देश के शासक-वर्ग के सिर पर एक प्रेत मँडरा रहा है—एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रेत। बीते कुछ दिनों के भीतर इस शासक-वर्ग के अलग-अलग तबके, मतलब भारतीय जनता पार्टी के सियासी साथी, मुक्त-बाजार की पैरोकारी में लगे आर्थिक जगत के विचारक और पर्यावरण-प्रेम के नाम पर जेहादी तेवर दिखानेवाले कुछ योद्धा साँठगाँठ में लगे हैं। इन लोगों ने धूनी रमा ली है और मंत्र फूँक रहे हैं कि किसी तरह एमएसपी का प्रेत दूर हटे और किसानों की, उपज के उचित दाम मिलने की संभावना की राह में अड़चन खड़ी हो जाए।
तीन कृषि कानूनों के मोर्चे पर हद दर्जे की देरी के बाद बड़े नाटकीय अंदाज में नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने कदम पीछे खींचे और मोदी सरकार के कदम पीछे खींचने के साथ ही देश के बुर्जुआ भद्रलोक को भय सताने लगा है कि कहीं गाँवों में बसनेवाले हिन्दुस्तान का सितारा आसमान ना चढ़ने लगे। सो, न्यूनतम समर्थन मूल्य का मामला अब नया रणक्षेत्र बनकर उभरा है। रिफॉर्म यानी सुधार के जिस लफ्ज की हमारे वक्त में सबसे ज्यादा दुर्गति हुई है, उसी सुधार शब्द को नये हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात उठाने का मतलब है- आर्थिक सुधारों की पहलकदमियों में पलीता लगाना, सुधारों का अंत कर देना। जैसे ही संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) ने प्रधानमंत्री को याद दिलाया कि हमारी एक माँग न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी करने की भी थी तभी से धड़ाधड़ लेख छप रहे हैं, संपादकीय लिखे जा रहे हैं और लंबी-चौड़ी बहसें चलायी जा रही हैं—इस भय-भावना में कि कहीं प्रधानमंत्री एमएसपी की कानूनी गारंटी करने की माँग को मंजूर ना कर बैठें। ‘दि प्रिंट’ जो 50 शब्दों का अपना ‘अभिमत’ छापता है और जिससे अकसर मेरी सोच मेल खाती है उसी अभिमत में इस बार ‘दि प्रिंट’ ने लिखा है कि एमएसपी (न्यूतम समर्थन मूल्य) खेती-बाड़ी के लिए अभिशाप है और इसकी कानूनी गारंटी करना एकदम ही असंगत है।
जैसा कि विचारधाराई दुष्प्रचारों में अकसर होता है, एमएसपी के खिलाफ जगाया गया आलोचनाओं का यह अगिया-वैताल भी अज्ञानता, पूर्वग्रह और जालसाजियों के जोड़-गाँठ से बना है। सोचिए कि इस देश के मध्यवर्ग के हितों को प्रभावित करनेवाली कोई चीज होती जैसे कि शेयर मार्केट, प्रोविडेन्ट फंड (भविष्य निधि), कर्ज चुकाने की शर्तों में कोई फेरबदल तो क्या इन मुद्दों पर राष्ट्रीय मीडिया में यों ही झूठ की सरहदों को छूनेवाली अधकचरी जानकारी फैलायी जाती है।
एक ऐसे मुकाम पर जब किसानों का हमारा ऐतिहासिक संघर्ष अपने अंतिम और निर्णायक चरण में प्रवेश कर चुका है, एमएसपी के मसले पर फैलायी जा रही भ्रामक जानकारियों और दुष्प्रचारों की खबर लेना और उन्हें खारिज करना हमारे लिए जरूरी हो जाता है।
क्या किसान अपनी माँग में हेरफेर कर रहे हैं?
