— सुज्ञान मोदी —
आजादी का अमृत महोत्सव वर्ष मनाया जा रहा है। लेकिन किसी भी आधुनिक राष्ट्र के जीवन में 75 वर्ष का समय उसकी किशोरावस्था का ही द्योतक है। फिर भी, एक सभ्यता और संस्कृति के रूप में भारत दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से प्रमुख रहा है। धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में अपने निरंतर सत्य-शोधन से यह पूरी मानवजाति को दिशा देता रहा है। कोई भी राष्ट्र तभी सम्यक उन्नति कर सकता है जब वह आधुनिकता और परंपरा का समुचित समन्वय करते हुए ही आगे बढ़े।
भारत की आजादी में जिस महापुरुष ने निर्विवाद रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, उन मोहनदास गांधी ने उस समय की आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा विलायत से पायी थी। लेकिन माता से मिली पारंपरिक धर्मशिक्षा ने आधुनिकता के चारित्रिक दोषों से वहाँ भी उनकी रक्षा की। माता की दिलायी शाकाहार की शपथ की वजह से ही उनकी सद्संगति विलायत में भी आध्यात्मिक व्यक्तियों से ही हुई। और जब बैरिस्टरी पढ़कर भारत लौटे तो माता को खो चुके थे। अब कौन रहा सहारा जो उनके मन में घुमड़ते नये धार्मिक और आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान देता।
लेकिन सत्य का नियम है कि ‘जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ’। भारत में कदम रखते ही प्रथम दिन ही एक समवयस्क गृहस्थ योगी से गांधी का परिचय होता है। उनकी सिद्धियों की वे परीक्षा भी लेते हैं। लेकिन सिद्धियों से ज्यादा वे उनकी जीवन-चर्या और पवित्रता से प्रभावित होते हैं। श्रीमद् राजचंद्र उनके जीवन में ऐसे प्रकाश-स्तंभ की तरह आते हैं जो जिज्ञासाओं की गहन गुफा में उनके सारे द्वंद्वों का समाधान करने में सक्षम हों। गांधीजी उनकी धर्मसाधना पर मोहित हो जाते हैं। उनके साथ निकट की संगति करते हैं। उनके सामने अपने सारे अंतरंग प्रसंग रखते हैं। गृहस्थ-जीवन की भी गुत्थियाँ सुलझाते हैं। दाम्पत्य जीवन में संयम के पालन की सीख भी उन्हें श्रीमद् से ही मिलती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जैसे व्रतों से युक्त व्रतनिष्ठ जीवन की प्रेरणा भी उन्हें श्रीमद् से मिलती है।
इसके बाद गांधीजी अगले लगभग बीस वर्षों के लिए दक्षिण अफ्रीका रवाना हो जाते हैं। फिर वहाँ से भी श्रीमद् के साथ उनका पत्राचार चलता है। एक भोले जिज्ञासु की भाँति वे अपने सारे प्रश्न श्रीमद् को लिख भेजते हैं। और श्रीमद् न केवल उन्हें सारे सवालों का सिलसिलेवार उत्तर भेजते हैं, बल्कि उनके स्वाध्याय हेतु भारतीय आध्यात्मिक परंपरा के श्रेष्ठ ग्रंथ भी उन्हें भेजते हैं। ध्यान देने की बात यह है कि 1893 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका रवाना होते हैं और उसके आठ वर्ष के बाद मात्र 33 वर्ष की आयु में श्रीमद् का देहविलय हो जाता है। इन आठ वर्षों के दौरान गांधीजी का श्रीमद् से केवल पत्राचार हुआ। उनके साथ प्रत्यक्ष संगति का अवसर नहीं मिला। जबकि ये आठ वर्ष श्रीमद् के जीवन अत्यंत सघन तपस्या के काल रहे। यानी जिस अवस्था में गांधीजी ने श्रीमद् से प्रत्यक्ष संगति कर उनका इतने महान व्यक्ति के रूप में मूल्यांकन किया था, श्रीमद् अगले आठ वर्षों में उससे कहीं अधिक ऊँचाई पर जा चुके थे। इसका पता हमें उनके द्वारा लिखित पत्रों, डायरियों इत्यादि से होता है।
अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में गांधीजी ने भारत की आजादी की जो रूपरेखा दुनिया के सामने सूत्र रूप में रखी है उसका स्वर गहरे रूप में आध्यात्मिक है। वे भारतीय परंपरा की प्राकृतिक सरल-सहज जीवन-चर्या के बरअक्स पश्चिम की भोगवादी, मशीनी, आक्रामक, युद्धवादी और शोषणकारी जीवन-दृष्टि को सामने रखते हैं। गांधीजी की इस दृष्टि पर श्रीमद् का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। धर्मपंथ अर्थात् मजहब या पंथमतवादी संगठित धर्म की प्रचलित समझ से गांधीजी को उबारकर उन्होंने कितना बड़ा उपकार भारत पर किया यह बात समय के साथ-साथ और भी प्रकट होती जाएगी। अपनी आत्मकथा में गार्हस्थ्य जीवन में भी ब्रह्मचर्य संबंधी श्रीमद् की सीख को वे याद करते हैं और कहते हैं कि दाम्पत्य में महान जीवनोद्देश्यों से पैदा हुआ देहासक्ति रहित प्रेम कैसे खिलता है, वह श्रीमद् ने उन्हें बताया। तरुणावस्था में ही रचित श्रीमद् के काव्य-ग्रंथ ‘स्त्रीनीतिबोध’ में उनका देश-प्रेम और नारी-शक्ति संबंधी क्रांतिकारी विचारों की झलक मिलती है।
गांधीजी ने कहा है कि उनके सत्याग्रह में तब तक वह बल पैदा नहीं हुआ जब तक उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे व्रतों को बहुत हद तक जीवन में साध न लिया। इसके पीछे श्रीमद् की प्रेरणा स्पष्ट रूप से कार्य करती दिखती है। 16 नवंबर, 1921 को अहमदाबाद की एक सभा में गांधीजी कहते हैं कि उनके असहयोग आंदोलन के पीछे भी श्रीमद् के दयाधर्म की प्रेरणा कार्य कर रही है। जमशेद जी टाटा को श्रीमद् समाजहित में धन के सदुपयोग की ऐसी प्रेरणा देते हैं कि वे अपनी संपत्ति को ट्रस्ट रूप में परिणत कर देते हैं। आगे इससे जमनालाल बजाज और घनश्याम दास बिड़ला जैसे उद्योगपति भी प्रेरणा पाते हैं। प्राणजीवनदास मेहता तो गांधीजी को तन-मन-धन से जीवनपर्यंत सहयोग देते ही हैं।
इतना होने पर भी हम कह सकते हैं कि श्रीमद् की मूल प्रेरणा आत्मज्ञान के माध्यम से सत्य के दर्शन और उसी में समाहित हो परम मुक्ति की प्राप्ति ही है। उस दिशा में बढ़ने मात्र से व्यक्ति, परिवार, पड़ोस, समाज, अर्थव्यवस्था, राजनीति अपने आप ठीक रास्ते लगने लगेगी। भगवान महावीर के ‘अहिंसा संजमो तवो’ अर्थात् अहिंसा, संयम और तप के मार्ग पर चलकर ही आज दुनिया को भयानक हिंसा, युद्ध, शस्त्रीकरण की होड़, उपभोक्तावाद, असत्य-आधारित कूटनीति, लोभ, प्रदूषण, बीमारी और पर्यावरणीय संकटों से छुटकारा मिल सकता है। यह जीवन-संदेश श्रीमद् की संगति से गांधीजी को प्राप्त होता है और फिर गांधीजी के माध्यम से संत विनोबा और लोहिया जी अलग-अलग रूपों में इसे स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में जन-जन तक ले जाने का प्रयास करते हैं।
यह तपोनिष्ठ श्रीमद् का पुण्य-प्रताप ही है कि देश और दुनिया के कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर नयी पीढ़ी के लोग भी उनके भक्तों द्वारा संचालित मिशनों में बड़ी संख्या में जुड़ रहे हैं और बड़े-बड़े सत्कार्यों में लगे हुए हैं। कबीर, रैदास, मीरा, नानक और बुल्लेशाह जैसे अनेकानेक मुक्तात्माओं की तरह ही श्रीमद् का मार्ग भी ‘एकै साधै सब सधै’ वाला मार्ग है। सत्य, प्रेम, करुणा और आत्मसाधना के इस सीधे-सरल मार्ग को यदि हम जीवन में धारण कर सकें, तो ही जीवन और जगत दोनों का सम्यक समाधान मिलना है। सत्पुरुषों का योगबल जगत का कल्याण करे, यही अहोभाव जागता है।