राज्यवाद और साम्राज्यवाद

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प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 - 8 अक्टूबर 1936)

— प्रेमचंद —

(प्रेमचंद का यह लेख 18 मार्च 1928 के स्वदेश में धनपत राय के नाम से छपा था )

पुराना जमाना राज्यवाद का था, यह जमाना साम्राज्यवाद का है। उन दिनों कोई योद्धा अपने बाहुबल का परिचय देने के लिए अथवा विजय-लालसा से, अथवा धर्म का प्रचार करने के लिए किसी देश पर हमला करता था, विजय पाते ही उसकी इच्छा पूरी हो जाती थी। या तो विजित देश के राजा के केवल हार मान लेने पर राजा बना देता था या कुछ कर लेकर छोड़ देता था। अगर धर्म-प्रचार ही उद्देश्य होता था तो विजित देश विजयी का धर्म स्वीकार कर लेने के बाद फिर स्वाधीन हो जाता था। उसके माथे पर इस हार से, अनन्त काल तक के लिए कलंक न लगता था। जब आदमी में पराक्रम का उदय होता है तो उसे स्वभावतः किसी के सामने ताल ठोंकने की उमंग होती है। यह सर्वथा क्षम्य है। नहीं, हम तो इसे सराहनीय कहेंगे। जो बलवान हो उसे निर्बल पर राज्य करने का खुदा के घर से अधिकार मिला हुआ है। पराधीनता ही निर्बलता का दण्ड है। यही सोच कर, उन दिनों, प्रत्येक जाति बल का संचय करती थी, किले बनाती थी, खाइयाँ खोदती थी। मगर मैदान में हार कर किसी का जो अपमान होता है, वही विजित जातियों के लिए काफी समझा जाता था। दस-पाँच साल के बाद विजेता और विजित में कोई अंतर, कोई भेद, न रहता था।

मगर यह साम्राज्यवाद का जमाना है। आजकल अपनी वीरता का परिचय देने के लिए कोई किसी पर आक्रमण नहीं करता। वीरता तो इस जमाने में लोप हो गयी। अब केवल निर्बल जातियों का खून चूसने के लिए बलवान जातियों का संघटन होता है। यह उमंग अब राजा के दिल में नहीं होती, व्यापारियों के दिल में होती है। व्यापारियों का दिल अपनी चीजों की निकासी के लिए ऐसा बाजार तलाश करता है जहाँ उसे मनमाना दाम मिल सके। फिर धीरे-धीरे यह उस बाजार को इस तरह अपने हाथ में करना चाहता है कि अनंत काल तक उस पर उसका अधिकार बना रहे।

व्यापारियों द्वारा जो धन देश में आता है उसमें देश के मजदूरों का भी हिस्सा होता ही है। कोई चीज मजदूरों के बिना तो बन ही नहीं सकती और आजकल मजदूरों का संघटन इतना सुंदर हो गया है कि उनकी सम्मति के बिना कोई राष्ट्र कुछ कर ही नहीं सकता। ये मजदूर लोग अपने देश में तो किसी तरह अन्याय नहीं सह सकते, लेकिन जब अपने व्यापारियों के हित की रक्षा का प्रश्न आता है तो यह उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का विचार नहीं करते, व्यापारियों की सहायता करने को आमादा हो जाते हैं। उन्हें भी तो रहने को सुंदर घर चाहिए, खाने को पौष्टिक भोजन चाहिए, सिनेमा थियेटर सभी उऩके लिए जरूरी हैं और, यह सुख तभी प्राप्त हो सकते हैं जब देश के व्यापारियों का माल बराबर खपता रहे। इसलिए अब किसी निर्बल राष्ट्र पर प्रभुत्व जमाये रहना व्यापारियों के लिए उतना ही जरूरी है जितना मजदूरों के लिए। और देश में दो ही वर्गों के मनुष्य होते हैं- व्यापारी या मजदूर। जमींदार व्यापारियों के अंतर्गत हैं और किसान मजदूरों के।

