— राजेन्द्र राजन —
अपने बनाये तीन कृषि कानून प्रधानमंत्री ने वापस लेने की जैसे ही घोषणा की, फौरन आम प्रतिक्रिया यही थी कि यह किसानों की जीत है। ऐसा कहना एकदम स्वाभाविक और वाजिब है। लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि क्या एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून इस तरह से बनने चाहिए? क्या हमारे लोकतंत्र की हालत ऐसी हो गयी है कि प्रधानमंत्री की हैसियत एक तानाशाह की है?
तीनों कृषि कानून हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की चरम सिकुड़न की देन थे। जो विषय केंद्र के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते उनसे ताल्लुक रखनेवाले कानून कैसे बने? मोदी राज में राज्यों के अधिकारों और संघीय ढांचे पर यह पहला हमला नहीं था, बल्कि लगातार हो रहे हमलों में सबसे दुस्साहसिक हमला था। फिर संसदीय मर्यादा की तौहीन करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। यह भी मोदी सरकार की एक फितरत बन चुकी है। संविधान संशोधन बिल को धन विधेयक (मनी बिल) के रूप में पेश करके सरकार पहले ही बता चुकी थी कि वह संसदीय नियम-कायदों और परिपाटी की बहुत परवाह नहीं करती।
तीनों कृषि बिल राज्यसभा में किस तरह पास कराये गये इसे लोग भूले नहीं होंगे। नियम कहता है कि अगर सदन में एक भी सदस्य मतदान की मांग करे तो मतदान कराना होगा। लेकिन अनेक विपक्षी सदस्यों के बार-बार मांग करने के बावजूद तीनों बिल ध्वनि मत से पारित घोषित कर दिये गये। अपने को समाजवादी कहने का शौक रखनेवाले राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश जी की लज्जाजनक दरबारी भूमिका को लोग भूले नहीं होंगे। क्यों लाखों किसानों को घर-बार से दूर दिल्ली की सरहदों पर सर्दी, गर्मी, बरसात, हर मौसम की मार झेलते हुए, अपने तमाम निजी और पारिवारिक कामों का हर्जा उठाते हुए बैठे रहना पड़ा इसका विवेचन जब किया जाएगा, इतिहास लिखा जाएगा तो राज्यसभा के उपसभापति भी कठघरे में खड़े दिखेंगे। अब जब तीनों कृषि कानून वापस लेने की घोषणा मोदी जी ने कर दी है तो राज्यसभा के पीठासीन अधिकारी को अपने आप से पूछना चाहिए कि उन्होंने किस चीज के लिए अपने आप को गिराया था?
भारतीय जनता पार्टी के नेतागण और मंत्रिगण कल तक तीनों कृषि कानूनों के फायदे गिना रहे थे। अब वे मोदी जी की वाह वाह करेंगे कि मोदी जी ने किसानों की सुन ली। धन्यवाद मोदी जी। भाजपा के ये तमाम नेता तब सही थे या अब सही हैं? एक पार्टी जो एक समय सामूहिक नेतृत्व का दम भरती थी, उसमें घोर व्यक्ति पूजा की प्रवृत्ति बुरी तरह हावी हो गयी है, इस कदर कि वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया और तानाशाही रवैए का फर्क भूल गयी है। तीनों कृषि कानूनों को लेकर भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को लगातार किसानों का रोष, विरोध और बहिष्कार झेलना पड़ रहा था, लेकिन किसी की मजाल कि मुंह खोले! उलटे पंजाब और हरियाणा में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं कि किसानों से बातचीत करके मसले को सुलझाने की बात कहनेवालों को पार्टी से बाहर जाने का दरवाजा दिखा दिया गया।
पिछले एक साल में कभी ऐसा नहीं लगा कि भारतीय जनता पार्टी में मोदी जी को छोड़कर किसी और की राय मायने रखती है। कोई और कुछ सोचता भी है? कैबिनेट से लेकर संसदीय बोर्ड और पार्टी कार्यकारिणी तथा अन्य पार्टी समितियों तक, ऐसे लोग बैठे हुए हैं जिनका काम या तो मोदी जी की बात को तोते की तरह दोहराना है, ताली बजाना है, यह चुप रहना है। व्यक्ति पूजा की परिपाटी में ढली कांग्रेस में भी कभी इतना केंद्रीकरण नहीं था, इंदिरा गांधी के समय भी नहीं। आज भाजपा का काम बस मोदी की ब्रांडिंग करना और उस ब्रांड की रक्षा करना रह गया है।
