— सत्येन्द्र रंजन —
(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा)
लेकिन इस बात को दोहराने की जरूरत है कि सोवियत संघ का विघटन और सोवियत व्यवस्था का भरभरा कर गिर पड़ना अवश्यंभावी नहीं था। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वैचारिक या विचारधारात्मक रूप से सोवियत संघ पहले ही भटकाव का शिकार हो चुका था। किसी समाज की अर्थव्यवस्था जब विकसित होती है, तो उसके साथ मध्य वर्ग और प्रबंधकीय वर्ग का उदय होता है। यह वर्ग अपने स्वभाव में सुविधाभोगी होता जाता है। अगर उन लोगों पर किसी विचारधारा का प्रभाव ना हो अथवा यह कहें कि उन्हें किसी विचारधारा में सघन प्रयास से दीक्षित नहीं किया गया हो, तो अपने वर्ग चरित्र के हिसाब से ये तबके श्रमिक वर्ग के विरोधी होते चले जाते हैं। धीरे-धीरे वे अपना हित शासक वर्ग से जुड़ा देखने लगते हैं।
एक भूमंडलीकृत (ग्लोबलाइज) होती दुनिया में दुनिया भर के ऐसे तबके अपने हित वैश्विक शासक वर्ग से जुड़ा देखने लगते हैं। इस नजरिए से स्वाभाविक रूप से समाजवाद और साम्यवाद उत्पीड़क विचार और सिस्टम दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि इस विचार और सिस्टम में सबको समान समझने और बराबरी लाने की अंतर्निहित प्रेरणा होती है।
चीन में माओ दे दुंग ने इस बात को समझा था। इसीलिए उन्होंने क्रांति के अंदर क्रांति (रिवोल्यूशन विदिन रिवोल्यूशन) की बात कही थी। यानी उन्होंने क्रांति को सतत प्रक्रिया माना था। ऐसी प्रक्रिया जो किसी जगह पर जाकर पूर्ण या समाप्त नहीं होती। द्वंद्ववाद (डायलेक्टिक्स) की भी असल में यही शिक्षा है।
सोवियत संघ में इस बात को न सिर्फ भुला दिया गया, बल्कि वहां खुद अपनी उपलब्धियों को लांछित किया गया। निकिता ख्रुश्चेव के युग में जब जोसेफ स्टालिन की विरासत से सोवियत संघ ने अपने को अलग किया, तो उसका यह भी मतलब था कि स्टालिन के दौर तक की तमाम उपलब्धियों पर भी परदा डाल दिया गया। साथ ही इससे सोवियत जनता के एक बड़े हिस्से में भ्रम पैदा हुआ। अगर खुद सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अक्टूबर क्रांति (1917) के पहले 35 वर्ष के इतिहास को बदनाम करने पर तुले हुए थे, तो लोगों में पूरे कम्युनिस्ट दौर को लेकर भ्रामक स्थिति बनना लाजिमी ही था।
सोवियत संघ क्यों बिखरा? इस सवाल पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव शी जिनपिंग ने जो समझ रखी, उस पर ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है। शी ने ये बात 2013 में पार्टी का महासचिव बनने के बाद अपने एक भाषण में कही थी।
उन्होंने कहा-
‘सोवियत संघ क्यों बिखरा? सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी खंड-खंड क्यों हो गई? इसका महत्त्वपूर्ण कारण विचारधारात्मक क्षेत्र में छिपा है। वहां सोवियत यूनियन के ऐतिहासिक अनुभव का पूरी तरह से परित्याग करने की होड़ लग गई, लेनिन का परित्याग करने और स्टालिन का परित्याग करने की इस होड़ से सोवियत विचारधारा में अफरातफरी मच गई। समाज ऐतिहासिक नकारवाद (निहिलिज्म) में उलझ गया। इससे हर स्तर पर पार्टी संगठन ऐसा हो गया कि वह शायद ही कोई काम करने योग्य बचा। इससे सेना का नेतृत्व करने की पार्टी की क्षमता क्षीण हो गई। अंतिम परिणाम यह हुआ कि सीपीएसयू (सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी) जो एक महान पार्टी थी, भयभीत जानवरों की तरह बिखर गई। सोवियत संघ जो एक महान देश था, वह दर्जनों टुकड़ों में बंट गया। अतीत का यही सबक है।’
इसके बाद शी ने देंग श्य़ाओ फिंग को उद्धृत करते हुए कहा- ‘कॉमरेड देंग श्याओ फिंग ने ध्यान दिलाया था कि माओ दे दुंग विचार (थॉट) का परित्याग नहीं किया जा सकता। उस बैनर को छोड़ने का मतलब (चीनी कम्युनिस्ट) पार्टी के गौरवशाली इतिहास को नकारना होगा। सामान्य रूप से कहें, तो पार्टी आज भी गौरवशाली है। हालांकि हमारी पार्टी ने कुछ बड़ी गलतियां की हैं जिनमें सांस्कृतिक क्रांति जैसी बड़ी गलती भी है, लेकिन अंततः हमारी पार्टी ने क्रांति को सफल बनाया है।’
