— कुमार शुभमूर्ति —
दक्षिण अफ्रीका से महात्मा गांधी 1915 में भारत आए। गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह को आदेश मानकर भारत भर में घूमे। बड़े नेताओं बड़े लोगों से मिले। भारत की आम जनता से तादात्म्य बैठाया। उनकी मुसीबतें देखीं और उनकी नब्ज की आवाज सुनी। महात्मा गांधी को सत्याग्रह की बुनियाद पर देश को खड़ा करना था। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होना था। इसे ही ध्यान में रखकर उन्होंने अहमदाबाद के कोचरब में ‘सत्याग्रह आश्रम’ 1916 में स्थापित किया। लेकिन थोड़ी ही दूर साबरमती नदी के किनारे की वह जमीन उन्हें पसंद आ गयी जो जेल और श्मशान के बीच फैली थी। उसे उन्होंने अपने पैसे से खरीद लिया।
कोचरब आश्रम तो अपनी जगह रह गया लेकिन उसका ‘सत्याग्रह आश्रम’ 1917 में साबरमती के किनारे आ गया। यही ‘सत्याग्रह आश्रम’, साबरमती आश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। महात्मा गांधी के अनुसार, इस आश्रम में वैसे सत्याग्रही रहेंगे, शिक्षित और प्रशिक्षित होंगे, जिन्हें प्रचलित अर्थों में नहीं एक नये अर्थ में आजादी पानी है। वे न जेल जाने से डरेंगे और ना आजादी के लिए शहीद होकर श्मशान तक पहुँचने से।
समय बीतते न बीतते देश में सत्याग्रह की हवा बहने लगी। 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी पर्व के अवसर पर अनेक स्थानों की तरह जलियांवाला बाग में भी लोगइकट्ठा हुए। इकट्ठा हुए तो सत्याग्रही अंदाज में आजादी की बात करने लगे। खुलेआम और वह भी निहत्थे लोगों को आजादी की बात करते देख अंग्रेज अफसर जनरल डायर आग बबूला हो गया। दीवारों से घिरे बाग के एकमात्र मुहाने पर उसने मशीनगन बैठा दी। हजारों की संख्या में जुटी औरतों, बच्चों और पुरुषों की भीड़ पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसने लगीं। करीब 11 सौ लोग गोलियों की बौछार से मारे गये। हजारों घायल हुए। भागें तो भागें कहाँ? बहुत सारे लोग बाग में बने कुएँ में कूदकर, आपस में दबकर मर गये। बाद में भी डायर को ना तो कोई शर्म थी और ना कोई पश्चाताप।
जलियांवाला बाग की घटना ने साबरमती आश्रम को हिलाकर रख दिया। अब तक जो गांधी अंग्रेजों को न्यायपरस्त और कानून की इज्जत करनेवाला मानते थे और उनसे अंग्रेजी साम्राज्य के अंदर ही बराबरी का हक चाहते थे एक झटके में बदल गये। अंग्रेजी सरकार को उन्होंने शैतानी सरकार घोषित कर दिया। घटनाक्रम तेजी से बदलता गया और 1920 में गांधी ने सत्याग्रह के एक रूप, असहयोग आंदोलन का बिगुल बजा दिया कि स्वराज्य 1 वर्ष में लेकर के रहेंगे।
आगे क्या हुआ इस बात को यहीं छोड़ जलियांवाला बाग की बात पर आते हैं। यह बाग अब घूमने-फिरने और तफरीह की जगह नहीं रह गया, शहीदों की यादगार स्थली बन गया। दूसरे दिन से ही आजादी की चाहत रखनेवाले लोग यहाँ आने लगे। आजादी और शहादत की प्रेरणा लेकर जाने लगे। इन्हीं लोगों में से एक शहीद-ए-आजम भगत सिंह भी थे।
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरनेवालों का यही बाकी निशां होगा। 1916 में लिखी गयी यह शायरी जिसे रामप्रसाद बिस्मिल खूब गाते थे, जलियांवाला बाग में पूरी तरह चरितार्थ हुई। यह बाग एक शहीद स्मारक के रूप में तीर्थ बन गया।
उस वक्त हिंदुस्तानियों की एक जमात ऐसी थी जो आजादी की लड़ाई में शामिल तो क्या रहती, देश में एकता की भावना बढ़ाने के बदले हिंदुओं में सांप्रदायिक दुर्भावना को जगाने में लगी थी।
आज भारत की राज्यसत्ता पर वही जमात काबिज है।
इस जमात के लिए बड़ा मुश्किल है वहाँ जाकर जालियांवाला बाग की चीख-पुकार को सुनना,गोलियों की आवाज सुनना और आजादी के लिए शहीद हो गये– हिन्दू हों या मुसलमान– लोगों से प्रेरणा लेना। वह तो इसे घूमने-फिरने लायक एक ऐतिहासिक पर्यटन स्थल के रूप में ही देखेगा।
