गांधी की हत्या के पीछे का मानस

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— हिमांशु जोशी —

किताब की शुरुआत इसके हिंदी संस्करण हेतु अभिस्वीकृति से होती है। शुरू में आपको इसके शब्द बड़े भारी-भरकम लगेंगे पर वास्तविकता पढ़ते-पढ़ते आपके कान खड़े होते जाएंगे और आप किताब पूरी खत्म होने तक बहुत सी सच्चाई को समझने के काबिल बन जाएंगे।

किताब के लेखकों (आदित्य मुखर्जी, मृदुला मुखर्जी, सुचेता महाजन) का कहना है कि इस किताब को आए दस साल हो गये हैं पर किताब जिन मुद्दों पर लिखी गयी उन मुद्दों की प्रासंगिकता घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। किताब की प्रस्तावना दिग्गज इतिहासकार बिपन चंद्रा ने लिखी है और अनुवाद किया है दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर और राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक सौरभ बाजपेयी ने। हिंदी अनुवाद हाल में ही आया है।

किताब पढ़ते आप समझ जाएंगे कि लेखकों ने किताब लिखते कौन सा भविष्य देख लिया था जो आज घटित हो रहा है। किताब का उद्देश्य अपने समाज और राजनीतिक माहौल को समझने के लिए आलोचनात्मक चिंतन को बढ़ावा देना है।

बिपन चंद्रा

बिपन चन्द्र की प्रस्तावना अप्रैल 2007 में उत्तर प्रदेश विधनसभा चुनाव प्रचार अभियान में चल रहे सीडीज़ के खेल से शुरू होती है। वह कहते हैं कि किताब पढ़ आप साम्प्रदायिकता के प्रचंड संकट से रूबरू हो जाएंगे।

आभार में यह पता चलता है कि यह किताब शिक्षा के साम्प्रदायिकीकरण के खिलाफ वर्ष 2001 में दिल्ली हिस्टेरियन ग्रुप के तहत शुरू हुए एक अभियान का हिस्सा है।

किताब का पहला हिस्सा आरएसएस और स्कूली शिक्षा है। यह हस्सा हमें बताता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में संघ गठजोड़ की समझ बहुत साफ रही है कि साम्प्रदायिकता को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि साम्प्रदायिक विचारधारा को प्रभावी ढंग से फैलाया जाए। यही वज़ह है कि संघ ने सबसे ज्यादा गम्भीर प्रयास विचारधारा के क्षेत्र में ही किये हैं। दूसरे समुदाय के प्रति घृणा और अविश्वास को भरने के लिए आरएसएस ने हजारों सरस्वती शिशु मंदिरों, विद्याभारती के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों और अपनी शाखाओं को माध्यम के रूप में चुना है।

‘मेरा यह मानना है कि धर्म की कट्टरता देश का विनाश ही करती है, इसके लिए हमें बस एक बार अफगानिस्तान की खबरों को गूगल पर सर्च करने की जरूरत है।’

आदित्य मुखर्जी

किताब में लेखक ने इस मामले में नागरिक स्वतंत्रता के लिए लड़नेवाले अथक योद्धा गांधी जी के विचार दिये हैं कि साम्प्रदायिकता, धर्मांधता और घृणा फैलाने वाले सभी तरह के साहित्य पर राज्य की ताकत का इस्तेमाल कर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। ऐसा न किये जाने पर वह गोधरा कांड का उदाहरण देते हैं।

किताब में आरएसएस द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर प्रकाशन और विद्या भारती प्रकाशन से प्रकाशित पाठ्यपुस्तकों के मूल्यांकन के लिए बनायी गयी समिति की रिपोर्ट और उसकी सिफारिश का जिक्र है।

दिल्ली के कुतुबमीनार और उसको बनवाने का श्रेय समुद्रगुप्त को देना जैसे अस्पष्ट तथ्यों को स्कूली शिक्षा में शामिल करना सिफारिश की अहमियत को प्रमाणित करता है।

‘एनसीईआरटी के निदेशक ने वर्ष 2000 में नयी राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा तैयार की, किताब में उसके परिणाम पढ़ फिर से गड़े मुर्दे उखाड़ने जरूरी हैं।’

किताब बताती है कि जो लोग हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों के एजेंडे से सहमत नहीं थे, उन पर हमले होने शुरू हो गये। ‘यह बात आज हम खुद भी अपने चारों और घटित होते देख रहे हैं।’

सुचेता महाजन

शिक्षा और समाज में फैलायी जा रही नफरत पर चर्चा करती किताब में आगे लिखा है कि राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले और यहां तक कि भीमराव आंबेडकर जैसे समाज सुधारकों पर या तो बहुत कम अथवा कुछ भी नहीं लिखा गया है। जाहिर है कि परम्परागत हिन्दू समाज में किसी भी तरह के सुधार की जरूरत नहीं समझी गयी है।

किताब का यह हिस्सा पढ़ समझ आता है कि ‘क्यों हम अब भी हम अपने समाज में  धार्मिक और जातिगत भेदभाव की गहरी खाई देखते हैं और क्यों अब भी विधवा पुनर्विवाह जैसे गम्भीर मुद्दों पर समाज में चर्चा नही होती।’

किताब का दूसरा भाग ‘गांधी की हत्या की प्रेतछाया’ शुरू होने से पहले आपको यह भी पता चलेगा कि महात्मा गांधी की भूमिका को भी एनसीईआरटी की इन पाठ्यपुस्तकों में कम करके दिखाया गया है।

दूसरा भाग गांधी नाम को हटाने के डर की वजह और उनकी हत्या की साजिश से पर्दा न उठाने की वजह ढूंढ़ते शुरू होता है।

