10 सितंबर। एक तरफ किसानों का फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी की मांग को लेकर आंदोलन जारी है। वहीं, दूसरी तरफ सरकार ने 8 सितंबर, 2021 को रबी विपणन सीजन (आरएमएस) 2022-23 के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को बढ़ाने की मंजूरी दी है। लेकिन सवाल यही है कि रबी की जिन फसलों पर एमएसपी बढ़ाई गई है क्या वह मौजूदा लागत के साथ किसानों के लिए लाभकारी होगा? कृषि विशेषज्ञों की नजर में एमएसपी में यह वृद्धि लाभकारी नहीं है, बल्कि यह किसानों की लागत नहीं निकाल पाएगी।
8 सितंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति ने रबी विपणन सीजन (आरएमएस) 2022-23 के लिए सभी रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी करने को मंजूरी दी। जिसमें सबसे कम बढ़ोतरी गेहूं में 40 रुपए और जौ में 35 रुपए की गयी है।
सरकार की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि पिछले वर्ष के एमएसपी में मसूर की दाल और कैनोला (रेपसीड) तथा सरसों में उच्चतम संपूर्ण बढ़ोतरी (प्रत्येक के लिए 400 रुपये प्रति क्विंटल) करने की सिफारिश की गयी है। इसके बाद चने (130 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी) को रखा गया है। पिछले वर्ष की तुलना में कुसुम के फूल का मूल्य 114 रुपये प्रति क्विंटल बढ़या गया है। कीमतों में यह अंतर इसलिए रखा गया है, ताकि भिन्न-भिन्न फसलें बोने के लिए प्रोत्साहन मिले।
इस मुद्दे पर कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने ‘डाउन टू अर्थ’ को बताया कि किसान जिस एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग कर रहे हैं, उसका स्पष्ट मतलब है कि वह चाहते हैं कि तय एमएसपी के नीचे ट्रेडिंग न हो। लेकिन इस वक्त महंगाई की दर 5.9 फीसदी है। पेट्रोल और डीजल के दाम दोगुने बढ़ गए हैं। मौजूदा कृषि लागत काफी बढ़ चुकी है। मिसाल के तौर पर गेहूं और जौ पर महज 2 फीसदी एमएसपी बढ़ा है। यह मौजूदा महंगाई दर को बिल्कुल कवर नहीं करता। वहीं, सरसों की मौजूदा कीमत 7000 रुपए से 8000 रुपए के बीच है। जबकि सरकार 400 रुपए का एमएसपी बढ़ाकर उसे सिर्फ 5050 रुपए तक पहुंचा पायी है। ऐसे में सरसों पैदा करनेवाला किसान कहां बाजार भाव के पास पहुंच पाएगा।
किसान संगठन आशा किसान स्वराज की ओर से किरण कुमार विस्सा ने सरकार के एमएसपी की बढ़ी हुई दरों की तुलना मौजूदा 6 फीसदी महंगाई दर और 2021-22 की एमएसपी दरों से करने के बाद अपने विश्लेषण में कहा कि यह पुरानी एमएसपी से भी कम है।
देविंदर शर्मा ने कहा कि एमएसपी की यह बढ़ोत्तरी किसानों को एग्रीकल्चर से बाहर करने का एक पुराना इकोनॉमिक डिजाइन का हिस्सा है। हाल ही में सरकारी कर्मचारियों का महंगाई भत्ता बढ़ाया गया है, जबकि किसानों के लिए एमएसपी में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। एमएसपी को एक बेंचमार्क बनना चाहिए कि इससे नीचे ट्रेडिंग नहीं होगी, तभी बात बन पाएगी।
सरकार ने एमएसपी बढ़ाने के पीछे तर्क दिया है कि पिछले कुछ वर्षों से तिलहन, दलहन, मोटे अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य में एकरूपता लाने के लिए संयुक्त रूप से प्रयास किए जाते रहे हैं, ताकि किसान इन फसलों की खेती अधिक रकबे में करने के लिए प्रोत्साहित हों। इसके लिए वे बेहतर प्रौद्योगिकी और खेती के तौर-तरीकों को अपनायें, ताकि मांग और आपूर्ति में संतुलन पैदा हो।
लेकिन दलहन संकट का भी इससे हल नहीं निकल पाएगा। दलहन के कुल उत्पादन में रबी सीजन के चना की प्रमुख हिस्सेदारी है। इसके अलावा सबसे कम उत्पादन देश में मसूर का होता है। इसलिए कुल 30 लाख टन आयात होनेवाली दाल में 10 लाख टन मसूर शामिल होता है जो कि अधिकांश बाजार के उत्पादों में इस्तेमाल किया जाता है। भारतीय भोजन में चना और अरहर के मुकाबले मसूर का इस्तेमाल बहुत कम है। ऐसे में घरेलू उत्पादन होने पर किसान और उपभोक्ता दोनों के लिए रोजमर्रा दाल के संकट का समाधान भी नहीं होगा।
आशा किसान स्वराज ने कहा कि सरकार किसानों को गुमराह कर रही है। असल में हमारी तुलना बताती है कि एमएसपी बढ़ने के बजाय घट रही है।
– विवेक मिश्र
(‘डाउन टु अर्थ’ हिंदी से साभार)