(लोहिया ने 1936 में नागरिक स्वाधीनता से संबंधित दो लेख लिखे थे- एक, ‘नागरिक स्वाधीनता क्या है’, और दूसरा, ‘भारत में नागरिक स्वाधीनता की अवस्था’ शीर्षक से। दोनों लेख अंग्रेजी में लिखे गये थे। पहली बार जब दोनों लेख एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुए तो उसकी भूमिका जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी। दिनेश दासगुप्ता ने इसे फिर से, हिंदी में, छपवाया था, अक्टूबर 1976 में, यानी इमरजेंसी के दिनों में। तीसरा संस्करण नागपुर के लोहिया अध्ययन केंद्र के हरीश अड्यालकर ने छपवाया था। इस पुस्तिका को ग्वालियर स्थित आईटीएम यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग ने 23 मार्च 2020 को प्रकाशित करके फिर से उपलब्ध कराने का प्रशंसनीय कार्य किया है। आज देश तो स्वाधीन है लेकिन नागरिक स्वाधीनता पर संकट गहराता जा रहा है। ऐसे में नागरिक स्वाधीनता पर लोहिया के उपर्युक्त निबंध की प्रासंगिकता जाहिर है। लिहाजा, इसे हम किस्तवार प्रकाशित कर रहे हैं।)
नागरिक स्वाधीनता की उत्पत्ति कैसे हुई? नागरिक स्वाधीनता की अवधारणा, नागरिक के राज्य से अनंतकाल से चलते आ रहे संघर्ष से जनमी है। इतिहास इस बात का गवाह है कि राज्य और उसके कानूनों ने नाना प्रकार की विकृतियों और सत्ता के दुरुपयोग को जन्म दिया है। चाहे कमर तोड़ देनेवाला कर-विधान (टैक्स सिस्टम) हो या खून का प्यासा जमींदार अभिजात तंत्र हो, नागरिक इनकी मार से कराहता रहा है और प्रतिकार करने की कोशिश भी करता रहा है। उसपर युद्ध थोपे गये हैं और उसकी संस्कृति को निस्तेज किया गया है। वह इनको समाप्त करने की भी कोशिश करता रहा है। अत्याचार और बुराइयों को समाप्त करने का जवाब और भी ज्यादा दमन और अत्याचार करके दिया गया है।
सत्ता के दुरुपयोग और उसकी बुराइयों से लड़ने का ही मतलब अवज्ञा हो जाता है, जिसे राज्य बर्दाश्त नहीं करना चाहता। नागरिक सत्ता का कोपभाजन बनता है। उसे तनहा कैद रखा जाता है। जेल में लंबे अरसे तक सड़ाया जाता है और फांसी भी दी जाती है। उसके पास जो कुछ मूल्यवान होता है वह छीन लिया जाता है। इसलिए नागरिक को हमेशा इस बात की जरूरत महसूस हुई है कि सत्ता के दुरुपयोग और अपने युग की बुराइयों की आलोचना करने और उनपर हमला करने के लिए उसे सलामत रहने का कोई न कोई अल्पमत आधार प्राप्त करना चाहिए। विभिन्न देशों के मूल और साधारण कानूनों में सरकार के मुकाबले नागरिकों को जो अधिकार दिये गये हैं, वे इस तरह की सलामती के अल्पमत आधार की ही अभिव्यक्ति है। अगर शासन नागरिक स्वाधीनता का सम्मान करता है तो दमन का प्रतिकार भयावह स्थिति उत्पन्न नहीं करता। प्रतिकार के नतीजे भयानक नहीं होते।
यहां पर याद रखना उचित होगा कि अमरीकी और फ्रांसीसी संविधानों तथा इंग्लैंड के अधिकार-घोषणापत्र (बिल ऑफ राइट्स 1689) का जन्म किस प्रकार हुआ। इन सभी देशों में इसके जन्म के पहले दमन, सामाजिक बुराइयां तथा रुपये-पैसों का दुरुपयोग बहुत ज्यादा बढ़ गया था। लोगों को डराने तथा तत्कालीन स्थिति को स्वीकार कराने के लिए बास्तेल (राजनीतिक तथा अन्य बंदियों को रखने के लिए चौदहवीं सदी में पेरिस में बनायी गयी किलानुमा जेल, इसको 14 जुलाई, 1786 को फ्रांसीसी जनता ने हमला कर नष्ट डाला। बास्तेल का पतन फ्रांस में राजतंत्र की समाप्ति और फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत माना जाता है। 14 जुलाई को फ्रांसीसी अपना राष्ट्र-दिवस मनाते हैं।) जैसी जेलें बनायी गयीं। जब जनता ने राज्य और उसके अत्याचारी आर्थिक और सामाजिक कानूनों पर जोरों से प्रहार कर उन्हें समाप्त करने की शक्ति अर्जित कर ली तो उसने बास्तेल तथा उस जैसी जेलों को नष्ट कर दिया। बास्तेल और उसके जैसी जेलों के भग्नावशेष पर नागरिक स्वाधीनता की शानदार इमारत खड़ी की गयी। यह अत्याचार और उत्पीड़न की स्थायी स्मृति के खिलाफ आदमी की ढाल है। नागरिक स्वाधीनता अत्याचार और उत्पीड़न को समाप्त करने की मूल शर्त है।
