आज देश में एक निर्वाचित सरकार है फिर भी जनसाधारण लाचार है। चारों तरफ बाजार है लेकिन बेलगाम मंहगाई की मार है। मुट्ठी भर लक्ष्मीपुत्रों की बेमिसाल तरक्की को छोड़कर हर स्तर पर रोजगार और कमाई के साधन तेजी से घट रहे हैं और हालात में बेहतरी के फिलहाल कोई आसार नहीं दिख रहे। गाँव-शहर में सब तरफ लाचारगी का हाहाकार बढ़ रहा है लेकिन जिम्मेदार सरकार का अभाव है। सच कहने को बगावत समझा जाने लगा है। भय के भूत ने चारो तरफ अपनी बाँहें फैला दी हैं। इससे नीचे से ऊपर तक झूठ और झांसे का व्यापार है। पूरा देश एक भयानक सच जी रहा है और इसे सपना मानने के भुलावे में है। सत्ता-प्रतिष्ठान के इर्द-गिर्द सारा दोष अब से पहले की सभी सरकारों के नाम लिखनेवालों की भीड़ जमा है। दूसरी तरफ, सत्ता-वंचित लोगों के झुण्ड इस सब की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ सत्ताधारी जमात और उसके समर्थकों पर डालकर शीघ्र सत्ताधारी बनने के सपने बुनने में लगे हैं।
इस माहौल में देश का बहुमत यानी चालीस बरस से नीचे की उमर वाले अपने आसपास के आयुगत अल्पसंख्यकों (साठ बरस से अधिक उम्र वाले सरोकारी स्त्री-पुरुषों से) से पूछते हैं कि क्या आपने इससे पहले कभी ऐसी गैर-जिम्मेदार सरकार और इतनी लाचार जनता का ऐसा संयोग-दुर्योग देखा था? क्या आज से पांच दशक पहले, जून 1975 के हालात ऐसे ही थे? क्या तब के सर्वशक्तिमान शासकों ने भी अपने को सुधारने की आवाजों की अनसुनी की? चापलूसों की जय-जयकार के बीच आलोचकों को देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए कैदखानों में बंद किया और 19 महीने के लिए लोकतंत्र की मशाल को बुझाकर सारे देश को अँधेरे में जीने के लिए धकेल दिया था? सच कहिएगा!
यह सही है कि हम 1975-77 के आपातकाल के साक्षी हैं। तब की प्रबल प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इमरजेंसी राज के भुक्तभोगी भी रहे हैं। मेरी दो बहनों ने और बाकी परिवार ने मुझसे भी ज्यादा आगे बढ़कर उस संकट का सामना किया। इकहत्तर बरस की उम्र के बावजूद हमारी याददाश्त सही-सलामत है इस वजह से तब और अब की तुलना करना कठिन नहीं होगा। लेकिन अपनी कहने के बजाय हम तब के माहौल का अंदाजा लगाने के लिए देश के तीन शीर्ष कवियों की कविताओं की कुछ लाइनें लिखना चाहेंगे। तब मैं समाजवादी युवजन सभा का सक्रिय सदस्य और सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन में हिस्सेदार था इसलिए मेरी बात में निष्पक्षता की समस्या हो सकती है।
बाबा नागार्जुन की कविता में 1974-77 के सत्ताधीश का वर्णन है। धर्मवीर भारती की कविता सरकार के अंदाज़-ए-हुकूमत का विवरण देती है। दुष्यंत कुमार के अमर गीत में आन्दोलनकारियों की मानसिकता का चित्रण प्रस्तुत है :
बाघिन / नागार्जुन (1974)
लम्बी जिह्वा, मदमाते दृग झपक रहे हैं
बूंद लहू के उन जबड़ों से टपक रहे हैं
चबा चुकी है ताजे शिशु मुंडों को गिन-गिन
गुर्राती है, टीले पर बैठी है बाघिन।
पकड़ो, पकड़ो अपना मुंह आप न नोचे
पगलायी है, जाने, अगले क्षण क्या सोचे!
इस बाघिन को हम रखेंगे चिड़ियाघर में
ऐसा जंतु मिलेगा भी क्या त्रिभुवन में।
मुनादी (लम्बी कविता के कुछ हिस्से) / धर्मवीर भारती
(9 नवम्बर 1974)
खल्क खुदा का मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का
हर खासो आम को आगाह किया जाता है कि
खबरदार रहें
और अपने अपने किवाड़ों को अंदर से कुण्डी चढ़ाकर बंद कर लें गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बाहर सड़क पर बच्चों को न भेजें
क्योंकि एक बहत्तर साल का बूढ़ा
अपनी कांपती कमज़ोर आवाज़ में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है ….
हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए / दुष्यंत कुमार
(कुछ अंश)
हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
अब 26 जून 1974 के इस आईने में 26 जून 2021 की शकल-सूरत कैसी दीखती है? वस्तुत: अनेकों समानताएं गिनायी जा सकती हैं। फिर तब और अब के बीच के फरक को भी देखना-समझना होगा।
एक, तब देश में मंहगाई, बेरोजगारी, दिशाहीन शिक्षा व्यवस्था और ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार को लेकर व्यापक असंतोष था। आज दवाई-कमाई-पढ़ाई-महंगाई को लेकर व्यापक निराशा है।
दूसरे, प्रधानमन्त्री की व्यक्तिपूजा, केन्द्र सरकार में प्रधानमन्त्री कार्यालय का बढ़ता वर्चस्व, सत्ता का केन्द्रीकरण और प्रभावशाली विपक्ष का अभाव, दोनों दौर के एक जैसे महादोष हैं।
तीसरे, तब की तरह आज भी ‘सरकारी प्रचार’ और ‘वास्तविक समाचार’ का भेद ख़तम करने की व्यापक प्रवृत्ति है। लेकिन तब आकाशवाणी और दूरदर्शन का दुरुपयोग किया जाता था जबकि आजकल समूचे मीडिया की नियमित निगरानी की बीमारी है। तब अंग्रेजी अखबारों का असर कम हुआ था और अब ‘गोदी मीडिया’ की प्रामाणिकता ख़तम हो गयी है।
चौथे, तब कार्यपालिका और न्यायपालिका पर केन्द्रीय शासन का दबाव बढ़ने की चौतरफा आलोचना थी। आज भी यह दोष चिंता का मुख्य विषय है।
पाँचवें, शासन व्यवस्था में पारदर्शिता का अभाव बढ़ने से तब सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं (जैसे यूथ कांग्रेस) का ‘बिचौलियों’ के रूप में बोलबाला था। अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों से जुड़े कई व्यक्तियों ने यह भूमिका ले ली है।
छठे, 1971-’74 के बीच सरकार के वायदों (गरीबी उन्मूलन) और कामों में लगातार फासला बढ़ने से सत्ता-प्रतिष्ठान की साख में भारी गिरावट हुई। जन-आन्दोलनों की लहरें बनीं। जैसे रेल हड़ताल, पुलिस विद्रोह (उत्तर प्रदेश), नवनिर्माण आन्दोलन (गुजरात) और सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन (बिहार)। इधर 2014 और 2020 के बीच ‘अच्छे दिन’ के आश्वासन के विपरीत आर्थिक अवरोध, राजनीतिक उत्पीड़न और नीतिगत असफलता के कारण मोहभंग का माहौल हो गया है। जैसे नागरिकता कानून संशोधन विरोध, किसान आन्दोलन, ट्रेड यूनियनों के प्रदर्शन, विश्वविद्यालयों में विद्यार्थी असंतोष, आदि।
सातवें, तब प्रगतिशीलता के दावे के साथ प्रतिपक्षियों को पस्त किया गया और विरोधी दलों को ‘प्रतिक्रियावादी’ प्रचारित किया गया। मीसा और भारत रक्षा कानून के अंतर्गत बंदी बनाया गया। अंतत: इमरजेंसी लागू करके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, माओवादियों और आनन्दमार्गियों समेत 26 संगठनों को प्रतिबंधित किया गया। आजकल सरकार समर्थकों द्वारा राष्ट्रभक्ति की दावेदारी है और प्रतिपक्षियों को ‘देशद्रोही’ कहकर निन्दित किया जा रहा है। ‘गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून’ (यूएपीए) के जरिये वामपंथियों, लिबरल और सेकुलर व्यक्तियों व संगठनों का उत्पीड़न किया जा रहा है।
अब यह जानना जरूरी है कि इमरजेंसी काल में और आज की स्थिति में क्या-क्या फर्क हैं? राजनीति, अर्थ-व्यवस्था, सामाजिक जीवन और राष्ट्रीय सुरक्षा की क्या दशा है? इस प्रसंग में कम से कम सात बातें आँख के आगे से नहीं हट रही हैं।
एक, तब जयप्रकाश नारायण जैसे निष्पक्ष और निर्मल राष्ट्रीय व्यक्तित्व का नैतिक नेतृत्व था। सर्वोदय आन्दोलन की सात्विकता थी। ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का लक्ष्य था। आज जेपी जैसा कोई नहीं है। दूसरी तरफ, दलीय व्यवस्था परिवारवाद और काले धन के दो पाटों में फंस चुकी है। इससे अधिकांश नेताओं और दलों की साख घटी है। राजनीतिक दोषों को दूर करने की जरूरत के बावजूद चुनाव पद्धति और दल-व्यवस्था में सुधार के बारे में आत्मघाती उदासीनता है।
