नरेंद्र मोदी सरकार के सात साल पूरा होने के मौके पर किसान-संगठनों ने जो राष्ट्रव्यापी काला-दिवस मनाया वह राजनीतिक विकल्प की जरूरत के बारे में हमसे कुछ कहता है। काला-दिवस मनाने में एक इशारा यह भी छिपा है कि ऐसा कोई राजनीतिक विकल्प कैसे उभर सकता है।
नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण करने के बाद से बीते सात सालों में उनकी सरकार जितनी अभी कमजोर दिख रही है उतनी पहले कभी नहीं रही। सत्ता का जो प्रभामंडल बना चला आ रहा था वो अब क्षीण और मलिन होने लगा है। मोदी-भंजकों को लग रहा है कि कोविड महामारी की दूसरी लहर से निपटने में भारी लापरवाही बरती गई- मरीजों की टेस्टिंग कम हुई, मौतों की संख्या कम करके बताई गई, तैयारी का अभाव रहा, ऑक्सीजन की किल्लत पैदा हुई और टीकाकरण का मोर्चा ढीला-ढाला साबित हुआ।
इन बातों के सहारे मोदी-विरोधी मानकर चल रहे हैं कि केंद्र सरकार ने महामारी की रोकथाम के काम में निर्दयता दिखाई। जो मोदी-भक्त हैं, उन्हें भी लग रहा है कि महामारी के इस भयावह वक्त में सरकार जैसी कोई शय जवाबदेही लेती दिखाई ही नहीं दी और इससे प्रधानमंत्री के सर्व-शक्तिमान होने का जो मिथक खड़ा किया गया था, उसकी चमक धूल-धूसरित हो गई है। मोदी-भक्तों के मन में शक की यह सूई अब चुभने लगी है कि प्रधानमंत्री के हाथ से चीजें महामारी की इस घड़ी में फिसलने लगी हैं और जितना ताकतवर वे जान पड़ते हैं, उतने हैं नहीं।
सर्व-शक्तिमान प्रधानमंत्री की जो छवि बड़े जतन से गढ़ी गई थी उसका भेद अब राजनीति के मैदान में भी खुलता जा रहा है। सीएए-विरोधी प्रदर्शनों से यह साबित हुआ कि कोई समूह भले छोटा मगर दृढ़ संकल्प वाला हो तो वो भी इस सरकार के खिलाफ मैदान में डटा रह सकता है।
किसान आंदोलन ने जता दिया है कि इस सरकार को कदम पीछे खींचने की हालत में लाया जा सकता है। पश्चिम बंगाल के नतीजों ने प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के चुनाव-जिताऊ कौशल की बखिया उधेड़ दी है। सात सालों तक बेरोक और बेलगाम शक्ति-संसाधन के बाद मोदी सरकार को उस सच्चाई का सामना करना पड़ रहा है जो हमेशा अधिनायकवादी शासकों को सताती आयी है- सत्ता ठहरती नहीं, फिसलती जाती है और परम सत्ता तो चरम गति से फिसलती है।
मोदी-भंजन से उनकी हार का रास्ता नहीं निकलने वाला
वक्त के इस मुकाम पर मोदी सरकार बहुत कुछ वैसी ही दिख रही है जैसा कि मनमोहन सिंह की सरकार अपनी दूसरी पारी में दिखी थी, इस सरकार के दिन 2012 से लदने शुरू हो गए थे। किसी को लग सकता है कि प्रधानमंत्री अपनी चमक गंवा चुके हैं और कुशासन तथा गड़बड़ियों को ढंकने के लिए झूठ का जो जाल बुना गया है, उसके बोझ तले सरकार भरभरा सकती है। विपक्ष को बस टकटकी बांधकर इंतजार करना होगा और कुछ एकजुटता दिखानी होगी।
लेकिन इस सोच में खतरा है। खतरा यह मान लेने में है कि मोदी सरकार के पतन के दिन अब शुरू हो गए हैं। खतरा विश्वास की इस गांठ को बांधकर चलने में है कि लोकतंत्र में बुनियादी तौर पर कुछ ऐसा होता है जो सरकार की सारी अधिकाई को समय रहते दुरुस्त कर लेता है और वक्त यह काम हमारे लिए भी कर दिखाएगा।
सच्चाई ऐसी सोच से कोसों दूर है। लोगों में मोदी सरकार को लेकर जो गुस्सा है उसे ज्यादा बढ़े-चढ़े रूप में देखना और इस सरकार को लेकर लोगों के एक हिस्से में जो समर्थन है, उसे कम करके आंकना अभी के लम्हे में एकदम सहज है। निश्चित ही लोगों में मोदी सरकार को लेकर व्यापक असंतोष, निराशा और रोष है लेकिन इसका जरूरी मतलब यह नहीं कि लोग मोदी सरकार को अभी के लम्हे में खारिज करने की मनोदशा में पहुंच गए हैं।