स्वभावतः आज की सरकार ने ऐसा ही सोचा। करोड़ों रुपये खर्च कर उसके उद्धार के नाम पर जो परिवर्तन किये गये, ऐतिहासिक निशान बदले और मिटाये गये,जो रह गये वे चमकाये गये कि उस शहीद स्थली का उद्धार नहीं बंटाधार हो गया। अब ठीक उसी प्रकार की सोच लेकर साबरमती आश्रम के ‘उद्धार’ की योजना बनायी गयी है जिस पर 100-200 नहीं 12 सौ करोड़ रुपये खर्च करने की योजना है। जिन लोगों का सत्याग्रह की अहिंसा से विरोध था और है, जो गांधीसे नफरत करते थे और करते हैं, वे लोग गांधी और उसके कार्यों की यादगार स्थलियों को छूने की हिम्मत कैसे करते हैं? यदि आश्रम या संस्थान वाले उनसे आर्थिक मदद माँगें तो यह बात भी असमंजस में डालती है लेकिन समझ में आ सकती है। पर बिनापूछे, बिना बताये सरकार गुप्त रूप से पुनरुद्धार के नाम पर योजना बनाये तो फिर योजना के उद्देश्य पर शक करना और विरोध करना आवश्यक है।
जिस प्रकार से यह सरकार चौतरफा मुहिम चलाकर महात्मा गांधी को बदनाम करने, उनका नैतिक और राजनैतिक अवमूल्यन करने की अनेक प्रकार से कोशिश कर रही है इसे देखते हुए उसकी मंशा पर शक करना लाजिमी है। अवमूल्यन करने की मुहिम के साथ-साथ जिस तरह इतिहास की तथा अन्य पुस्तकों में बदलाव कर गलत तथ्यों या कल्पनाओं पर आधारित पाठ्य सामग्री उपलब्ध करायी जा रही है, जिस तरह से घटनाओं या व्यक्तियों का अपने हिसाब से महिमामंडन या साधारणीकरण किया जा रहा है उससे स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता सेनानियों और स्वतंत्रता संग्राम की महत्ता और मूल्यों का ही विकृतिकरण और अवमूल्यन किया जा रहा है।
एक सज्जन ने कहा कि मैं अमृतसर घूमकर आ रहा हूँ। वहाँ जलियांवाला बाग भी देखा। बहुत अच्छा बनाया है। स्वच्छता भी है और सुंदरता भी। मैंने जब जलियाँवाला बाग का इतिहास बताया और पूछा कि इसके शहीदी इतिहास की झलक दिखी? इस प्रश्न का उत्तर तो नकारात्मक था लेकिन उसने कहा कि आज की पीढ़ी को यह इतिहास मालूम ही कहाँ है? उसके लिए तो जो है वही बहुत अच्छा और प्रभावित करनेवाला है।
एक भ्रमित इतिहास को गढ़ने की यही प्रक्रिया है। जो अनजान है उसके सामने जो परोसोगे उसे ही वह सच मान लेगा। ऐसी ही समझ के साथ जलियांवाला बाग के बाद अब साबरमती आश्रम उनके ध्यान में आया है। सेवाग्राम आश्रम के बारे में भी उनकी योजना बन रही होगी। इसीलिए आज साबरमती आश्रम की विरासत के विकास की सरकारी गुप्त योजना का जोविरोध हो रहा है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
अपनी बनायी योजना के बारे में सरकार जो प्रचार कर रही है, वह अच्छा है या बुरा, उसमें क्या सही है और क्या गलत, यह हमारे लिए विचारणीय नहीं है।
विरोध के पीछे जो कुछ अकाट्य मान्यताएँ हैं उन्हें ध्यान में रखना होगा। गांधी के आश्रमों या उनकीअन्य विरासतों में जो भी सुधार हो, सरकार या संस्था जो भी करें उन्हें गांधी के स्पष्ट और सर्वविदित मूल्यों और भावनाओं के अनुरूप ही होना चाहिए। उनमें से कुछ गिनाये जा सकते हैं : 1. स्वच्छता 2. सादगी 3. प्राकृतिक वातावरण 4. सर्व सुलभता 5. जिस प्रकार के संसाधनों से निर्मिति हुई हो उन्हीं का उपयोग 6. निर्मित ढाँचों की रूपरेखा मूल ढाँचे से अलग ना हो । इन योजनाओं को, यथासंभव ज्यादा से ज्यादा भागीदारी, साझेदारी और पारदर्शिता के साथ बनाया जाना चाहिए।
साबरमती आश्रम में 12 सौ करोड़ रुपयों का जोसरकारी हस्तक्षेप है उसका प्रतिरोध सर्वोदय आंदोलन से जुड़े कई संगठन और संस्थाएं कर रही हैं। आश्रम के व्यवस्थापक और इन गांधी विचार के संगठनों के साथ सरकार को साझेदारी करनी चाहिए और इनसबकी भागीदारी से जो भी योजना बने उसे स्वीकार करना चाहिए।