दूसरे, इमरजेंसी राज के दौरान आज की तरह वित्तीय पूंजी और सांप्रदायिक शक्तियों का राज्यसत्ता पर खुला कब्जा नहीं था। मुट्ठीभर देशी अरबपतियों के अलावा हर वर्ग नुकसान में है। केंद्र सरकार के नए कानूनों के विरोध में किसानों के अभूतपूर्व धरने और मजदूर संघों की बढ़ती एकता से सरकार की साख घटी है। चुनावों से लेकर प्रशासन और शिक्षा केंद्रों तक साम्प्रदायिकता का चौतरफा विस्तार होने से मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों में असुरक्षा भाव पनपता जा रहा है। इसने अस्मिता की राजनीति और सामाजिक न्याय के अभियान को नया जीवन दिया है।
तीसरे, अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल-डीजल के दामों में बेतहाशा उछाल के बावजूद इमरजेंसी राज के दौरान वैश्विक पूंजीवादी शक्तियों की भारतीय अर्थव्यवस्था में सीमित भूमिका थी। आज हमारा बाजार और व्यापार खतरनाक हद तक अंतरराष्ट्रीय पूंजीपतियों के दबाव में है। सरकार की तरफ से वैश्वीकरण से जुड़ने की योजनाओं की विफलता के कारण ‘आत्मनिर्भरता’ की ओर मुड़ने की कोशिश का कोई असर नहीं है।
चौथे, पाकिस्तान युद्ध में विजय और बांग्लादेश के बनने से राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में पूरी निश्चिंतता थी। जम्मू-कश्मीर में इंदिरा-शेख अब्दुल्ला समझौते के कारण आशा का नया संचार था। आज डोकलाम से लेकर गलवान घाटी तक समूचा हिमालय क्षेत्र और श्रीलंका से लेकर आस्ट्रेलिया तक हिन्द महासागर क्षेत्र चीनी सेना के दबाव में है। जम्मू-कश्मीर राज्य के विघटन से कश्मीर घाटी में अविश्वास गहराया है और हमारी सरहदें असुरक्षित हुई हैं।
पांचवें, लोकतंत्र के नाम पर संविधान की उपेक्षा, बहुसंख्यावाद का आतंक, संघीय ढांचे पर प्रहार और संसदीय प्रणाली का अवमूल्यन नहीं था। गाँव-सरकार और जिला सरकार की दिशा में बढ़ने की अनिवार्यता के बारे में चौतरफा चुप्पी है। असल में तब नयी दिल्ली की पुरानी दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, भुवनेश्वर, कोलकाता, चण्डीगढ़, जयपुर और रायपुर में केंद्र के गठबंधन के बाहर के दलों की सरकारों के होने के कारण आज जैसी दूरियां नहीं थीं। इससे चारों तरफ तनाव और सतर्कता का माहौल हो चुका है।
छठे, कोरोना महामारी के घातक परिणामों के कारण देश के जनसाधारण से लेकर दुनिया के देशों में मोदी के नेतृत्व और केन्द्र सरकार की साख में काफी हद तक गिरावट आयी है। दूसरी तरफ स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल करते हुए देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को सभी के लिए सहज-सुलभ बनाने की राष्ट्रीय मांग का उदय हुआ है। बिना जीवन रक्षा और जीवन निर्वाह के सार्वजनिक प्रबंधन में आमूल बदलाव के सरकार की साख बेहतर नहीं होनेवाली है।
सातवें, तब सभी दलों के बारे में व्यापक मोहभंग था। लेकिन आज केन्द्र सरकार को चला रहे भारतीय जनता दल के नेतृत्ववाले एनडीए से जुड़े दलों के अतिरिक्त सभी दलों के बारे में अप्रत्याशित आशावाद है। जबकि भाजपा के अंदर और इससे जुड़े दलों में परस्पर दूरियां और अविश्वास बढ़ता जा रहा है। जैसे शिव सेना, अकाली दल, जनता दल (यू), लोक जनशक्ति पार्टी आदि। यह सच चौंकाने वाला है। क्योंकि इससे आनेवाले दिनों में होनेवाले प्रादेशिक और राष्ट्रीय चुनावों के जरिये सत्ता परिवर्तन की संभावना प्रबल हो सकती है।
इमरजेंसी राज और आज के हालात की इस चर्चा से सहभागी लोकतंत्र की वैकल्पिक राजनीति की रचना में जुटे लोगों के सामने क्या रास्ता दीखता है? संभवत: फैज़ अहमद ‘फैज़’ ने हमारे लिए नीचे की लाइनें लिख छोड़ी हैं :
दिल नाउम्मीद नहीं, नाकाम ही तो है।
लम्बी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।