— शशि शेखर प्रसाद सिंह —
आपातकाल के बाद 1977 में केंद्र में नवनिर्मित जनता पार्टी की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल में भारत के प्रेस की भूमिका संबंध में टिप्पणी करते हुए कहा था कि उनसे घुटने के बल झुकने के लिए कहा गया था और वो पूरी तरह से लेट गए…। आज देश में आपातकाल घोषित नहीं और न सरकार द्वारा घोषित सेंसरशिप है फिर भी भारतीय जन संचार माध्यम चाहे प्रेस हो या टीवी चैनल, अधिकांश ने डर से, लालच से या कॉरपोरेट पूंजी के सांस्थानिक नियंत्रण के कारण जनतंत्र के प्रहरी की अपनी भूमिका भुला दी है।
विगत कुछ वर्षों से भारतीय जन संचार माध्यमों ने मोदी सरकार और कॉरपोरेट पूंजी के नापाक गठजोड़ के कारण जनतंत्र में स्वतंत्र तथा निर्भीक जन संचार माध्यम की अवधारणा पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। एक तरफ मोदी सरकार मीडिया के द्वारा सरकार की नीतियों की किसी आलोचना को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं, तो दूसरी तरफ कॉरपोरेट के मीडिया संस्थानों पर बढ़ते एकाधिकारवादी आर्थिक नियंत्रण के कारण स्वतंत्र पत्रकारिता लगभग असंभव सी हो गयी है।
ऐसी खबरों की कोई कमी नहीं जहाँ केंद्र सरकार के दबाव के कारण समाचार पत्र और निजी नियंत्रण वाले टीवी चैनलों से पत्रकार नौकरी से निकाल दिये जाते हैं- पुण्य प्रसून वाजपेयी, अभिसार शर्मा, कई उदाहरण सामने हैं। इतना ही नहीं, ऐसे स्वतंत्र पत्रकारों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें यूएपीए या राजद्रोह कानून के अंतर्गत जेलों में डाल दिया जाता है।
भाजपा सरकार/सरकारों के कट्टर समर्थकों या कट्टर धार्मिक संगठनों के द्वारा लगातार विचार और अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध लगाने के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता में विश्वास करनेवाले पत्रकारों को हिंसक तरीके से डराया-धमकाया जाता है, उनपर हिंसक हमले भी किये जाते हैं। पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या को दुनिया जानती है।
इधर देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर बढ़ते हमले तथा जन संचार माध्यमों की घटती स्वतंत्रता तथा विश्वसनीयता के कारण दुनिया की नजरों में भारतीय जनतंत्र की छवि लगातार धूमिल होती जा रही है। कुछ दिनों पूर्व देश के प्रसिद्ध हिंदी समाचार पत्र दैनिक भास्कर के विभिन्न कार्यालयों पर सरकारी एजेंसियों का छापा इसी सिलसिले की एक और कड़ी था।
कभी अखबार की ताकत के विषय में प्रसिद्ध उर्दू शायर अकबर इलाहाबादी का एक शेर पढ़ा था –
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो!
