अभाव में आजीविका के लिए प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे हैं, वे जो फौजी स्वास्थ्य सेवाओं से निकले हैं, वे जो डॉक्टरी के अंतिम वर्षों में पहुंचे हैं, वे जो अलग-अलग पैथियों में इलाज करते हैं उन सबको कोविड के खिलाफ सिपाही बनाकर उतारने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता। उनकी आर्थिक व्यवस्था की जाती और उन्हें चरमराते अस्पतालों में, समझ से कोरे घरों में फैला दिया जाता कि वे लड़ाई में देश की मदद करें। संक्रमण को परास्त करने का युद्ध तो छेड़ा जाता! लेकिन माहौल तो एक ही बनाया गया कि कहां चुनाव जीतना है, कहां कैसी संकीर्णता फैलानी है, कहां कौन-सा यज्ञ, अनुष्ठान आयोजित करवाना है। सत्ता जब ऐसा माहौल बनाती है, तब सारे सत्ताकांक्षी उसके पीछे-पीछे दौड़ते हैं। इसलिए नेताओं में कोई फर्क बचा है कहीं?

हमें अपनी अदालतों से पूछना चाहिए कि आपने अपनी तरफ से संज्ञान लेकर कभी वह सब क्यों नहीं कहा जो अब कह रहे हैं? आपने तो अदालतों को ही लॉकडाउन में रख दिया! संविधान में लिखा है कहीं कि न्यायालय अपने संवैधानिक दायित्वों से भी मुंह मोड़ ले सकते हैं? आपातकाल में न्यायपालिका पर यही दाग तो लगा था जो आज भी दहकता है! और चुनाव आयोग से क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या उसे कोविड का घनेरा दिखाई ही नहीं दे रहा था कि उसने चुनावों का ऐसा भारी-भरकम, लंबा आयोजन किया? सत्ता की बेलगाम भूख को नियंत्रित करने के लिए ही तो हमने चुनाव आयोग का सफेद हाथी पाला है। किसी गृहमंत्री ने ऐसी लंगड़ी दलील दी कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि चुनाव से बचा जा सके। कितना बड़ा पाखंड है यह! चुनाव से बचने की अलोकतांत्रिक भ्रष्ट मानसिकता और अभूतपूर्व महामारी से देश को बचाने की संवैधानिक व्यवस्था में फर्क करने की तमीज नहीं है हमें? हमारी न्यायपालिका और चुनाव आयोग बताए कि क्या हमारा संविधान इतना बांझ है कि वह आपातकाल में रास्ते नहीं बताता है? चुनाव आयोग कभी देश से यह कहने एक बार भी सामने आया कि कोविड का यह अँधेरा चुनाव के उपयुक्त नहीं है? सब दूर से आती किसी धुन पर नाच रहे हैं। सामान्य समझ व संवेदना का ऐसा असामान्य लॉकडाउन देश कैसे झेलेगा? मर कर ही न! वही वह कर रहा है।

काबे किस मुंह से जाओगे ग़ालिब/ शर्म तुमको मगर नहीं आती!

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