सांस्कृतिक क्रांति (1966-76) चीन के इतिहास का एक विवादास्पद अध्याय है। देंग और शी ने उसे बड़ी गलती माना है, जबकि बहुत से लोग उसे उपलब्धियों से भरा एक ऐसा दौर मानते हैं, जिसमें गलतियां भी हुईं। लेकिन यहां मुद्दा वह नहीं है। यहां काबिल-ए-गौर बात पार्टी के पूरे इतिहास को आत्मसात करने और स्वीकार करने की है। इसका परिणाम है कि आज चीनी समाज में वैसा कोई वैचारिक भ्रम नहीं है, जैसा सोवियत संघ में 1953 के बाद बढ़ता चला गया। माओ का नाम लेना चीन में जुर्म नहीं है, बल्कि पूरी पार्टी और पूरा देश उन्हें गर्व और आदर से याद करता है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने देश को समृद्धि और मजबूती की तरफ ले जाते हुए आज अगर खुद भी मजबूत और लोकप्रिय बनी हुई है, तो उसके पीछे इस बात की भी बड़ी भूमिका है।
तो कुल मिलाकर सबक क्या है? सबक यह है कि कोई संगठन विचारधारा की शक्ति से चलता है। अगर अपनी विचारधारा के प्रति वह आस्थावान है, तो पूरे समाज को वह आस्थावान बनाए रखने में सक्षम होता है। वह ऐसा नैरेटिव समाज में पेश करने में सफल रहता है, जिससे लोग उसकी उपलब्धियों और खूबियों की तरफ देख सकें।
चीनी समाज में जो प्रयोग वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने किए हैं, उसके कई दुष्परिणाम आज चर्चित हैं। मसलन, बढ़ी गैर-बराबरी और उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव को किसी रूप में समाजवादी भावना के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। लेकिन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इसे इस रूप में पेश करने में अब तक कामयाब है कि ये उसके ‘चीनी स्वभाव के समाजवाद’ के बड़े प्रयोग के साइड इफेक्ट हैं, जिनसे वह निपटने का इरादा रखती है।
वह सचमुच ऐसा कर पाएगी या नहीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। मुमकिन है कि किसी दिन चीन में भी पॉलिटिकल नैरेटिव पर से कम्युनिस्ट पार्टी की कमान उसी तरह फिसल जाए, जैसा सोवियत संघ में हुआ था। लेकिन अगर सिर्फ सात दशक के अनुभव की बात करें, तो यही कहा जा सकता है कि इतनी अवधि में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी अनेक उपलब्धियों और खूबियों के बावजूद विचारधारात्मक धरातल पर पराजित हो चुकी थी, जबकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी फिलहाल अपराजेय दिख रही है।
सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सामने भी कार्ल मार्क्स की ये शिक्षा थी कि पूंजीपति आर्थिक शोषण सिर्फ अपनी भौतिक ताकत के बल पर नहीं करते। बल्कि अपने वर्गीय विचारों और उसूलों को समाज पर थोप कर शोषित वर्गों में अपने शासन के लिए सहमति बनाए रखते हैं। फ्रेडरिक एंगेल्स ने इसे ‘असत्य चेतना’ (फाल्स कांशसनेस) कहा था। उन्होंने कहा था कि असत्य चेतना श्रमिक वर्ग को अपने उत्पीड़न की पहचान करने और उसे ठुकराने से रोके रखती है।
बीसवीं सदी में इटली के मशहूर कम्युनिस्ट विचारक एंतोनियो ग्राम्शी ने ‘हेजिमनी ऑफ आडियाज’ यानी सोच के वर्चस्व की व्याख्या भी इसी रूप में की थी कि शासक वर्ग सिविल सोसायटी में अपने हितों, मान्यताओं और उसूलों को लेकर ऐसी सहमति गढ़ लेता है, जिससे शोषित तबके को उस सिस्टम में कोई बुराई नजर नहीं आती। इन सभी व्याख्याओं का निष्कर्ष यह है कि उच्चतर आदर्श वाली किसी व्यवस्था की स्थापना और उसके संचालन के लिए जरूरी है कि समाज में वैचारिक संघर्ष लगातार जारी रखा जाए।
कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट पार्टियों का अस्तित्व और उनकी सफलता इसपर ही निर्भर है कि ऐसे संघर्ष के जरिए अपनी विचारधारा को वे कैसे और कब तक आम जन की परिकल्पनाओं का हिस्सा बनाए रख पाती हैं। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी आरंभिक दशकों के बाद इस काम में पिछड़ती चली गई। नतीजा दुनिया ने देखा। लेकिन बाद की पीढ़ियां उससे यह सबक ले सकती हैं कि वैचारिक आस्था, उसपर आधारित नैरेटिव, और उसके हक में संघर्ष से ही वह समाज बनाया जा सकता है, जो क्रमिक रूप से बराबरी की ओर बढ़ते हुए सबके लिए न्याय को सुनिश्चित कर पाए।
(समाप्त )