— कुमार प्रशांत —
सिपाही का अवसान शोक की नहीं, संकल्प की घड़ी होती है। सलेम नानजुन्दैया सुब्बाराव या मात्र सुब्बाराव जी या देशभर के अनेकों के लिए सिर्फ भाईजी का अवसान एक ऐसे ही सिपाही का अवसान है जिससे हमारे मन भले शोक से भरे हों, कामना है कि हमारे सबके दिल संकल्पपूरित हों। वे चुकी हुई मनःस्थिति में, निराश और लाचार मन से नहीं गये, काम करते, गाते-बजाते थक कर अनंत विश्राम में लीन हो गये। यह वह सत्य है जिसका सामना हर प्राणी को करना ही पड़ता है और आपकी उम्र जब 93 साल छू रही हो तब तो कोई भी क्षण इस सत्य का सामना करने का क्षण बन सकता है। 27 अक्टूबर 2021 की सुबह 6 बजे का समय सुब्बाराव के लिए ऐसा ही क्षण साबित हुआ। दिल का एक दौरा पड़ा और दिल ने साँस लेना छोड़ दिया। गांधी की कहानी के एक और लेखक ने कलम धर दी।
सुब्बाराव जी आजादी के सिपाही थे लेकिन वे उन सिपाहियों में नहीं थे जिनकी लड़ाई 15 अगस्त 1947 को पूरी हो गयी। वे आजादी के उन सिपाहियों में थे जिनके लिए आजादी का मतलब लगातार बदलता रहा और उसका फलक लगातार विस्तीर्ण होता गया। कभी अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति की लड़ाई थी तो कभी अंग्रेजियत की मानसिक गुलामी से मुक्ति की। फिर नया मानवीय व न्यायपूर्ण समाज बनाने की रचनात्मक लड़ाई विनोबा-जयप्रकाश ने छेड़ी तो वहाँ भी अपना हाफपैंट मजबूती से डाटे सुब्बाराव हाजिर मिले।
यह कहानी 13 साल की उम्र में शुरू हुई थी जब 1942 में गांधीजी ने अंग्रेजी हुकूमत को ‘भारत छोड़ो’ का आदेश दिया था। किसी गुलाम देश की आजादी की लड़ाई का नायक, गुलामकर्ता देश को ऐसा सख्त आदेश दे सकता है, यही बात कितनों को झकझोर गयी और कितने सबकुछ भूलकर इस लड़ाई में कूद पड़े। कर्नाटक के बंगलारू के एक स्कूल में पढ़ रहे 13 साल की भीगती मसों वाले सुब्बाराव को दूसरा कुछ नहीं सूझा तो उसने अपने स्कूल व नगर की दीवारों पर बड़े-बड़े हरफों में लिखना शुरू कर दिया : क्विट इंडिया!नारा एक ही था तो सजा भी एक ही थी- जेल! 13 साल के सुब्बाराव जेल भेजे गये। बाद में सरकार ने उम्र देखकर उन्हें रिहा कर दिया लेकिन हालात देखकर सुब्बाराव ने इस काम से रिहाई नहीं ली- कभी नहीं! आजादी की आवाज लगाता वह किशोर जो जेल गया तो फिर जैसे लौटा ही नहीं; आवाज लगाता-लगाता अब जाकर महामौन में समा गया!
आजादी की लड़ाई लड़ने का तब एक ही मतलब हुआ करता था- कांग्रेस में शामिल हो जाना! कांग्रेसिया है तो आजादी का सिपाही है- खादी की गांधी-टोपी और खादी का बाना तो समझो, बगावत का पुतला तैयार हो गया! ऐसा ही सुब्बाराव के साथ भी हुआ। कांग्रेस से वे कांग्रेस सेवा दल में पहुँचे और तब के सेवा दल के संचालक हार्डिकर साहब की आँखें उनपर टिकीं। हार्डिकर साहब ने सुब्बाराव को एक साल कांग्रेस सेवा दल को देने के लिए मना लिया। युवकों में काम करने का अजब ही इल्म था सुब्बाराव के पास; और उसके अपने ही हथियार थे उनके पास। भजन व भक्ति संगीत तो वे स्कूल के जमाने से गाते थे, अब समाज परिवर्तन के गाने गाने लगे। आवाज उठी तो युवाओं में उसकी प्रतिध्वनि उठी।
कर्नाटकी सुब्बाराव ने दूसरी बात यह पहचानी कि देश के युवाओं तक पहुँचना हो तो देशभर की भाषाएँ जानना जरूरी है। इतना सारी भाषाओं पर ऐसा अधिकार इधर तो कम ही मिलता है। ऐसे में कब कांग्रेस का, कांग्रेस सेवा दल का चोला उतर गया और सुब्बाराव खालिस सर्वोदय कार्यकर्ता बन गये, किसी ने पहचाना ही नहीं।
