— मुनेश त्यागी —
आज हमारा देश और समाज बहुत बड़े संकट के दौर से गुजर रहा है। पूरा देश जैसे साम्प्रदायिक फासीवादियों और आतंकवादियों के कुचक्र का शिकार हो रहा है। दोनों ओर की ताकतें झूठे प्रचार द्वारा इतिहास की सच्चाइयों को झुठलाने पर आमादा हैं। अब जब हिंदुत्ववादी ताकतें सत्ता पर आरूढ़ हैं तो समस्या ज्यादा गंभीर हो गई है।
हिंदुस्तान की संस्कृति विविधतापूर्ण,साझी और मिलीजुली रही है। हमारे यहां बाहर से हूण, शक, कुषाण, मंगोल, पठान, तुर्क, यूनानी आदि आए और यहां की संस्कृति, आचार-विचार और चिंतन से प्रभावित हुए,यहां की संस्कृति और चिंतन को प्रभावित किया और कालांतर में यहां की संस्कृति में रच-बस गए। लगभग सौ साल पहले तक हिंदू और मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग एक दूसरे की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते थे।
दोनों ने एक दूसरे से काफी कुछ सीखा, लेकिन पिछले काफी अरसे से साम्प्रदायिक ताकतें इस साझी संस्कृति और साझी विरासत पर लगातार हमले कर रही हैं। ये ताकतें यह दिखाना चाहती हैं कि यहां हिंदू और मुसलमान सदा से परस्पर युध्दरत रहे हैं, इनके हित और मिजाज अलग अलग रहे हैं, ये एकसाथ नहीं रह सकते। मगर हकीकत और ऐतिहासिक तथ्य इस मानसिकता और सोच के बिल्कुल खिलाफ हैं।
हमारा इतिहास सैकड़ों हिंदू-मुस्लिम हीरे-मोतियों, नायक-नायिकाओं से भरा पड़ा है, जिनके बारे में वर्तमान पीढ़ी को बताना निहायत जरूरी हो गया है। भारत की साझी विरासत पर गौर करें तो पता चलेगा कि मुगल सरदार बाबर, दौलत खां लोदी और राणा सांगा के साथ, दिल्ली के बादशाह इब्राहीम खां लोदी और ग्वालियर के हिंदू राजा मान सिंह तोमर से पानीपत के मैदान में लड़ रहा था, जिसने इब्राहीम खां लोदी को हराया था। हमें याद रखना चाहिए कि बाबर को यहां, राणा सांगा और दौलत खां लोदी काबुल से बुलाकर लाये थे ताकि दिल्ली के बादशाह इब्राहीम लोदी को हराकर दिल्ली की गद्दी पर काबिज हुआ जा सके। क्या यह हिंदू-मुसलमान की लड़ाई थी?
इससे पहले भी मुस्लिम शासक आपस में लड़ते रहे थे।रजिया सुल्तान को भी मुसलमानों ने गद्दी से हटाया था, शेरशाह सूरी ने भी हुमायूं को परास्त किया था। क्या ये सब धर्मयुद्ध था? नहीं, बिलकुल नहीं। यह सिर्फ राजनैतिक और सत्ता-प्राप्ति का संघर्ष था, इसमें मजहब का कोई रोल नहीं था। इससे पहले भी मुस्लिम शासक- गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश और लोदी वंश के बादशाह- सत्ता के लिए आपस में लड़ते-मरते और एक-दूसरे की हत्या और एक-दूसरे का तख्ता पलट करते रहे थे।
हल्दीघाटी के युध्द में अकबर के साथ राजा मानसिंह थे तो महाराणा प्रताप के साथ मुस्लिम सरदार हाकिम सूर खां थे।यहीं पर आश्चर्यचकित करनेवाला एक और तथ्य काबिलेगौर है, वह यह कि महाराणा प्रताप के बाद जब उनका बेटा राजा अमरसिंह सत्तानशीन हुआ तो उसने अकबर के बेटे बादशाह जहांगीर से संधि कर ली और उनके साथ मिल गया। अब इसे क्या कहिएगा, क्या यह भी धर्म-युध्द था? क्या यह भी एक सियासी और सत्ता का गठजोड़ न था?
औरंगजेब के मुख्य सेनापति हिंदू राजा मिर्जा जय सिंह थे और उनकी सेना में जाधव राव, कान्होजी सिर्के, नागोजी माने, आवाजी ढल, रामचंद्र और बहीर जी पंढेर शामिल थे तो महाराजा शिवाजी के निजी सचिव मौलवी हैदर ख़ान थे, तोपची इब्राहीम गर्दी ख़ान, और सेनापति दौलत खां व सिद्दीकी मिसरी थे। क्या यह कोई धार्मिक लड़ाई थी? यह सिर्फ राजनैतिक संघर्ष था यानी यह मात्र सत्ता की लड़ाई थी।
सिराजुद्दौला के सबसे विश्वसनीय दोस्त राजा मोहनलाल थे।मीर मदन उनके सबसे वफादार सेनापति थे। सिराजुद्दौला परम देशभक्त थे, जिन्होंने अपने देश भारत को कभी धोखा नहीं दिया। हैदर अली आजाद जिये और अपनी और हिंदुस्तान की आजादी की रक्षा की खातिर अंग्रेजों से लड़ते हुए मैदानेजंग में वीरगति को प्राप्त हुए।
टीपू सुल्तान हमारे इतिहास के सबसे तेज चमकते हुए सितारे रहेंगे, पूर्णिया उनके प्रधानमंत्री थे और कृष्ण राव उनके मुख्य मंत्री थे। टीपू सुल्तान भी अंग्रेजों से युध्द करते हुए मैदाने-जंग में ही मारे गए। जबकि ये दोनों हिंदू राजा टीपू सुलतान को धोखा दे रहे थे और अंग्रेजों से मिल गए थे। क्या यह भारत के साथ हद दर्जे की गद्दारी नहीं थी?