ब्रिटिश राज के विरुद्ध तिलक, गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी आदि की स्वतंत्र तथा निर्भीक पत्रकारिता को याद करके आज के अधिकांश पत्रकारों को अखबार से लेकर टीवी चैनल पर सत्ता की भक्ति करते देखकर उनपर शर्म आने लगती है भले उन्हें शर्म नहीं आती।
यद्यपि स्वतंत्र जन संचार माध्यम का जनतंत्र में कोई बेहतर विकल्प नहीं किंतु जन संचार माध्यम की स्वतंत्रता के लिए राज्य या पूंजी के नियंत्रण से मुक्त वैकल्पिक जन संचार माध्यम जरूरी है।
जनतंत्र में मतदाता क्या चाहता है
भारत दुनिया का विशालतम जनतंत्र है। स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर के जन संचार माध्यमों के द्वारा दी गयी सूचनाओं पर जनता/मतदाताओं की निर्भरता रहती है। जनतंत्र में सूचित, सचेत तथा सक्रिय नागरिक जनतंत्र को मजबूत और जन प्रतिनिधियों तथा सरकार को उत्तरदायी बनाता है। इस प्रक्रिया में जन संचार माध्यम की भूमिका अहम होती है। प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक तथा अमरीका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफ़रसन ने एक बार कहा था कि अगर जानकार नागरिक लोकतंत्र की आधारशिला है तो समाचार पत्र को बचाना बहुत जरूरी है। अतः जनतंत्र में जन संचार माध्यम की आवश्यकता और उसकी उपादेयता से तो कोई इनकार ही नहीं कर सकता किंतु जन संचार माध्यमों की स्वतंत्रता तथा निष्पक्षता कैसे सुनिश्चित हो यह विचारणीय सैद्धांतिक प्रश्न तो है।
जन संचार माध्यम की स्वतंत्रता
जन संचार माध्यमों की स्वतंत्रता तथा निष्पक्षता के लिए आवश्यक है कि ये राज्य के नियंत्रण से मुक्त हों क्योंकि जनतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार भी राज्य के नियंत्रण वाले जन संचार माध्यम का इस्तेमाल सरकार की लोकप्रिय छवि के निर्माण व नीतियों के प्रति जन समर्थन जुटाने के लिए राजनीतिक हथियार के रूप में कर सकती है और विपक्ष की छवि जनता में खराब करने के लिए इसका दुरूपयोग कर सकती है। चूंकि जन संचार का कोई वैकल्पिक माध्यम उपलब्ध नहीं होता इसलिए राज्य नियंत्रित जन संचार के द्वारा दी गयी सूचना ही सत्य मान ली जाती है।
अमरीकी राजनीति विज्ञानी जी.ए. आमंड मानते हैं कि जन संचार माध्यम राजनीतिक समाजीकरण की प्रकिया में भूमिका निभाते हैं और राज्य के नागरिकों में राजनीति के प्रति दृष्टिकोण तथा मूल्य निर्मित करते हैं जो उनके राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं इसलिए राज्य नियंत्रित जन संचार माध्यम नागरिकों में एक खास दृष्टि और मूल्य विकसित कर सरकार के हितों के अनुकूल राजनीतिक संस्कृति का निर्माण कर सकता है।
तमाम तरह की अलोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में ऐसी ही राजनीतिक संस्कृति का निर्माण कर व्यवस्था अपने लिए वैधता प्राप्त कर लेती है और सरकार का विरोध या नेता का विरोध राज्य का विरोध घोषित कर दिया जाता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी यदि सरकार जन संचार पर नियंत्रण करने लगे या जन संचार की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार से प्रतिबंध लगाए तो जन संचार की स्वतंत्रता और नागरिकों की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति को खतरा पैदा हो जाता है। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में इंदिरा गांधी की चुनी हुई सरकार ने 1975 में 25 जून की आधी रात को आंतरिक कारणों से संविधान के अनुच्छेद 352 के द्वारा राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर दिया था और जन संचार माध्यमों पर सेंसरशिप लगाकर सरकार विरोधी खबरों के प्रकाशन तथा प्रसारण पर प्रतिबंध लगा दिया था।
