— रवींद्र गोयल —
भारत में मजदूरों का बहुलांश (94 प्रतिशत) असंगठित क्षेत्र में ही काम करता है जहाँ काम की हालत बहुत खराब है, और शेष जो संगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं उनका भी बड़ा हिस्सा ठेका या अस्थायी मजदूर की हैसियत से काम कर रहा है। संगठित क्षेत्र में ठेके पर काम करनेवाले या अस्थायी मजदूरों का कोई आधिकारिक आँकड़ा तो फिलहाल नहीं है पर यह संख्या काफी बड़ी है। उदहारण के लिए मारुति (गुडगाँव) में जहाँ ढाई हजार के करीब स्थायी मजदूर हैं वहीं अस्थायी मजदूरों की संख्या सात-आठ हजार के करीब होगी। इन मजदूरों से काम तो स्थायी मजदूरों वाला ही लिया जाता है लेकिन वेतन और सुविधाओं में भारी भेदभाव किया जाता है। इनके काम की स्थितियाँ बेशक असंगठित क्षेत्र से बेहतर जरूर हैं पर इसे किसी भी मायने में संतोषजनक नहीं कहा जा सकता।
मारुति के हालिया वेतन समझौते का विश्लेषण संगठित वर्ग की ‘मजदूर सच्चाई’ को उजागर करने के लिए किया जा रहा है। सच तो यह है कि संगठित क्षेत्र के अन्य प्रतिष्ठानों में भी अस्थायी मजदूरों की स्थिति भिन्न नहीं है। एक मजदूर ने सोशल मीडिया पर लिखा है ‘एस्कॉर्ट लिमिटेड में स्थायी कर्मचारियों की सैलरी में 15000 रुपया बढ़ाया गया। जबकि अस्थायी वर्कर की एक रुपया की बढ़ोतरी नही हुई।’ अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि संगठित क्षेत्र में ठेका या अस्थायी मजदूर रखकर फैक्ट्री मालिकान हजारों करोड़ रुपये कमा रहे हैं।
बीते 18 सितम्बर को मारुति प्रबंधन ने अपने यहाँ कार्यरत भिन्न-भिन्न किस्म के अस्थायी कर्मचारियों (अस्थायी मजदूरों, टेंपरेरी वर्कर (टीडब्ल्यू 1 और 2 ), अप्रेंटिस और कंपनी ट्रेनिंग कर्मचारी) के वेतन में भी वृद्धि की है। परमानेंट मजदूरों का समझौता कुछ समय पूर्व ही हुआ था।
जो खबरें मिल रही हैं उनसे पता चलता है कि नये समझौते के अनुसार सुजुकी कंपनी ने अपने स्थायी कर्मचारियों की वेतन बढ़ोतरी 27,000 रुपये प्रतिमाह के करीब की है (अन्य और सुविधाओं को जोड़ दिया जाए तो यह बढ़ोतरी तकरीबन 30,000 रुपये प्रतिमाह के करीब बैठेगी) जबकि अस्थायी कर्मचारियों के वेतन में सिर्फ 1,300 रुपये प्रतिमाह की बढ़ोतरी की है।
अस्थायी कर्मचारी यह सवाल सही ही उठा रहे हैं कि जब काम में भेदभाव नहीं है, उनसे भी स्थायी मजदूरों वाला काम ही लिया जाता है, तो वेतन समझौते के तहत दी जानेवाली बढ़ोतरी में भेदभाव क्यों?
यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि वेतन समझौते की यह बढ़ोतरी कंपनी कोई अपने मुनाफे में से नहीं दे रही है। यह बढ़ोतरी अतीत में मजदूरों के बेहतर काम और भविष्य में मजदूर की उत्पादकता के आकलन पर आधारित होती है।
मेरी जानकारी के अनुसार मारुति गुड़गाँव में फिलहाल 2500 तक स्थायी मजदूर हैं और 7000 से 8000 अस्थायी मजदूर हैं। इस हिसाब से मारुति के तीन प्लांटों (गुड़गाँव, मानेसर और गुजरात) में तकरीबन 20,000 अस्थायी कर्मचारी तो होंगे ही। यदि वर्तमान तीन साला समझौते में प्रत्येक स्थायी मजदूर और अस्थायी मजदूर को दी गयी मासिक बढ़ोतरी के फर्क को देखा जाए तो वो 28,700 रुपये बैठता है (स्थायी मजदूर की 30,000 की बढ़ोतरी और अस्थायी मजदूर की 1300 रुपये की बढ़ोतरी के बीच का फर्क)। या दूसरे शब्दों में नये समझौते में सभी अस्थायी मजदूरों को कुल 574000000 (सत्तावन करोड़ चालीस लाख) रुपये प्रतिमाह या 700 करोड़ रुपये सालाना का घाटा है।
यदि इस सवाल को फिलहाल छोड़ भी दिया जाए कि इतनी भारी संख्या में, विभिन्न नामों से, अस्थायी मजदूर रखना कहाँ तक वाजिब है और उनको स्थायी क्यों न किया जाना चाहिए, या यह सवाल भी यदि छोड़ दिया जाए कि जब अस्थायी मजदूर भी वही या वैसा ही काम करते हैं जैसा स्थायी मजदूर तो उनकी दोनों की मजदूरी में भारी फर्क का औचित्य क्या है, फिर भी यह माँग तो बनती ही है कि कंपनी को सभी मजदूरों को नये समझौते में बराबर अनुपात में बढ़ोतरी देनी चाहिए। आखिर कम्पनी की बढ़ती खुशहाली में अस्थायी मजदूरों का भी उतना ही योगदान है जितना स्थायी मजदूरों का।
आमतौर पर देखा भी जाता है, वेतन व अन्य सुविधा आदि में जब भी बदलाव किया जाता तो वो बराबर अनुपात में होता है। सरकारी वेतन आयोग में भी वेतन बढ़ोतरी करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है। या सरकार महँगाई भत्ता भी इसी हिसाब से देती है।
फिर भी अस्थायी मजदूरों के साथ, 700 करोड़ रुपये सालाना का यह धोखा यदि मारुति प्रबंधन आसानी से कर पाता है तो इसका प्रमुख कारण है कि अस्थायी मजदूरों का अपना कोई प्रभावी संगठन नहीं है। देश में सक्रिय विभिन्न मजदूर संघटनों के लिए यह कोई महत्त्वपूर्ण सवाल भी नहीं है तथा मारुति के स्थायी मजदूरों की यूनियन के लिए भी यह कोई बड़ा सवाल नहीं है। चेतना के अभाव में ये साथी अपने दूरगामी हितों की रक्षा के लिए अस्थायी मजदूरों के साथ एकता के महत्त्व को नहीं समझ पा रहे। यूनियन को संगठित करनेवाले वर्तमान नेता यह भूल जाते हैं कि अतीत में ठेका मजदूरों से एका के दम पर ही मारुति मजदूरों ने जुझारू संघर्ष लड़ा था और अपने लिए मानेसर में यूनियन की मान्यता और अपने वर्तमान अधिकारों को पाया था। और भविष्य में भी इसकी जरूरत पड़ेगी।
आज के दौर में धन के लोभी बेलगाम उद्योगपति टेक्नोलॉजी की दुनिया में हो रहे विकास की बदौलत निश्चित रूप से उत्पादन प्रक्रिया में ऑटोमेशन तथा रोबोटीकरण को बढ़ावा देंगे और इसके चलते मारुति समेत सभी उत्पादन इकाइयों में मजदूरों की छँटनी और वेतन-कटौती का दौर आना अवश्यम्भावी है। ऐसे में उत्पादन रोकना या ‘बैठकी हड़ताल’ ही मजदूरों के पास संघर्ष काएकमात्र प्रभावी रास्ता होगा। लेकिन वो अस्थायी मजदूरों के सक्रिय सहयोग के बिना असरदार न होगा।
यह एक दुखद सच्चाई है कि फिलहाल तो यह एकता नहीं बन पा रही है पर आशा है भविष्य में मारुति यूनियन के नेता इस कमी को दूर करने की कोशिश करेंगे। आज के समय में यह जरूरी है की मजदूर हितैषी सभी लोग यह सोचें कि संगठित क्षेत्र के ठेका मजदूरों को न्याय दिलाया जा सकता है।
(यदि अस्थायी कर्मचारियों की संख्या या मेरे अन्य आँकड़े गलत हैं तो मित्र ठीक करने में मदद करें।)