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के सर्वोच्च सेनापति बहादुर शाह जफर और उनके निजी सचिव मुकुंद थे। इस महा संग्राम की संचालन समिति में आधे हिंदू और आधे मुसलमान थे। इस महा संग्राम को एकता के सूत्र में पिरोनेवाले नाना साहेब थे और उनके सचिव और दाहिना हाथ अजीमुल्ला ख़ान थे जिन्होंने उस महा संग्राम की सारी रूपरेखा तैयार की थी। इस महा संग्राम की एक बहुत ही मजबूत कड़ी महारानी लक्ष्मीबाई थीं, उनके तोपची गौस ख़ान थे और जमाखां और खुदाबख्श उनके कर्नल थे।
इस महा संग्राम में शामिल एक और बहुत ही कुशल और पराक्रमी शासक हजरत महल थीं, उनके साथ राव बख्शसिंह,चंदा सिंह, गुलाब सिंह, हनुमंत सिंह आदि अवध के प्रमुख सामंत सरदारों ने फिरंगियों के खिलाफ मोर्चा लिया और इन्होंने रणक्षेत्र में कभी पीठ नहीं दिखाई थी। 1857 की लड़ाई का आगाज मेरठ से हुआ था। मेरठ के 85 सैनिकों को लंबी लंबी सजाएं दी गईं। इनमें 53 मुसलमान थे और 32 हिंदू थे। यह भारत के इतिहास में कौमी एकता की सर्वश्रेष्ठ और अद्भुत मिसाल है।
हिंदुस्तान की सबसे पहली अस्थायी सरकार 1915 में काबुुल (अफगानिस्तान) में बनी थी जिसके राष्ट्रपति राजा महेंद्र प्रताप सिंह और प्रधानमंत्री बरकतुल्ला ख़ान और गृहमंत्री ओबेदुल्ला ख़ान बनाए गए थे।
अमीर खुसरो हिंदी के पहले कवि थे। अपने को सच्चा भारतीय मानते हुए उन्होंने लिखा था कि “भारत मेरा मादरेवतन है, भारत मेरा देश है, और भारत संसार में स्वर्ग है, जन्नत है।”
काकोरी केस के हीरो रामप्रसाद बिस्मिल का दाहिना हाथ अशफाक उल्ला खां थे जिन्होंने फांसी पर चढ़ने से एक दिन पहले देशवासियों से अपील की थी कि “जैसे भी हो भारतवासी हिंदू मुस्लिम एकता बनाकर कर रखें, इसी एकता के बल पर हमारा मुल्क आजाद होगा और हमारे लिए यही सच्ची श्रध्दांजलि होगी।” संपूर्ण आजादी का नारा और विश्व प्रसिध्द नारा ‘इंकलाब जिंदाबाद’ भी मौलाना हसरत मोहानी ने ही दिया था।
मेरठ षड्यंत्र केस में कामरेड मुजफ्फर अहमद को मजदूरों के संघर्ष में शिरकत करने और साम्यवादी कार्यकर्ता होने के कारण आजीवन कारावास की सजा दी गई थी। आजादी के संग्राम के सबसे बड़े नायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस के वरिष्ठ और सबसे करीबी साथी आबिद हसन, एसी चटर्जी, एमजेड कयानी और हबीबुर्रहमान थे। उनकी अस्थायी सरकार में चार हिंदू और चार मुसलमान प्रतिनिधि थे।
इस प्रकार, हम संक्षेप में देखते हैं कि हमारे यहाँ भूतकाल में जो संघर्ष हुए वे कोई धर्म-युध्द नहीं थे बल्कि वे राजनैतिक और सत्ता के लिए संघर्ष थे, जिनमें हिंदू और मुसलमान साथ-साथ भी और एक दूसरे के खिलाफ भी लड़ते रहे। वर्तमान समय में हर प्रकार की साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के खिलाफ प्रचार में ये हिंदू-मुस्लिम हीरे मोती, नायक-महानायक और वीरांगनाएं हमारे लिए बहुत ही कारगर हथियार हैं।
भारत की साझी संस्कृति और साझी विरासत को बचाने के लिए हमें इन हीरे मोतियों का इस्तेमाल करना चाहिए और साम्प्रदायिक ताकतों के झूठे प्रचार का भंडाफोड़ करना चाहिए। यह आज का सबसे महत्त्वपूर्ण काम है। आज तमाम जनवादी, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष ताकतों की जिम्मेदारी है कि इन जनविरोधी और देशविरोधी ताकतों का मिलजुल कर विरोध करें और जनता को सही इतिहास से अवगत कराएं। इसके लिए हम गोष्ठियों, सम्मेलनों, भाषणों और निबंध प्रतियोगिताओं का आयोजन करके जनता को शिक्षित, प्रशिक्षित और जागरूक कर सकते हैं। यही वर्तमान समय की सबसे बड़ी जरूरत है।