हालांकि राज्य के नियंत्रण से मुक्त होने के बाद जन संचार माध्यम की निष्पक्षता सुनिश्चित हो जाएगी इसकी क्या गारंटी है क्योंकि आज जन संचार माध्यम के निर्माण तथा संचालन के लिए उच्चस्तरीय संचार तकनीकी के साथ-साथ कुशल मानव शक्ति की आवश्यकता होती है और इसके लिए बहुत पूँजी की जरूरत होती है। फिर तो तय है कि जिसकी पूँजी से ये जन संचार माध्यम चलेगा वो नि:संदेह अपने आर्थिक हितों के लिए इन जन संचार माध्यमों को नियंत्रित करेगा या करना चाहेगा। इस प्रकार से जन संचार माध्यम की स्वतंत्रता और निष्पक्षता संदेह के घेरे में रहेगी अर्थात जनता को निष्पक्ष और प्रामाणिक सूचना नहीं मिल पाएगी।
इन दोनों के नियंत्रण से मुक्त जन संचार माध्यम यदि जनता के सहयोगी संगठनों/नागरिक समाज के संगठनों की वित्तीय सहायता से संचालित हों तो राज्य या पूँजीपति या बाजार की शक्तियों के प्रभाव से मुक्त जन संचार माध्यम स्वतंत्र व निष्पक्ष रूप से कार्य कर सकता है और जनता को दी गयी सूचना की विश्वसनीयता बढ़ सकती है। अमरीकी राजनीति विज्ञानी रॉबर्ट ए. डॅाल जनतंत्र के लिए संस्थागत गारन्टी में सूचना के वैकल्पिक स्रोत को आवश्यक मानते हैं।
जन संचार माध्यम के तीन मॉडल और राजनीतिक व्यवस्था
जनसंचार माध्यमों के इन तीन मॉडलों में सामान्यत: पूर्णत: राज्य नियंत्रित जन संचार माध्यम समाजवादी, फासीवादी, एकदलीय अधिनायकवादी, सैनिक तानाशाही या निरंकुश राजशाही में पाया जाता है। दुनिया में चीनी जनवादी गणराज्य, उत्तरी कोरिया, क्यूबा, सऊदी अरब,
म्यांमार आदि राज्य नियंत्रित जन संचार माध्यम के कुछ उदाहरण हैं!
राज्य नियंत्रण से मुक्त निजी पूँजीपति या कॉरपोरेट नियंत्रित जन संचार माध्यम विकसित पूंजीवादी जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं में प्रमुख रूप से पाया जाता है।
मूलतः राज्य के नियंत्रण से मुक्त जन संचार माध्यम जब बाजार की शक्तियों के हाथों में होता है तो वो न जनतंत्र का प्रहरी, न जनता के विचारों के स्वतंत्र आदान-प्रदान की सार्वजनिक स्थली या लोगों की आवाज के रूप में कार्य कर पाता है, लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ की भूमिका तो दूर की बात है। जर्मन समाजशास्त्री एवं क्रिटिकल थ्योरी के सिद्धांतकार हैवरमास ने भी आगे चलकर माना कि कॉरपोरेट के बढ़ते नियंत्रण के कारण जन संचार माध्यम के पब्लिक स्फीयर होने की अवधारणा का पतन हो गया ।
विश्वप्रसिद्ध चिंतक नोम चोम्स्की ने कहा है कि जन संचार माध्यमों के कॉरपोरेटीकरण के प्रभाव के कारण अब जनता में सहमति भी उत्पादित की जा रही है।
इसलिए पूंजीवादी व्यवस्था में कॉरपोरेट पूंजी के नियंत्रण के कारण जन संचार एक स्वतंत्र और निष्पक्ष माध्यम नहीं रहा।
तीसरा मॉडल अर्थात् जन सहयोगी संगठनों/नागरिक समाज के संगठनों के वित्तीय सहयोग वाला जन संचार माध्यम किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में पूर्ण रूप से नहीं पाया जाता। यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो सामान्यत: तीनों मॉडल उदारवादी जनतंत्र में किसी न किसी डिग्री में क्रियाशील रहता है क्योंकि विचार, वाणी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उदारवादी जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में नागरिकों का संविधान प्रदत्त अधिकार होता है और जन संचार माध्यम भी विचार, वाणी और अभिव्यक्ति के नागरिक अधिकार के अंतर्गत आता है। इसलिए राज्य का अपना भी जन संचार माध्यम होता है, और निगम, नागरिक, संगठन, ट्रस्ट भी जन संचार माध्यम का संचालन करते हैं।