नागरिक स्वाधीनता समाज की प्रगति के मार्ग को सहज और सुगम बनाती है। समाज प्रगति और प्रतिगामिता के बीच हिचकोले खाता रहता है और अकसर जड़ता का शिकार हो जाता है। इस खींच-तान में राज्य ज्यादातर जड़ता और प्रतिगामी शक्तियों से संचालित व नियंत्रित होता है। हां, कभी-कभी इस दिशा में थोड़ा व्यतिक्रम तब होता है जब कल तक के विद्रोही सत्तारूढ़ होने के कारण प्रारंभिक दिनों में राज्य-शक्ति का प्रगति के साधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। लेकिन ये ही कल तक के विद्रोही कुछ ही दिनों में परिवर्तन से घृणा करने लगते हैं और राज्य की ताकतवर मशीन वंचित लोगों के प्रगतिशील प्रयासों को रोकने लगती है। राज्य प्रगति के प्रयत्नों को रोकता न रहे और निरंतर दमन से उसमें बाधा न डाले इसके लिए राज्य की सर्वग्रासी सत्ता को नियंत्रित करना और उसको स्पष्ट रूप से निर्धारित करना आवश्यक है। नागरिक स्वाधीनता की सारी परिकल्पना ही राज्य की शक्ति को स्पष्ट रूप से निर्धारित करने और उसे मर्यादित करने के प्रयत्नों का परिणाम है। इससे ही व्यवस्थित और अनुशासित ढंग से प्रगति संभव है और समाज को निरंकुश अत्याचारी शासन और क्रांति के बीच चुनते रहने से बचाया जा सकता है।
इस तरह हम देखते हैं कि नागरिक स्वाधीनता की अवधारणा मुख्य रूप से एक उदारवादी (लिबरल कॉनसेप्ट) अवधारणा है, जो राज्य की तानाशाही और जन-विद्रोह के बीच के क्रूर संघात के धक्के को संभालने का काम करती है। यह समाज को व्यवस्थित, शांत और अनुशासित रूप से आगे बढ़ने में मदद करती है अगर कोई नागरिक स्थिति से असंतुष्ट है और उसकी आलोचना करना चाहता है तो समाज उसे निर्भय होकर सवाल करने, परीक्षा करने और सुधार करने की इजाजत देता है। उसे किसी प्रकार के दंड का भय नहीं रहता।
आज नागरिक स्वाधीनता पर क्यों हमला हो रहा है? इसका जवाब एकदम हमारे सामने है। हमारी आंखों के आगे यथास्थिति और प्रतिगामिता की शक्तियों की परिवर्तन की शक्ति से एक विश्वव्यापी और भीषण लड़ाई छिड़ी हुई है। गुलाम देश हों या साम्राज्यवादी देश (की जनता) सब में मौजूदा आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की आलोचना हो रही है और विद्रोह का झंडा उठाया जा रहा है। मौजूदा व्यवस्था का मतलब निरंतर बेकारी बढ़ना, रहन-सहन के स्तर का गिरना और सांस्कृतिक अवनति है। यही नहीं, इसका मतलब गुलाम देशों की जनता का निरंतर अपमान और पाशविक युद्धों का जारी रहना भी है। सारी दुनिया आज एक विराट प्रश्न-चिह्न सरीखी बन गयी है। पुराने सामाजिक ढांचे बेकार साबित हो रहे हैं। गुलाम देशों की जनता तथा दुनिया भर के उत्पीड़ित और सताये जानेवाले लोग वैकल्पिक समाज की कल्पना कर रहे हैं। राज्य मौजूदा सामाजिक ढांचे को कायम रखने के लिए सचेष्ट है और वैकल्पिक समाज की मांग का जवाब गिरफ्तारियों और प्रतिबंधों से दे रहा है।
राज्य-शक्ति का सबसे ज्यादा प्रहार गुलाम देशों के स्वतंत्रता आंदोलनों और दुनिया की समाजवादी और कम्युनिस्ट पार्टियों पर हो रहा है। उनपर मार सबसे ज्यादा पड़ रही है क्योंकि वे साम्राज्यवादियों को हटाने की कोशिश कर रहे हैं और दुनिया के मजदूर और किसानों की मांगें रख रहे हैं। उनके खिलाफ यथास्थितिवाद, पूंजीवाद और जमींदार अभिजात तंत्र की शक्तियां अड़ी हुई हैं। सरकारें नागरिक स्वाधीनता के सिद्धांत को बेहयाई से धता बता रही हैं और अपनी निर्धारित सत्ता से भी आगे बढ़कर दमन और अत्याचार कर रही हैं। इस तरह नागरिक स्वाधीनता पर हमला करना राज्य और पूंजीवाद तथा सामंतवाद का एक स्थायी काम हो गया है।
यहां हमारे देश में हाल में नागरिक स्वाधीनता का धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक रूपों में वर्गीकरण करने का जो प्रयत्न हो रहा है उसपर विचार करना उचित होगा। जाहिर है कि ऐसा वर्गीकरण एकदम भ्रांत धारणा पर आधारित है। नागरिक स्वाधीनता धार्मिक या राजनीतिक या आर्थिक नहीं होती, उसका ऐसा वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। नागरिक स्वाधीनता का सवाल तभी उठता है जब राज्यसत्ता अपने आचरण या अनाचरण से (कार्रवाई कर या मौन रहकर) नागरिकों के अधिकारों की हिफाजत नहीं करती। नागरिक स्वाधीनता का उल्लंघन तभी होता है जब राज्य खुद नागरिकों के विचार व मत प्रकट करने की स्वतंत्रता और सभा व संगठन की स्वतंत्रता पर हमला करता है या गुंडों को ऐसा करने की इजाजत देता है। इस प्रकार की सरकारी हिंसा और गुंडई के पीछे मुख्य रूप से आलोचना का और मौजूदा कानूनों व सरकार के प्रति विद्रोह का भय रहता है।