— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
(तीसरी किस्त)
इतिहास चक्र की दुविधा शीर्षक से लोहिया दर्शन की कुछ बुनियादी अवधारणाओं पर सवालिया निशान लगाने का प्रयास भी इस लेख में हुआ। लोहिया की पुस्तक ‘व्हील ऑफ हिस्ट्री’ इतिहास चक्र के हवाले से शुरुआत में तथ्यों को सही रूप में प्रस्तुत किया है, परंतु बाद में लेखक अपने असली एजेन्डे पर आ जाते हैं। वे लिखते हैं कि
“लेकिन इन तमाम खूबियों के बावजूद इतिहास चक्र की अवधारणा इक्कीसवीं सदी के क्रांतिकारियों को बहुत मदद नहीं कर सकती…. लोहिया के इतिहास, दर्शन को भी सबसे बड़ी चुनौती इतिहास के प्रवाह ने दी। वे लिखते हैं कि– “उन्नीसवीं सदी का इतिहास दर्शन इस लिहाज से एक कमजोर संबल साबित हुआ है न ही हीगल और मार्क्स का इतिहास दर्शन उनके जाने के बाद इतिहास की सटीक व्याख्या कर पाया न ही लोहिया का इतिहास चक्र इस कसौटी पर खरा उतरता दिख रहा है। इक्कीसवीं सदी के कुजात लोहियावादियों को इसका (लोहिया के इतिहास-चक्र के दर्शन का) सहारा छोड़कर, संभावनाओं और आशाओं के नए विधान की रचना करनी होगी।”
लोहिया पर आरोप मढ़ा गया कि लोहिया का इतिहास चक्र का सिद्धांत उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय चिंतन के इसी सांचे में ढला है। लोहिया की कहानी के निष्कर्ष यूरोपीय परंपरा से भिन्न होने के बावजूद इस कहानी का ढांचा वैसा ही था जैसा कि हीगल और मार्क्स का है।
बुद्धिजीवी किसान नेता ने शायद यह नहीं पढ़ा कि डॉ. लोहिया ने इतिहास चक्र में लिखा है “ऐसा लगता है कि इतिहास ग्रीक शोकान्तिका के निर्मम तर्क से चलता है….. विदेशी भ्रमण के दौरान गोरे”– स्त्री-पुरुषों के बीच डॉ. लोहिया अकेले अश्वेत थे, बातचीत चल रही थी, गोरे लोगों ने कहा, भारत में पाये जाने वाले खटमलों और अन्य कीड़े की जो पूरी जिंदगी आदमी में अशक्तताएं पैदा करते हैं। मैं थोड़ी देर चुप रहा फिर मैंने बस में बैठे गोरे लोगों को बताया कि भारत निश्चय ही सबसे गरीब और सबसे गंदा देश है लेकिन सौ साल से कम समय में यूरोप और अमरीका भारत के साथ स्थान की अदला बदली कर सकते हैं। (जैसा कि चीन के संदर्भ में हो भी गया) यह इतिहास का चक्र है। वह भावना शून्य घूमता है। मेरा देश दो बार इतिहास के शिखर पर रहा है और मैं नहीं चाहता कि वह तीसरी बार शिखर पर पहुँचे, क्योंकि तब उसका फिर गंदगी के गर्त में गिरना निश्चित होगा। ग्रीक और रोमन लोगों को छोड़कर जो गोरी दुनिया के वर्तमान हिस्से नहीं हैं अमरीकन तथा यूरोपियन शिखर और अतल के इस लेख के नये खिलाड़ी हैं। उनके पास व्यक्ति की स्मृतियां नहीं हैं जो उन्हें इतिहास चक्र का बोध करायें। यह बहुत बड़ी शौकातिया है यदि मनुष्य इस चक्र पर हमेशा के लिए नहीं टूटा और इसके स्थान पर इसने मानव जाति के सुविचारित सुनियोजित सामीप्य द्वारा इस चक्र को तोड़ा तो यह दुनिया बुद्धिमान व्यक्ति की हँसी से गूँज सकती है जिसे मैंने महात्मा गांधी से सुना था और जिसकी प्रतिध्वनि अल्बर्ट आइन्स्टीन में सुनकर मुझे अपार प्रसन्नता हुई थी।
हमारे विद्वान् साथी का कहना है कि लोहिया सिद्धांत दर्शन एक कमजोर संबल साबित हुआ है इसको छोड़कर नए विधान की रचना करनी होगी। परंतु वह रचना कौन सी है, या होगी। पूरे लेख में प्रश्न चिन्ह लगाए गए हैं, परंतु क्या होना चाहिए इस पर लेखक मौन है।
लोहिया की इतिहास दृष्टि यूरोपियन इतिहासकारों, मार्क्स, टायनबी, स्पेंगलर आदि से अलग है क्योंकि ये इतिहासकार इतिहास की गति रेखीय मानते हैं जबकि लोहिया चक्रीय-सिद्धांत के पक्षधर हैं क्योंकि इससे सभ्यताओं के उत्थान-पतन को समझा जा सकता है।
डॉ. लोहिया की इस किताब का असली मकसद इतिहास चक्र तोड़ने की जरूरत पर है, अब यह संभव हो पायेगा या नहीं यह दीगर बात है, और यह अमली जामा कैसे लेगा, उसका उत्तर लोहिया के अनुसार मार्क्स अथवा हीगल का पिछलग्गू बनकर नहीं बल्कि इतिहास की गति को समझकर। लोहिया लिखते हैं “इतिहास के मार्क्सवादी दृष्टिकोण की तुलना हीगल के दृष्टिकोण से करने पर दोनों एक-दूसरे के पूर्ण विरोधी मालूम पड़ते हैं। अपने दृष्टिकोण और विवेचना में दोनों एक दूसरे के विरुद्ध रखे जा सकते हैं क्योंकि जहाँ मार्क्स ने इतिहास के उद्देश्य के पीछे उत्पादन के तरीकों को देखा है वहीं हीगेल ने मनुष्य की आत्मा को, लेकिन दोनों का बुनियादी नतीजा एक ही होता है।
