— अरुण कुमार त्रिपाठी —
विलास भाई नहीं रहे। विलास भाई यानी विलास सोनवाने। वे 69 वर्ष के थे। उनसे पहली बार सन 2001 में मिला था और आखिरी मुलाकात तकरीबन छह साल पहले पानीपत में सर्वोदयी कार्यकर्ता राम मोहन राय की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में हुई थी। वे भारत में एक लोकतांत्रिक क्रांति के लिए सक्रिय थे और उसी सपने और ऊर्जा के साथ पूंजी के वैश्वीकरण और सांप्रदायिकता से देसी ढंग से लड़ रहे थे। कम्युनिस्ट लोग उन्हें कामरेड कहते थे और सर्वोदयी तथा समाजवादी लोग विलास भाई। भक्ति आंदोलन की विरासत को ढोनेवाला वार्करी समाज उन्हें अपना साथी मानता था। इसी तरह महानुभाव और लिंगायत समाज से भी वे अपनापन रखते थे। मुस्लिम समाज उन्हें अपना दोस्त मानता था और गांधीवादी-समाजवादी लोग उन्हें अपना नया व्याख्याकार कहते थे। आंबेडकरवादी उन्हें अपने करीब मानते थे। स्त्रीवादी उन्हें अपना वकील समझती थीं। वे एक ओर दाऊ केमिकल्स के विरुद्ध आंदोलन छेड़े हुए थे तो दूसरी ओर महाराष्ट्र के मुस्लिम साहित्य को सतह पर ला रहे थे। इसके अलावा उन्होंने देश भर के गांधीवादी, समाजवादी और वामपंथी संगठनों को मिलाकर परिवर्तनकारी युवाओं के संगठन युवा भारत का भी गठन किया था। इससे पहले उन्होंने तकरीबन दो साल तक देश भर के परिवर्तनकामी संगठनों के बीच संवाद संपर्क प्रक्रिया चलायी थी। जिसे लखनऊ संवाद के नाम से जाना जाता है।
सीपीआईएमएल न्यू प्रोलेतारियन के चेयरमैन शिवमंगल सिद्धांतकर ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है कि वे कभी इस संगठन के महासचिव थे और उन्होंने मास्को विद्रोह के शताब्दी समारोह में न्यू प्रोलेतेरियन सिद्धांत के प्रति अपनी सहमति प्रकट की थी। लेकिन विलास भाई सिर्फ इतने ही नहीं थे। वे मार्क्सवाद को समझते थे लेकिन उसकी नयी व्याख्या करने और नये प्रयोग करने को तत्पर रहते थे। वे वैसे मार्क्सवादी नहीं थे जो गैर-मार्क्सवादियों परहेज करते हों और उनसे दूरी बनाते हों। वे भारतीय समाज की जाति व्यवस्था की सच्चाई को स्वीकार करते हुए उसके क्रांतिकरण का प्रयास कर रहे थे। यही वजह है कि उन्होंने लखनऊ संवाद के माध्यम से संवाद संपर्क प्रक्रिया का कार्यक्रम दो साल तक चलाया। इसमें गंगा मुक्ति आंदोलन के अनिल प्रकाश, जेपी आंदोलन के साथी राजीव, ओड़िशा के अक्षय, मुंबई के फिरोज मीठीबोरवाला, आजादी बचाओ आंदोलन के रामधीरज और डॉ एके अरुण, वामपंथी प्रभुलाल पासवान, पुणे के शशि सोनवाने, दयानंद कनकदंडे, कानपुर के विजय चावला, इंडियन पीपुल्स फ्रंट के संस्थापक सदस्य आनंद स्वरूप वर्मा, राकेश रफीक, गोपाल राय और सर्वोदयी तथा समाजवादी धारा के तमाम साथी शामिल थे। उनका मानना था कि भारतीय राजनीति में नैतिक और समतामूलक परिवर्तन लाने की क्षमता अब न तो किसी एक विचारधारा के पास है और न ही किसी एक संगठन के पास। इसलिए अपनी विचारधारा की श्रेष्ठता को छोड़कर सभी को मिलकर प्रयास करना चाहिए। उन्हें टूटे बिना निरंतर संवाद करते रहना चाहिए। क्योंकि यह परिवर्तन अहिंसक तरीके से ही होगा। यह प्रयास राष्ट्रीय स्तर पर युवाओं को प्रशिक्षित करने पर केंद्रित किया जाना चाहिए।
‘युवा भारत’ का गठन लखनऊ में हुआ और उसका बड़ा सम्मेलन विलास भाई और शशि ने पुणे में किया। उसके सम्मेलन भागलपुर और पुरी में भी हुए। बाद में कुछ निहित स्वार्थी लोगों के आपसी विवाद के कारण वह संगठन कमजोर हो गया और उस उद्देश्य को नहीं पूरा कर सका जिसके लिए बना था। अगर वह संगठन सफल हुआ होता तो उसकी शक्ति और वैचारिक ऊर्जा भारत बनाम भ्रष्टाचार से बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकती थी। गोधरा कांड के बाद गुजरात में दंगे हुए और देश में एक सांप्रदायिक माहौल बनने लगा उसके विरुद्ध विलास सोनवाने और उनके साथियों ने अहमदाबाद से लेकर देश के कई हिस्सों में कार्यक्रम किया।