तीस साल बाद किसी पार्टी को अकेले अपने दम पर लोकसभा में बहुमत मिला। पांच साल बाद फिर सत्ता में वापसी भी हुई, और अधिक सीटों के साथ। फिर भी मोदी जी अध्यादेश का राज चला रहे हैं। शुरुआत ही उन्होंने अध्यादेश से की थी जब दूरसंचार प्राधिकरण के कुछ नियम बदलने के लिए अध्यादेश जारी किया। फिर यूपीए सरकार के समय आम सहमति से बने भूमि अधिग्रहण कानून को पलटने के लिए उस कानून में संशोधन का अध्यादेश जारी कर दिया। यूपीए सरकार के समय बने भूमि अधिग्रहण कानून का भाजपा ने भी समर्थन किया था। फिर भी उस कानून को पलटने का अध्यादेश जारी करने में मोदी को तनिक भी हिचक नहीं हुई। लेकिन पार्टी को क्या हो गया था? जब मोदी जी अध्यादेश लाये, भाजपा में किसी ने चूं तक नहीं की। मोदी जी भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन क्यों करना चाहते थे? क्योंकि कंपनियां या कॉरपोरेट जगत वैसा चाहता था। और वह अध्यादेश एक बार नहीं, तीन बार जारी किया गया। उस अध्यादेश के विरोध में किसान संगठनों के प्रदर्शन होते रहे। मोदी जी ने आखिरकार अध्यादेश की जगह बिल लाने का इरादा छोड़ दिया, क्योंकि तब तक उन्हें यह अहसास हो गया था कि किसानों की नाराजगी उन्हें महंगी पड़ सकती है। शायद तब तक पार्टी के भीतर उनके अध्यादेश को लेकर भिन्न राय भी बनने लगी थी। इस तरह मोदी को सत्ता में आए कुछ ही समय हुआ था कि उन्होंने किसानों को आंदोलन के लिए मजबूर कर दिया था। तब भी उन्हें किसान की नहीं, कॉरपोरेट की चिंता थी।
बहुमत के बावजूद इस बार भी तीन कृषि कानूनों के लिए अध्यादेश लाये गये। अध्यादेश का प्रावधान आपातकालीन काम के लिए किया गया है, जो इतना फौरी और अत्यावश्यक हो कि उसके लिए संसद सत्र का इंतजार नहीं किया जा सकता। कृषि कानूनों पर तमाम चर्चाओं के दौरान सरकार की ओर से अपने बचाव में यह बार-बार कहा गया कि कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए विचार-विमर्श पिछली सरकारों के समय भी होता रहा था। यह कहने के पीछे एक खास मकसद तीन कृषि कानूनों पर विपक्ष का मुंह बंद करना रहा होगा, लेकिन इस दलील से साफ है कि ये कानून फौरी तकाजे के नहीं थे। फिर मोदी जी अध्यादेश क्यों लाये? क्या उन्हें यह डर रहा होगा कि बिल बनाने की प्रक्रिया में पार्टी में भिन्न राय भी उभर सकती है? और एक बार अध्यादेश जारी हो जाएगा तो उसकी जगह लाये जानेवाले बिल का समर्थन करना उनकी पार्टी की और सहयोगी दलों की मजबूरी हो जाएगी? जो हो, अध्यादेश भी जारी किया गया तो कोरोना और लाकडाउन के समय, ताकि सड़क पर भी विरोध का सामना न करना पड़े। सोचा होगा अगर कुछ विरोध हुआ भी तो उसे महामारी की आड़ में कुचल दिया जाएगा!
लेकिन वह अनुमान और हिसाब गलत साबित कर दिया किसानों की नाराजगी और जज्बे और किसान संगठनों की एकजुटता ने। अध्यादेश विधेयकों में और फिर कानूनों में बदल तो गये लेकिन इन कानूनों को बैरंग वापस लौटना पड़ा है।
बहरहाल, तीन कृषि कानूनों की कहानी हमारे लोकतंत्र के संकट की कहानी भी है। अगर भाजपा सिर्फ एक चुनावी मशीनरी और मोदी नाम के एक कथित ब्रांड की बैंड पार्टी में न बदल गयी होती तो खेती और किसानों से ताल्लुक रखनेवाले ऐसे कानून बनते ही नहीं। बन भी जाते तो उन्हें वापस कराने के लिए किसानों की इतनी कुर्बानी न ली जाती। लोकतांत्रिक संकट की बात करते समय मीडिया का भी जिक्र जरूरी है। मीडिया में जन समस्याओं की अनदेखी करने की प्रवृत्ति उदारीकरण का दौर शुरू होते ही बढ़ने लगी थी, क्योंकि उदारीकरण की नीतियों को अधिक से अधिक स्वीकार्य बनाने के लिए कड़वे यथार्थ को नहीं, गुलाबी तस्वीर को दिखाना जरूरी था। लेकिन मोदी राज में मीडिया का अधिकांश हिस्सा मजाक बनकर रह गया है। मोदी राज में तमाम संस्थाओं का पतन हुआ है, उसमें मीडिया अव्वल है। मीडिया के बड़े हिस्से ने किसान आंदोलन को बदनाम करने, लांछित करने, दुष्प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मोदी किसान आंदोलन को लेकर संवेदनहीन बने रहे हैं तो इसका एक कारण यह भी है कि उन्हें लगता था मीडिया-बल के सहारे वे किसान आंदोलन से निपट लेंगे, मीडिया के जरिए कृषि कानूनों का नित गुणगान आखिरकार आंदोलन की हवा निकाल देगा। गोदी मीडिया की साख तो पहले ही रसातल में थी, कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए सरकार के मजबूर होने से गोदी मीडिया की भद पिट गयी है।