अब भी ऐसे लोगों की एक बड़ी तादाद मौजूद है जो सत्ताधारी पार्टी को समर्थन देने के लिए तैयार हैं, चाहे उसके शासन-प्रशासन का रिकार्ड कितना भी बुरा क्यों ना हो। जो बाकी लोग हैं, उनके मन में अभी के लम्हे में असंतोष तो है लेकिन आगे बहुत संभव है कि वह इस हद तक ना बढ़ पाए कि एकदम से दुराव में बदल जाए और मतदाता के रूप में वे हर हाल में सत्ताधारी दल से पीछा छुड़ाने की ठान लें।
अब मामला यहां चाहे जो भी हो, विपक्षी दलों के नेताओं के हाथ मिला लेने का दृश्य मतदाताओं को उत्साहित करने से रहा, यह भी हो सकता है कि विपक्षी दलों के नेताओं को एकजुट होता देख वे सोचें कि पूरी की पूरी टोली एक आदमी के खिलाफ उठ खड़ी हुई है।
इससे इतर यह भी संभावना है कि मोदी सरकार अपने ऊपर हो रही चोट के जवाब में हमलावर रुख अख्तियार करे। वक्त के इस मुकाम पर हमसे गलती हो सकती है, सत्ता-प्रतिष्ठान के हाथ में दुष्प्रचार की जो ताकत है, उसे हम कम आंक कर चलने की गलती कर सकते हैं। बातों की फिरकी घुमाने में माहिर सत्ताधारी दल के स्पिन डॉक्टर्स बस इंतजार में हैं कि कैसे भी यह तूफान गुजर जाए और वे सत्ताधारी पार्टी के दोषों का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने के अपने खेल को फिर से शुरू करें, लोगों का ध्यान भटकाने के अपने जतन में जुट जाएं, कुछ ऐसा करें कि लोग वास्तविक मुद्दों को देखने से रह जाएं
यों समझिए कि ये स्पिन-डॉक्टर्स घात लगाए बैठे हैं कि कब मौका मिले और वे चुनौती दे रहे लोगों पर अपना घातक हमला बोल दें। सत्ताधारी पार्टी की तरफ से बातों की फिरकी घुमानेवाले इन स्पिन डॉक्टर्स की रची कथाओं को धनबल, मीडिया बल और संगठन की मशीनरी के सहारे हजार-हजार मुंह से बार-बार और जोर-जोर से बोलकर लोगों को सुनाया जाएगा। एक बात पक्की है : मनमोहन सिंह के विपरीत प्रधानमंत्री मोदी अफसाने के अंजाम तक पहुंचने से पहले अलविदा नहीं कहने वाले, वे अपने पाले में मौजूद तमाम तरह के तीर और नश्तर का इस्तेमाल करेंगे चाहे ऐसा करना जायज हो या नजायज।
एक बात बिल्कुल साफ है : मोदी ने चाहे जितनी भारी गलती की है, मोदी-भंजन का राग छेड़े रहने से उनकी हार की जमीन तैयार नहीं होने जा रही। लोग एक राह को छोड़ने से पहले विकल्प देखते हैं कि कोई दूसरी राह सामने मौजूद है या नहीं। और, अभी के समय की एक कड़वी सच्चाई है कि दरअसल कोई विकल्प बन नहीं पाया है, कम से कम इस रूप में तो नहीं ही बन पाया है कि आम इंसान नजर उठाकर देखे और उसे वो विकल्प नजर आ जाए। इसका मतलब यह नहीं कि हमारे लोकतंत्र में कहीं कोई विपक्षी पार्टी ही नहीं बची या फिर विपक्षी दलों के एकजुट होने की जरूरत नहीं है।
विपक्षी दलों का एकजुट होना जरूरी है लेकिन सिर्फ इतना भर काफी नहीं। कोई एक सूत्र होना चाहिए, जो विपक्षी दलों के आपसी भेद को मिटाकर उन्हें एक में पिरो दे और इस एकता को एक आभा भी चाहिए जो लोगों में विश्वास जगा सके। अभी के लम्हे में ये दोनों बातें गायब हैं। इसी कारण हमें मौजूदा विपक्ष के पूरक के तौर पर एक विकल्प चाहिए।
भावी समय के लिए एक वैकल्पिक मॉडल
मोदी के विकल्प के तौर पर भावी समय के लिए मॉडल सुझाया जाए तो इसकी पहली जरूरत होगी भारत के भविष्य को लेकर एक विश्वसनीय और सकारात्मक संदेश। बीते वक्त में क्या-क्या बुरा हुआ, लोग यह सुनते तो हैं लेकिन एक सीमा तक ही। वे उसे सतत सुनते रहना नहीं चाहते, वे जानना चाहते हैं कि भविष्य में चीजें कैसे बेहतर हो सकती हैं। सो इस बार आप कोरे स्वप्न और जुमलेबाजी से काम नहीं चला सकते।