इस भाँति अब किसी पराधीन जाति पर अपना प्रभुत्व जमाये रहने में केवल राजा का नहीं, केवल व्यापारियों का भी नहीं, बल्कि समस्त जाति का हित सम्मिलित होता  है, और समस्त जाति सामुदायिक रूप से राज करती है।

पुराने जमाने में एक व्यक्ति का राज्य होता था। वही बारात का दूल्हा होता था। आज बारात के सभी नाई-ठाकुर दूल्हे हैं। तातारियों और मुगलों के जमाने में किसी बेहने, भिश्ती या भंगी को कभी स्वप्न में यह बात न सूझती थी कि वह किसी दूसरी जाति पर राज्य करता है। आज फ्रांस, बेलजिएम या इंग्लैण्ड का एक साधारण कोयला खोदनेवाला मजदूर भी समझता और जानता है कि वह भी अमुक निर्बल जाति पर राज्य करता है। पुराने जमाने का राजा खुश भी हो सकता था, बिगड़ भी सकता था। व्यक्तिगत भावों और विचारों के आधीन ही उसके सब काम होते थे। मगर एक जाति को खुश करना उससे कहीं मुश्किल है जितना उसको नाराज करना। सामुदायिक मनोवृत्ति ही ऐसी है।

व्यक्तिगत रूप से हम जो काम करने का खयाल भी दिल में नहीं ला सकते, सामूहिक रूप से हम उसे करने में संकोच नहीं करते। एक व्यक्ति आदर्शवादी हो सकता है, स्वार्थ को छोड़ सकता है, लेकिन एक पूरा राष्ट्र आदर्शवादी नहीं हो सकता। यह सम्भव है कि एक राजा को भारत की दुर्दशा देखकर दया आ जाय, लेकिन यह असम्भव है कि सारी ब्रिटिश जाति दया और न्याय की वेदी पर अपने स्वार्थ का बलिदान कर सके।

एक समय था जब साम्यवाद निर्बल राष्ट्रों को आशा से आंदोलित कर देता था। सारे संसार में जब प्रजावाद की प्रधानता हो जाएगी, फिर दुख या पराधीनता या सामाजिक विषमता का कहीं नाम भी न रहेगा। साम्यवाद से ऐसी ही लम्बी-चौड़ी आशाएँ बाँधी गयी थीं। मगर अनुभव यह हो रहा है कि साम्यवाद केवल पूँजीपतियों पर मजदूरों की विजय का आंदोलन है, न्याय के अन्याय पर, सत्य के मिथ्या पर, विजय पाने का नाम नहीं। वह सारी विषमता, सारा अन्याय, सारी स्वार्थपरता जो पूँजीवाद के नाम से प्रसिद्ध है, साम्यवाद के रूप में आकर अणुमात्र भी कम नहीं होती, बल्कि उससे और भी भयंकर हो जाने की संभावना है।

लार्ड ओलिवियर, मि. रामजे मैकडोनेल्ड आदि सब समष्टिवादी हैं। जब इंग्लैण्ड में मजदूर दल ने विजय पायी थी हमारे दिल में हर्ष और गर्व की कैसी गुदगुदियाँ उठी थीं, लेकिन अफ़सोस, लार्ड ओलिवियर महोदय ही ने निरपराध भारतीय युवकों को नजरबंद किये जाने का कानून स्वीकार किया और आज मि. मैकडोनेल्ड को हम उनके असली रूप में देख रहे हैं। पुराने राज्यवाद में प्रभुत्व का नशा केवल एक व्यक्ति का होता था। साम्राज्यवाद में यह नशा समस्त जाति को हो जाता है, फिर वह जो कुछ न करे, वह थोड़ा है। पश्चिम की सारी विभूति, सारा ज्ञान-विज्ञान, सारा धर्म और दर्शन, केवल एक शब्द ‘स्वार्थ’ में आ जाता है और वह ‘स्वार्थ’ पर न्याय, सत्य, दया, शील, विवेक सब कुछ भेंट कर सकता है।

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