डॉ. लोहिया की मान्यता थी कि इतिहास के इन चक्र सिद्धांतों से अधिकांश की बातों में चाहे कोई सार्वभौमिक सच्चाई न हो, ये निश्चय ही पहले के एक ही दिशा में प्रगति मानने वाले सिद्धांत की तुलना में अधिक वस्तुपरक है और इतिहास के अध्ययन में इनकी बड़ी देन है।…… दुनिया के इतिहास को प्राचीन, मध्य और आधुनिक कालों में बांटना उनमें एक अवधि या रुक-रुक कर हुआ उत्थान बताना, सांस्कृतिक बर्बरता है जो दिलचस्प भी नहीं है। दूसरों के अलावा स्पेंगलर, टॉयनबी, नार्थ्राप और सोरोकिन ने इस बर्बरता का अंत करने की कोशिश की है चाहे किसी सभ्यता की लय-ताल की खोज करने में उन्होंने जो भी गलतियां की हों। उनके अध्ययनों से निश्चित ही ऐतिहासिक तथ्यों के वर्गीकरण के बहुमूल्य तरीके मिले हैं। सही ढंग से वर्गीकरण कर पाना, किसी बात को समझने का पहला कदम है।
लोहिया ने लिखा है कि अर्थशास्त्र में एडम स्मिथ और उऩके बाद के विद्वानों ने आगम तर्कों का एक विशाल ढाँचा खड़ा करके इस स्वस्थ विश्वास को कायम रखा है। राजनीति में ऐसा ही विश्वास प्रतिनिधि लोकतंत्र और बेन्थाम तथा मिल की कृतियों से जीवित रहा। समाजशास्त्र में यह विश्वास किया जाता था कि मनुष्य पहले के कबाइली ईश्वरवादी और तत्त्व ज्ञानात्मक आधारों से होकर आधुनिक नियतिवाद तक काम्टे और स्पेंसर में प्रतिबिंब आख्यान तक पहुँचा है। जर्मनों ने इस विश्वास को उसकी भावना के कठिन क्षेत्रों में ले जाकर दर्शन का खास तौर पर ऐतिहासिक दर्शन का एक विशाल ढाँचा प्रदत्त किया। हीगेल और फिश्ते ने अपने-अपने ढंग से मनुष्य की क्रमशः विकसित होने वाली संस्थाओं में मूर्त, जिनमें राज्य सर्वश्रेष्ठ है, इतिहास की आत्मा के निरंतर उत्थान के द्वारा स्वर्ग को पृथ्वी पर उतार दिया। हालाँकि लोहिया की मान्यता थी कि अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और इतिहास के इन दृष्टिकोणों में से कोई भी संगत नहीं है, लेकिन इनकी अस्वीकृति के बाद भी ये आधुनिक दिमाग का एक आवश्यक अंग बन गया है।
लेखक का कहना है कि न तो हीगेल और मार्क्स का इतिहास दर्शन और न ही लोहिया का इतिहास चक्र इस कसौटी पर खरा उतर पाया गया है। लोहिया ने कहां लिखा कि इतिहास चक्र टूटेगा ही, परंतु उनका सिद्धांत, इतिहास चक्र टूटने की तलाश में जरूर है। लोहिया जहाँ एक तरफ आधुनिक यूरोपीय संस्कृति की सीमाओं को उजागर करते हैं, वहीं उनकी खूबियों को एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानते हैं। इतिहास चक्र में लोहिया का संदेश है कि जो इंसानियत के लिए बेहतर है, उसको पाने के लिए हमेशा बड़ी शिद्दत तथा होशियारी से कोशिश होनी चाहिए।
आजकल की बुद्धिजीवी जमात में उपनिवेशवाद और उत्तर आधुनिकता जैसे अल्फाजों का जबरदस्त इस्तेमाल होता है परंतु लोहिया के संदर्भ में इसका इस्तेमाल वाजिब नहीं है।
लोहिया ने इतिहास चक्र के माध्यम से भारतीय प्रतीकों, अवधारणाओं को महत्त्वपूर्ण मानते हुए अपने को भारत की उदात्त परंपरा से जुड़ा हुआ तथा काल की अवधारणा में दंतकथाओं, साहित्य, कला, दर्शन इत्यादि के साथ-साथ मिथक को भी जरूरी माना है।
इतिहास चक्र का मुख्य सरोकार इतिहास पर है, हालाँकि डॉ. लोहिया खुद को इतिहासकार नहीं मानते थे वे इसमें वर्ग और वर्ण के रिश्तों को भी रेखांकित करते हैं, उनकी मान्यता थी कि अस्थिर वर्ण को वर्ग कहते हैं और स्थायी वर्ग वर्ण कहलाते हैं। लोहिया का कहना था कि जो लोग मानव समाज के सभी वर्गों और वर्णों का अंत करना चाहते हैं उन्हें मानव इतिहास की प्रेरक शक्ति को समझना होगा और समझकर ही ऐसे उपाय निकालने होंगे कि दोनों का अंत किया जा सके। इतिहास अपने आपसे यह काम नहीं करेगा। यह कोई स्वयं चालित गति नहीं है।
(जारी)