लोग एक बार ऐसे झूठे स्वप्न और जुमलेबाजी से धोखा खा चुके हैं, सो अब वे कुछ ऐसा सुनना-देखना चाहते हैं जो ठोस और विश्वास के काबिल हो। यह संदेश सर्वजन के लिए होना चाहिए और भरोसा जगाने वाला होना चाहिए। लेकिन अभी ऐसा कोई संदेश मंज़र-ए-आम पर आया नहीं है। गुजरी बीसवीं सदी की विचारधाराओं को निचोड़कर यह संदेश नहीं बनाया जा सकता। बीते युग की पुरानी विचारधाराओं की भाषा आज के भारत में कारगर नहीं। संदेश नया होना चाहिए, नए विचारों, नीतियों और नजरिए से लैस।
एक बार ऐसा सकारात्मक और भरोसेमंद संदेश मिल जाता है तो फिर इस संदेश को लोगों तक पहुंचाने के लिए भरोसा जगा सकने लायक संदेशवाहकों की जरूरत होगी। चलताऊ किस्म के राजनेताओं की बातों में जो वजन होता है, उससे काम नहीं चलने वाला बल्कि ऐसे संदेशवाहकों में नेताओं की रोजमर्रा की बातों से कहीं ज्यादा दम-खम होना चाहिए।
विपक्ष का खेमा इस मामले में भी खाली ही है। हमारे पास आज कोई जेपी यानी जयप्रकाश नारायण सरीखा नहीं है। लेकिन साथ ही, यह भी दिखता है कि भारत का सार्वजनिक जीवन-जगत ऐसे नेताओं से खाली नहीं जो निस्वार्थ भाव से जनसेवा में लगे हैं, ईमानदार और बुद्धिमान हैं। ऐसे नेताओं में से कुछ को ऐतिहासिक जरूरत के इस वक्त अपने कदम आगे बढ़ाने चाहिए।
इस सिलसिले की आखिरी बात यह है कि हमें एक ताकतवर मशीनरी की जरूरत होगी जो इस संदेश को पूरे देश में ले जा सके। ऐसी मशीनरी में दो हिस्सों की जरूरत है : एक तो संगठन और दूसरा संचार।
आज, विपक्ष का जो दायरा है इसके भीतर ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन दो मामलों में बीजेपी के पासंग बराबर भी बैठे। बेशक, बहुत से विपक्षी दलों के पास उनका कैडर है। इस नाते विकल्प गढ़ने के लिए मौजूदा विपक्षी दलों को साथ लेना जरूरी है। लेकिन इतना भर पर्याप्त नहीं है। अगर विकल्प नया गढ़ना है तो फिर ऐसे विकल्प के लिए बड़े पैमाने पर नागरिकों की लामबंदी की जरूरत है, जिसमें नई पीढ़ी के नागरिक जो अभी तक राजनीतिक हलके से बाहर हैं, ज्यादा से ज्यादा तादाद में हों।
मौजूदा चुनौती का सामना करने के लिए राजनीतिक जीवन का नई ऊर्जा से लबरेज होना जरूरी है। संवाद-संचार की एक ताकतवर मशीन जिसकी आईटी टीम बीजेपी की टीम के टक्कर की हो, हरचंद जरूरी है ताकि वो जमीनी स्तर के संगठन को मदद मुहैया कर सके। जरूरी है कि भारत में एक सत्य-वीरों की सेना (ट्रुथ आर्मी) हो जो आरएसएस-बीजेपी के ट्रोल-वीरों का मुकाबला कर सके।
जो लोग भारत की संकल्पना (आइडिया ऑफ इंडिया) में यकीन करते हैं, जिनका हमारे संविधान के मान-मूल्यों पर विश्वास है, जो लोकतंत्र की हो रही दुर्गति को देखकर निराश हैं और जो इस गणराज्य को बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, उनके सामने अभी के समय का सबसे जरूरी राजनीतिक कार्य आन खड़ा है कि वे ऐसे सकारात्मक और व्यावहारिक विकल्प को साकार करें।
वक्त आह्वान कर रहा है, क्या कोई इस आह्वान को सुनकर आगे आएगा? अगर हां, तो फिर यह प्रक्रिया आगे क्या शक्ल लेगी? अभी हमारे पास इसका उत्तर नहीं है लेकिन 26 मई को जो काला दिवस मनाया गया, उससे एक संकेत मिलता है : किसान आंदोलन ने आगे-आगे चलकर राह दिखाई है, इसके बाद मजदूर-संगठन और अन्य संगठन आगे आए और इनके पीछे राजनीतिक दलों ने अपना समर्थन जाहिर किया। क्या यह भविष्य के लिए आकार लेता एक मॉडल है?