लेकिन वे सिर्फ राजनीतिक मामलों पर ही नहीं सक्रिय थे। वे समाज को नए आयोजनों और साहित्य के माध्यम से जोड़ने और पर्यावरण को बचाने की चिंता भी करते रहते थे। सहयाद्री की जलप्रणाली पर उनकी व्याख्या सुनकर कोई भी चकित हो जाता था। दरअसल वे ऐसे मार्क्सवादी थे जो भारतीय समाज की परतों को लगातार समझने और उसे नयी चुनौतियों से जूझने के लिए तैयार कर रहे थे। उन्होंने 2005-2006 से लेकर 2009 तक रायगढ़ में एसईजेड (विशेष आर्थिक क्षेत्र) के विरुद्ध आंदोलन चलाया। दाऊ केमिकल्स के विरुद्ध वार्करी समाज को एकजुट कर दिया। यह समाज पंढरपुर का भक्त समाज है और धर्म आधारित दलों की नीतियों से अपनी निकटता पाता है। लेकिन उन्होंने जस्टिस कोलसे पाटील और जस्टिस पीवी सावंत के साथ मिलकर उनके बीच आर्थिक आंदोलन को खड़ा कर दिया। उनकी कोशिश महाराष्ट्र की वार्करी, महानुभाव और लिंगायत परंपराओं को एकसाथ लाकर उनके बीच संवाद स्थापित करना था। उन्होंने सर्वधर्मीय सर्वपंथीय सामाजिक परिषद का गठन किया था। वे मानते थे कि इससे वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिंदुत्ववाद से लड़ लेंगे। वे विभिन्न समुदायों को बौद्धिक प्रश्नों पर एकसाथ बिठाते थे और पर्यावरण के साथ सामाजिक प्रश्न उनके समक्ष रखते थे।
भारतीय समाज में जाति और धर्म के सवाल पर विलास भाई के हस्तक्षेप की शुरुआत तब हुई जब उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की वर्ग आधारित विचारधारा की सीमाएं पहचानीं। वे 1971 में एसएफआई यानी माकपा के छात्र संगठन के संस्थापक राज्य सचिव थे। जब उन्होंने और शरद पाटील ने संगठन के भीतर वर्ग बनाम जाति के सवालों को उठाया तो उन्हें 1977 में संगठन छोड़ना पड़ा। वहां से हटकर वे सीपीआईएमएल न्यू प्रोलेतारियन से जुड़े और उसके महासचिव बने। लेकिन महाराष्ट्र में माकपा के भीतर उनकी और शरद पाटील की जाति के सवाल पर खड़ी की गयी बहस की गूंज राष्ट्रीय स्तर पर रही। वे दरअसल आंबेडकर और फुले की परंपरा को अच्छी तरह समझते थे और मानते थे कि मार्क्सवादी राजनीति उससे कटकर संभव नहीं है।
उसके बाद 1988 के आसपास देश में सांप्रदायिक राजनीति की आहट सुनायी पड़ी तो उन्होंने मुस्लिम मराठी साहित्य आंदोलन खड़ा किया। मराठी मुसलमानों को संगठित किया और उनके भीतर की धार्मिक कट्टरता मिटाने के लिए उसी तरह मुस्लिम मराठी साहित्य सम्मेलन आयोजित किया जिस तरह से दलित साहित्य सम्मेलन आयोजित होता था। 1990 में जब मंडल आयोग की रपट लागू हुई तो उन्होंने कई मुस्लिम जातियों को ओबीसी सूची में शामिल करवाया और उन्हें आरक्षण का लाभ दिलवाया। उनका मानना था कि भारतीय समाज मूलतः जाति आधारित समाज है। यहां जाति प्रधान है और धर्म द्वितीयक है। उन्होंने वैश्वीकरण के सवाल पर 1997-1998 में मुंबई में सकल साहित्य सम्मेलन आयोजित किया जिसमें साहित्य प्रवाह की विभिन्न धाराओं को एक मंच पर उपस्थित किया।
इतना काम करने और इतने सारे लोगों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहने के बावजूद विलास सोनवाने को किसी तरह का अहंकार और श्रेष्ठता भाव छू नहीं गया था। न उनके भीतर धन और सत्ता के लिए किसी तरह का लालच था। उन्होंने पुणे में कई युवाओं को विचार और कर्म में दीक्षित किया जिनमें शशि और दयानंद जैसे प्रखर युवा शामिल हैं। वे लोगों को जोड़ने में यकीन करते थे न कि तोड़ने में। युवा भारत के लोग जब दिल्ली में एक क्षुद्र किस्म के विवाद में उलझ गये तो वे उसे निपटाने पुणे से कई बार लखनऊ और दिल्ली आए। वैसे तो वे प्रयोगधर्मी थे और उनके विचार उनके कर्म में ही दिखायी पड़ते थे लेकिन समाजशास्त्र में एम.ए. विलास भाई ने तीन पुस्तकों की रचना की है जो उनके विचारों को समझने में सहायक हो सकती हैं। वे हैं— 1. लढ़ता लढ़ता केलेल्या चिंतनातील काही (लड़ते लड़ते होता है विचारों का विकास), 2. बहुजन स्त्रीवाद, 3. मुस्लिम प्रश्नांची गुंतागुंत।
सन 1952 में जनमे विलास सोनवाने लोकतंत्र के लिए समर्पित थे। इसीलिए वे आपातकाल में उसका विरोध करते हुए भूमिगत रहकर अपना काम कर रहे थे। उन्होंने अपनी पत्नी जयश्री और बेटी मुक्ता को भी अपने विचारों के अनुरूप ढाला और समाजसेवा और परिवर्तन के काम के प्रति समझ पैदा की। विगत चार सालों से वे पारकिन्सन से पीड़ित थे। सैकड़ों युवाओं को प्रभावित करनेवाले, व्याख्यान देनेवाले विलास आखिरी दिनों में बोल नहीं पाते थे। उनका मौन होना समाज के लिए नुकसानदेह है। पर वे वास्तव में मौन हुए नहीं हैं क्योंकि उनके कर्म और विचार इस समाज में अपनी अनुगूंज पैदा करते रहेंगे।