1969 का वर्ष गांधी-शताब्दी का वर्ष था। सुब्बाराव की कल्पना थी कि गांधी-विचार और गांधी का इतिहास देश के कोने-कोने तक पहुँचाया जाए। सवाल कैसे का था तो जवाब सुब्बाराव के पास तैयार था : सरकार छोटी-बड़ी दोनों लाइनों पर दो रेलगाड़ियां हमें दे तो मैं गांधी-दर्शन ट्रेन का आयोजन करना चाहता हूँ। यह अनोखी ही कल्पना थी। पूरे साल भर ऐसी दो रेलगाड़ियाँ सुब्बाराव के निर्देश में भारत-भर में घूमती रहीं, यथासंभव छोटे-छोटे स्टेशनों पर पहुँचती-रुकती रहीं और स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी, नागरिक, स्त्री-पुरुष इन गाड़ियों के डिब्बों में घूम-घूम कर गांधी को देखते-समझते रहे। यह एक महा अभियान ही था। इसमें से एक दूसरी बात भी पैदा हुई : देशभर के युवाओं से सीधा व जीवंत संपर्क! रचनात्मक कार्यकर्ता बनाने का कठिन सपना गांधीजी का था, सुब्बाराव ने रचनात्मक मानस के युवाओं को जोड़ने का काम किया।
मध्यप्रदेश के चंबल के इलाकों में घूमते हुए सुब्बाराव के मन में युवाओं की रचनात्मक वृत्ति को उभार देने की एक दूसरी पहल आकार लेने लगी और उसमें लंबी अवधि के, बड़ी संख्या वाले श्रम-शिविरों का सिलसिला शुरू हुआ। सैकड़ों-हजारों की संख्या में देशभर से युवाओं को संयोजित कर शिविरों में लाना और श्रम के गीत गाते हुए खेत-बाँध-सड़क-छोटे घर, बंजर को आबाद करना और भाषा के धागों से युवाओं की भिन्नता को बाँधना उनका जीवन-व्रत बन गया! यह सिलसिला कुछ ऐसा चला कि देश-विदेश सभी जगहों पर उनके मुरीद बनते चले गये। वे चलते-फिरते प्रशिक्षण-शिविर बन गये। ऐसे अनगिनत युवा-शिविर चलाये सुब्बाराव ने। देश के कई अशांत क्षेत्रों को ध्यान में रखकर, वे चुनौतीपूर्ण स्थिति में शिविरों का आयोजन करने लगे।
चंबल डाकुओं का अड्डा माना जाता था। एक-से-एक नामी डाकू गैंग वहाँ से लूट-मार कर अपना अभियान चलाते थे और फिर इन बीहड़ों में आकर छिप जाते थे। सरकार करोड़ों रुपए खर्च करने और खासा बड़ा पुलिस-बल लगाने के बाद भी कुछ खास परिणामकारी कर नहीं पाती थी। फिर कहीं से कोई लहर उठी और डाकुओं की एक टोली ने संत विनोबा भावे के सम्मुख अपनी बंदूकें रख कर कहा : हम अपने किये का प्रायश्चित करते हैं और नागरिक जीवन में लौटना चाहते हैं! यह डाकुओं का ऐसा समर्पण था जिसने देश-दुनिया के समाजशास्त्रियों को कुछ नया देखने-समझने पर मजबूर कर दिया। विनोबा का रोपा आत्मग्लानि का यह पौधा विकसित होकर पहुँचा जयप्रकाश नारायण के पास और फिर तो कुछ ऐसा हुआ कि चार सौ से ज्यादा डाकुओं ने जयप्रकाश जी के चरणों में अपनी बंदूकें डाल कर डाकू-जीवन से मुँह मोड़ लिया।
इनमें ऐसे डाकू भी थे जिन पर सरकार ने लाखों रुपयों के इनाम घोषित कर रखे थे। इस सार्वजनिक दस्यु-समर्पण से अपराध-शास्त्र का एक नया पन्ना ही लिखा गया। जयप्रकाश जी ने कहा : ये डाकू नहीं, हमारी अन्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था से बगावत करनेवाले लेकिन भटक गये लोग हैं जिन्हें गले लगाएंगे हम तो ये रास्ते पर लौट सकेंगे। बागी समर्पण के इस अद्भुत काम में सुब्बाराव की अहम भूमिका रही। चंबल के क्षेत्र में ही, जौरा में सुब्बाराव का अपना आश्रम था जो इस दस्यु-समर्पण का एक केंद्र था।
सुब्बाराव ने बहुत कुछ किया लेकिन अपनी धज कभी नहीं बदली। हाफपैंट और शर्ट पहने, हँसमुख सुब्बाराव बहुत सर्दी होती तो पूरी बाँह की गर्म शर्ट में मिलते थे। अपने विश्वासों में अटल लेकिन अपने व्यवहार में विनीत व सरल सुब्बाराव गांधी-विद्यालय के अप्रतिम छात्र थे। वे आज नहीं हैं क्योंकि कल उन्होंने विदा माँग ली। लेकिन उनका विद्यालय आज भी खुला है और नये सुब्बारावों बुला रहा है।