— दिवेश रंजन —
साल में ऐसे कई पर्व हैं जिसमें बहनें अपने भाइयों के लिए व्रत रखती हैं और पूजा करती हैं लेकिन ऐसा कोई पर्व नहीं है जिसमें भाई बहनों की पूजा करें। हमारे समाज में महिलाएं शादी से पहले भाई की पूजा करती हैं फिर शादी के बाद पति की पूजा करती हैं। साल में ऐसे कई पर्व हैं जिसमें विवाहित स्त्री अपने पति की लंबी उम्र के लिए तीज, करवाचौथ, वट सावित्री इत्यादि व्रत करती है और बच्चे होने के बाद बच्चों की खुशहाली, स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिए भी जीतिया आदि व्रत करती है। ऐसा लगता है जैसे पूरे परिवार के स्वास्थ्य, लंबी उम्र और तरक्की व खुशहाली के लिए व्रत रखने की जिम्मेवारी महिला के कंधे पर ही है।समाज के ऐसे रिवाज सदियों से चले आ रहे हैं। लेकिन ऐसे कोई पर्व नहीं मिलते जिसमें भाई बहन की पूजा करे या फिर पति पत्नी की पूजा करे, हालांकि हमारे समाज में कन्या पूजन का प्रचलन है और बाकी मदर्स डे भी नये दौर में मनाया जा रहा है।
महिलाओं का, बहन या पत्नी या माँ के रूप में, पूजा ना किया जाना उन्हें कहीं ना कहीं सामाजिक असमानता का शिकार बनाता है। सुंदरता, प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा के तर्कों की अग्नि में उनकी स्वतन्त्रता और समानता की आहुति दी जाती है और इसका परिणाम भ्रूण हत्या, लैंगिक असमानता, दहेज प्रथा, महिला उत्पीड़न और घरेलू हिंसा जैसे विभिन्न रूपों में देखने को मिलता है।
अभी हमारे देश में हरेक 1000 पुरुषों पर केवल 948 महिलाएं हैं। आप मार्केट, चौक-चौराहों पर देखें लड़कियां बहुत कम दिखेंगी। पुरुषों के पाखंडी समाज ने मान मर्यादा, इज्जत, लिहाज जैसी बेड़ियों से इन्हें चारदीवारियों में बांध कर रख दिया है। पुरुष कुछ भी करें सब चलता है लेकिन जब महिलाएं यही करें तो उन्हें कुलटा, निर्लज्ज और क्या-क्या नहीं कहा जाता है! आदर्श ये होना चाहिए कि महिलाएं भी स्वच्छंद और निर्भय होकर कभी भी बाहर निकल सकें और पारिवारिक व वित्तीय जिम्मेदारियों और निर्णयों में भागीदार हों। आदर्श ये होना चाहिए कि यदि कोई भाई महिला मित्र बनाता है तो उसे अपनी बहन के पुरुष मित्र होने पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वैदिक काल में हमारे समाज में महिलाएं इतनी स्वतंत्र थीं कि उन्हें अपने पति चुनने की पूरी स्वतन्त्रता थी। समय के साथ महिलाओं की सहभागिता कम होती गयी, उनकी स्थिति बद से बदतर होती गयी।
अंग्रेजों के शासन तक समाज में महिलाओं की इतनी बुरी स्थिति थी कि बहुत से लोग अंग्रेजी शासन का समर्थन करते थे, इस खयाल से कि शायद अंग्रेज न होते तो सती प्रथा जैसी कुप्रथाओं को समाज से खत्म कर पाना मुश्किल था।राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती जैसे समाज सुधारकों और अंग्रेजों के कड़े नियमों-कानूनों का सम्मिलित प्रभाव था कि यह कुप्रथा खत्म हो पायी। एक विधवा की जिंदगी कैसे जिल्लत की जिंदगी हो जाती थी, कैसे डायन और असगुन जैसी संज्ञाओं से उसका पीछा नहीं छूटता था, बाल विवाह कैसे दुर्गति का कारण बनता था, इसके काफी वर्णन साहित्य में मिलते हैं।
समय के साथ हमने महिलाओं से संबंधित बहुत सारी समस्याओं के समाधान किये हैं लेकिन बहुत सारी समस्याएँ जैसे भ्रूण हत्या, लैंगिक असमानता, दहेज प्रथा, प्रतिनिधित्व असमानता आदि विकराल होती जा रही हैं, उन्हें खत्म करने की जरूरत है। आज भी विधवाएं झूठी नैतिकता की सूली पर अपनी बाकी पूरी जिंदगी अभिशाप की तरह जीती हैं, बहुत सारी जगहों पर पुनर्विवाह को जायज नहीं माना जाता। हमारे समाज में गांवों और शहरों में अधिकतर मध्यवर्गीय परिवारों में सिर्फ पुरुष अर्थोपार्जन करते हैं, पितृसत्तात्मक विचारों के वर्चस्व के चलते महिलाओं को आज भी काम करने नहीं दिया जाता है। यदि महिलाएं भी काम करें और पारिवारिक आय में भागीदारी निभाएँ तो हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद और आय में काफी बढ़ोतरी हो सकती है।
दुनिया के दो तिहाई असाक्षर महिलाएं हैं। देश की आजादी के 75 साल में केवल एक महिला राष्ट्रपति और एक महिला प्रधानमंत्री हुईं। सिर्फ 11 फीसद हाईकोर्ट जज महिलाएं हैं। 17वीं लोकसभा में अभी तक सबसे अधिक महिला भागीदारी हुई जो कि महज लगभग 14.4 फीसद है जबकि वैश्विक औसतन पार्लियामेंट में महिलाओं की भागीदारी 24.6 फीसद है। अमरीका में कानून बनाने वालों में 32 फीसद महिलाएं हैं, यहाँ तक कि बांग्लादेश में भी 21 फीसद सांसद महिलाएं हैं।
वैश्विक आर्थिक मंच द्वारा जारी ताजा ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट-2021 में 156 देशों की सूची में भारत 140वें स्थान पर है। भारत में महिलाओं की हर स्तर पर भागीदारी बहुत कम है जिसे बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है। हर विकसित देश में महिलाओं को भारत की तुलना में काफी स्वतन्त्रता और समानता हासिल है। यहीं नही, हमारे देश के जिन राज्यों में महिलाओं की स्थिति, स्वतन्त्रता और समानता के मानकों पर, अच्छी है वो अन्य राज्यों की तुलना में काफी आगे हैं जैसे केरल, पुडुचेरी, बंगाल, असम, इत्यादि।
यदि महिलाओं की समाज में भागीदारी बढ़े, वो वित्त अर्जन करें और पारिवारिक निर्णयों में भी उनकी भागीदारी हो, हर स्तर पर प्रतिनिधित्व में समानता हो तो हमारा समाज और देश बहुत तेजी से आगे विकास के रास्ते पर बढ़ेगा जिससे बहुत सारी सामाजिक समस्याएँ स्वतः खत्म हो जाएंगी। यह सिर्फ सरकार के द्वारा सख्त नियम बनाने से नहीं होगा बल्कि एक व्यापक सामाजिक जागरूकता, चिंतन और जिम्मेवारी से ही संभव है। यदि समाज में ऐसे पर्व का भी प्रचलन हो जिसमें भाई बहन की पूजा करे और पति पत्नी की पूजा करे तो एक सामूहिक जागरूकता आएगी जिससे महिलाओं के प्रति पुरुषों का नजरिया समतामूलक हो पाएगा और महिलाएं अधिक स्वतन्त्रता व सम्मान के साथ आगे बढ़ेंगी।