गोडसे, सावरकर, आरएसएस और हिन्दू महासभा के सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। नाथूराम के भाई और गांधीजी की हत्या में सहअभियुक्त गोपाल गोडसे के अदालत में बयान और नाथूराम ने फाँसी पर चढ़ने से पहले जो प्रार्थना पढ़ी उस सब के बारे में जानने के लिए किताब पढ़ना जरूरी है। किताब में ‘न्यू स्टेट्समैन’ के सम्पादक किंग्सले मार्टिन के द्वारा 1948 में अपने अखबार को भेजे तार के बारे में जो जिक्र किया गया है, वह बात आज सच साबित हो रही है।

मृदुला मुखर्जी

किताब एक महत्त्वपूर्ण तथ्य से भी पर्दा उठती है, जिसके बारे में अकसर सवाल उठते हैं। हिन्दू साम्प्रदायिक समूहों के दुष्प्रचार के मुताबिक भारत सरकार को पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए का भुगतान करना था। उसके लिए उन्होंने गांधी के उपवास को दोषी ठहराया।

गोडसे ने भी यही कहा कि उपवास के बाद ही मैं बेकाबू हो गया। जबकि यह उपवास आंशिक तौर पर भारत सरकार को अपने वायदे का सम्मान करने और हिन्दू और मुसलमानों को शर्मिंदगी का एहसास कराने का संदेश देने के लिए था।

किताब में एक शीर्षक ‘गांधीजी की हत्या का कोई अफसोस नहीं’ में हमें पता चलता है कि आरएसएस ने गांधीजी की हत्या की निंदा करते हुए कभी एक वक्तव्य तक जारी नहीं किया।

भाजपा सरकार द्वारा बहुत से मौकों पर सावरकर को फिर से जिंदा किये जाने का वर्णन किताब में मिलता है, 2003 में भाजपा सरकार ने संसद भवन में सावरकर की तस्वीर को ठीक महात्मा गांधी की तस्वीर के सामने लगाया।

किताब बताती है कि ये वही सावरकर थे जिन्होंने अंग्रेजों से माफ़ी मांगकर क्रांतिकारियों का सिर शर्म से नीचा कर दिया था। इतिहास के उन पहलुओं को पुनर्जीवित, पुनर्निर्मित और विकृत किया जा रहा है जो कि साम्प्रदायिक विचारधारा और आचरण से मेल खाते हों।

किताब का तीसरा भाग हिन्दू साम्प्रदायिकता की विचारधारात्मक निर्मितियां’ हैं। यह भाग बताता है कि हिंदुत्व के विचारकों के लेखन में हिंदुत्व की जो धारणा पेश की गयी है उसके अनुसार भारत सिर्फ हिंदुओं का देश है, मुसलमान हमारे दुश्मन हैं, वे राष्ट्रद्रोही और गद्दार हैं। इस धारणा के अंतर्गत भारतीय राष्ट्रवाद को हिन्दू राष्ट्रवाद तक सीमित कर दिया गया है। ‘यही वह बात है जिसके दिमाग में भर जाने से महात्मा गांधी की हत्या की गयी।’

आमतौर पर हिंदुस्तान में ‘स्तान’ की जगह साम्प्रदायिक धारणा वाले शब्द ‘स्थान’ का इस्तेमाल किये जाने जैसे तथ्य लेखक इतिहास से खोज लाये हैं और साथ में वे कई चेहरों को बेनकाब करते हैं।

किताब खत्म होने से पहले एक और सच सामने लाती है कि 1937 में ही सावरकर ने हिन्दू महासभा में दो राष्ट्र के बारे में बात की थी और मुस्लिम लीग में यह मांग 1938 में उठी, जिसकी प्रतिक्रिया में सावरकर ने अपने बयान बदल दिये थे।

मुसलमान विरोधी पूर्वाग्रह’ और कांग्रेस विरोधी और गांधी विरोधी रवैया’ शीर्षकों में आज़ादी के पहले से ही मुसलमानों को लेकर बनायी गयी क्रूर छवि पर प्रकाश डाला गया है, इसमें यह भी लिखा है कि अपने धर्म के लोग जो साम्प्रदायिक नहीं हैं और उदारवादी हैं, वे भी साम्प्रदायिक शक्तियों के शिकार बन जाते हैं। यही कारण है कि हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों के अंदर कांग्रेस और गांधी के खिलाफ ज़हर भरा है।

सौरभ बाजपेयी

बांटने के इस खेल में भी कैसे हार मिलती रही है उसका सटीक उदाहरण हमें किताब में पढ़ने को मिलता है- हिन्दू महासभा से जुड़े लोगों की अंग्रेज़ों से वफादारी और उसके बाद भी हिन्दू समेत तमाम भारतीयों से ख़ारिज हो चुनावों में हार की हताशा ने गांधी हत्या की नींव तैयार की।

क़िताब के अंत तक पहुंचते-पहुंचते आप खुद को किताब लिखे जाने का उद्देश्य पूरा होने की स्थिति में पा सकते हैं।

इसे पढ़ सालों से एक ही विचारधारा से जुड़े लोग भी अपने समाज और राजनीतिक माहौल को समझते हुए स्वयं में एक आलोचनात्मक चिंतन कर सकते हैं, क्योंकि वह जनता ही है जिसे यह फैसला लेना है कि वह आज के भारत को किस स्थिति में कल की पीढ़ी को सौंपेगी।

ऐसा भारत जो धर्म, जाति के नाम पर लड़ता रहे या ऐसा भारत जो विकास की पटरी पर दौड़ता रहे। हमारा एक फैसला ही कल का एक बेहतर लोकतंत्र स्थापित करने में मदद करेगा।

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