तीनों कृषि कानूनों की वापसी का एलान करते हुए मोदी ने कहा कि उनकी तपस्या में कुछ कमी रह गयी थी जिस कारण वह इन कानूनों के बारे में कुछ लोगों को समझाने में सफल नहीं हो सके। तपस्या मोदी जी कर रहे थे या वे किसान, जो हर तरह की तकलीफ झेलते हुए एक साल से सड़क पर बैठे रहे हैं? इन कानूनों को पारित कराने के लिए मोदी महाशय ने कोई कष्ट उठाये थे या लोकसभा में भाजपा के बहुमत और भाजपा पर चंगुल जैसी अपनी पकड़ का बेरहमी से इस्तेमाल किया था? दूसरी बात, जिन्हें वह नहीं समझा पाये, वे बस कुछ ही लोग थे, तो एक मजबूत नेतृत्व सिर्फ कुछ लोगों का मन रखने के लिए झुक गया? जाहिर है उन्होंने भले कानून वापस लेने की घोषणा कर दी हो, वह अब भी सार्वजनिक रूप से यह सच्चाई स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि किसान आंदोलन को देशभर के किसानों का समर्थन हासिल था, हासिल है। यहां तक कि दूसरे तबकों का भी। तीन बार के भारत बंद ने यह साबित कर दिया था। तीसरी बात, अगर समझाने में नाकाम रहने के कारण उन्होंने कानून वापस ले लिये, तो यह कदम तभी क्यों नहीं उठाया, जब बातचीत टूट गयी थी? वार्ता का क्रम टूटने के बाद इतने महीनों तक उन्होंने पत्थर जैसी खामोशी क्यों ओढ़ रखी थी?
दरअसल मोदी तीनों कानूनों के फायदे किसानों के गले उतारने में इसलिए नाकाम रहे क्योंकि किसान इन कानूनों के संभावित नतीजे समझ चुके थे और उन्हें लग रहा था कि यह उनके लिए जीवन-मरण का सवाल है।
और मोदी जी के समझाने का तरीका क्या था? उनकी पार्टी के लोग किसानों को खालिस्तानी, मवाली और न जाने क्या-क्या तथा आंदोलन को कभी आढ़तियों का तो कभी विदेशी पैसे से संचालित बता रहे थे और मोदी जी चुप थे। और जब उन्होंने मुंह खोला तो मखौल उड़ाने के अंदाज में किसान नेताओं को आंदोलनजीवी करार दिया। समझाने का उनका तरीका मखौल उड़ाने और बदनाम करने तक सीमित नहीं रहा। हिंदू-सिख टकराव पैदा करने के प्रयास किए गए और धरना समाप्त कराने के लिए एक समय गाजीपुर बार्डर पर गुंडों का सहारा लिया गया तो आगे चलकर लखीमपुर हत्याकांड हुआ जिसे मोदी जी के गृह राज्यमंत्री की दो मिनट में सुधार देने की खुली धमकी के बाद गृह राज्यमंत्री के बेटे ने अंजाम दिया।
कहने को मोदी राष्ट्र के नाम अपने संदेश में माफी मांग चुके हैं। क्या उनका हृदय परिवर्तन हो गया है? फिर लखीमपुर हत्याकांड के इतने दिनों बाद भी टेनी साहब मोदी मंत्रिपरिषद में क्यों टिके हुए हैं? किसानों पर लट्ठ बजाने की बात कहनेवाले खटृर के खिलाफ क्या कार्रवाई की गयी? कार्रवाई तो दूर, रस्मी जवाब तलब तक नहीं किया गया। जाहिर है, मोदी जी को सिर्फ चुनाव समझ में आता है और किसान आंदोलन ने उन्हें न सिर्फ तीनों कानूनों का अर्थ बल्कि चुनाव भी समझा दिया है।
विपक्षी दलों ने विरोध किया जरूर लेकिन यह सड़क पर उतरा किसानों के विरोध का सैलाब था जो अंधभक्तों को छोड़कर पूरे देश की चेतना को झकझोरता रहा है। इस तरह कृषि कानूनों ने जहां हमारे लोकतंत्र की गहरी व्याधियों को उजागर किया वहीं किसान आंदोलन ने हमारे लोकतंत्र के बच पाने का भरोसा पैदा किया है। इस भरोसे को और पक्का करने की जरूरत है और इसकी जिम्मेदारी सिर्फ किसानों पर नहीं डाली जा सकती। दूसरे तबकों और समूहों को भी आगे आना होगा और अपने लोकतंत्र को मजबूत करने का एक साझा कार्यक्रम और अभियान चलाना होगा।