जन संचार माध्यम का वैश्विक महत्त्व
वस्तुतः जन संचार माध्यम लोगों तक समाचार और विचार पहुँचाने का माध्यम होता है। विज्ञान की तेजी से प्रगति और संचार तकनीकी के क्षेत्र में तीव्र विकास के कारण जन संचार माध्यम के स्वरूप, प्रकार तथा प्रकृति में संरचनात्मक और गुणात्मक परिवर्तन हो गया है।
जन संचार माध्यम के उदय और विकास पर नजर डालें तो समाचार पत्र, पत्रिकाएं जैसे प्रिंट मीडिया के बाद रेडियो और आगे चलकर दूरदर्शन, तथा अब इंटरनेट व सोशल मीडिया के कारण दुनिया में राजनीतिक व्यवस्थाओं में जो अंतर नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी की दृष्टि से था वो भी बहुत हद तक कम हो गया है क्योंकि जन संचार माध्यमों का भूमंडलीय चरित्र और विश्वव्यापी क्षमता तथा वैश्विक पूँजीवाद के प्रभाव के कारण राज्यों की भोगौलिक सीमाएं तथा संप्रभु शक्तियों के बंधन ढीले पड़ गए हैं।
स्वतंत्र तथा निर्भीक जन संचार माध्यम वस्तुगत सच्चाई पर आधारित समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, कला, साहित्य, संस्कृति और विज्ञान के विषय में जनता को देश तथा विदेश के समाचारों को पहुंचाने का सबसे महत्त्वपूर्ण माध्यम बन गया और समसामयिक विषयों, जन समस्याओं तथा सरकार की नीतियों के समालोचनात्मक व तार्किक विश्लेषण के लिए पब्लिक स्फीयर कुछ हद तक प्रदान करता है। एक स्वस्थ जनमत का निर्माण करने में जन संचार माध्यमों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है और नागरिक समाज के साथ मिलकर जनता में नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताओं के प्रति यह चेतना पैदा करता है।
थॉमस जेफरसन से एक बार पूछा गया कि यदि आपको सरकार और समाचार पत्र में एक चुनना होगा तो आप किसे चुनेंगे? जवाब में समाचार पत्र की भूमिका और उसके महत्त्व को उजागर करता हुआ थॉमस जेफरसन का यह अद्भुत उत्तर- मैं समाचार पत्र चुनूंगा।
अमेरिकी राजनीति शास्त्री गैब्रिएल आमंड ने माना है कि जन संचार माध्यम सूचना के प्रमुख स्रोत हैं।
आज जन संचार का युग है। समाचार पत्र, पत्रिकाएं, रेडियो, टेलीविजन तथा इंटरनेट, संसार में कोई भी राजनीतिक व्यवस्था हो, यह किसी न किसी रूप में विद्यमान है और इसकी सर्वव्यापकता है। आज पत्रकार कहीं से भी समाचार या समाचार से संबंधित पिक्चर को दुनिया के किसी भी कोने में भेज सकता है और उसी समय दुनिया के किसी कोने में उसे प्रसारित किया जा सकता है। इसके पीछे मुख्य कारण बाजार का वैश्विक होना तथा सूचना का बाजारीकरण और सूचना तकनीक जिम्मेदार है जिसके परिणामस्वरूप समाचारों का एक जगह से दूसरी जगह उसी समय पहुँच जाना आसान हो गया है।
जन संचार माध्यम नागरिकों के विचार, वाणी तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिन्न हिस्सा है और दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के संविधान के द्वारा इसको सुनिश्चित किया जाता है। सामाजिक मीडिया के साधनों ने परंपरागत जन संचार माध्यम की तुलना में सामान्य नागरिकों की राजनीतिक सीमाओं के बावजूद उसके सूचना पाने और सूचना देने की उसकी शक्ति में गुणात्मक परिवर्तन कर दिया है और उसे अधिक स्वायत्त बनाया है।
आज भारत में तमाम प्रतिकूल राजनीतिक परिस्थितियों के बावजूद एक वैकल्पिक जन संचार माध्यम जन सहयोग से विकसित हो रहा है जो जनतंत्र को कमजोर होने से बचा सकता है।