बहाना #1: किसानों ने अचानक नयी माँग उठा दी : किसान अपनी माँगों में हेरफेर कर रहे हैं और एक बार जब तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की उनकी मूल माँग मान ली गयी तो अब उन्होंने अपने लिए एक नयी माँग गढ़ ली कि एमएसपी की कानूनी गारंटी हो। यह निहायत नासमझी की बात है, एसकेएम (संयुक्त किसान मोर्चा) ने जो बात बारंबार कही है और जिसे लोग जानते भी हैं उसके एकदम ही उलटी बात! माँगों की फेहरिस्त में एमएसपी की कानूनी गारंटी करने की माँग शुरुआत से ही मुख्य थी। मतलब, तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की माँग के तुरंत नीचे यह माँग दर्ज थी कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की जाए और इस बात की परख आप हमारे संघर्ष के हर चरण में कर सकते हैं— जब हमने अपना पहला मेमोरेंडम दिया तब भी और फिर जो 11 दौर की सरकार के नुमाइन्दों से बातचीत चली उस सारे मुकाम से लेकर किसान-संसद के आयोजन तक। सरकार की ओर से जो पॉवर-प्वाइंट शैली का जवाब आया उसमें भी ये बात दर्ज है कि किसानों की एक माँग एमएसपी की कानूनी गारंटी करने की है। लोगों के बीच भी हमने एमएसपी की कानूनी गारंटी को एक मुख्य माँग के रूप में रखा, लगभग हर सार्वजनिक सभा में यह बात कही। हमारी इस माँग में ना तो कुछ नया है और ना ही कुछ ऐसा कि चौंकना पड़े— उपज का लाभकारी मूल्य तो दशकों से किसान-आंदोलन की प्रमुख माँग रही है।
‘एमएसपी तो मिल ही रही है’
बहाना #2 : एमएसपी थी, है और रहेगी : एमएसपी तो किसानों को हासिल है, मिल ही रही है तो फिर इसकी कानूनी गारंटी करने की ऐसी फिक्र क्यों? अफसोस कि एक बात ये भी है कि प्रधानमंत्री ने जो जुमला फेंका था कि ‘एमएसपी थी, है और रहेगी’ वह भी इस दूसरे झूठ को जिलाये-जगाये रखने में मददगार रहा। सच्चाई ये है कि एमएसपी अगर कहीं मौजूद है तो बस कागज पर। सरकार का अपना आंकड़ा बता रहा है कि इससे सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को लाभ होता है (मेरा ख्याल है, ज्यादा सही होगा यह कहना कि 12 प्रतिशत किसानों को लाभ होता है)। इसी कारण बरसों से किसान-आंदोलनों की तीन माँग रही है।
आप चाहें तो इन तीन माँगों को एमएसपी की कानूनी गारंटी करने की हमारी माँग के मुख्य घटक भी कह सकते हैं। किसान-आंदोलनों की एक माँग यह रही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को एक मजबूत वैधानिक आधार दिया जाए, उसे सिर्फ नौकरशाही के फरमान के रूप में ना रखा जाए। (साल 2011 में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में मुख्यमंत्रियों के एक कार्यसमूह ने तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ये सिफ़ारिश की थी। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग ने भी अपनी 2017-18 की रिपोर्ट में इस माँग को स्वर दिया।) दूसरी बात कि सरकार को इस वादे को अच्छी तरह निभाने के लिए भरपूर खजाना देकर एक कारगर प्रशासनिक ढाँचा खड़ा करना चाहिए ताकि हर किसान को अपनी सारी उपज के लिए कम से कम तयशुदा न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल हो जाए। (इस सरकार समेत पहले की तमाम सरकारों ने इस वादे को दोहराया है लेकिन वादे को अमली रूप देने के लिए कोई प्रशासनिक ढाँचा खड़ा नहीं किया)। तीसरी बात कि एमएसपी की गिनती के लिए एक व्यापक पद्धति अपनायी जानी चाहिए जिसमें तमाम तरह की सभी लागतों की गिनती हो और ऐसा किसान की हर तरह की उपज के लिए किया जाए। (यह सिफारिश स्वामीनाथन आयोग ने की थी)। ये तीनों ही माँग आज तक पूरी नहीं की गयी।
एमएसपी की कानूनी गारंटी से पर्यावरण का हर्जा होगा?
बहाना #3 : धान के फिजूल उत्पादन से पर्यावरण नष्ट : एमएसपी की कानूनी गारंटी कर देने पर खूब सारी सिंचाई वाली धान सरीखी फसलों की खेती ज्यादा होने लगेगी और फसलों में विविधता लाने की जो फौरी जरूरत बनी हुई है, उसको पूरा करने में देरी होती जाएगी। लेकिन इस तर्क में बड़ा झोल है : धान या फिर गन्ना सरीखी फसलों पर अगर किसानों की ज्यादा निर्भरता बनी हुई है तो ऐसा इसलिए नहीं कि एमएसपी दोनों हाथों से मुक्त-भाव से बाँटी जा रही है। धान और गन्ना सरीखी ज्यादा पानी की खपत वाली फसलों पर निर्भरता की मुख्य वजह यह है कि कृषि-उपज की सरकारी खरीद ही चुनिन्दा तरीके से होती है। सरकार घोषित तो करती है 23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य, लेकिन सरकारी खरीद ज्यादातर धान और गेहूँ की होती है और वह भी चुनिन्दा राज्यों में। जाहिर है, फिर ऐसे राज्यों के किसान उन्हीं फसलों को उपजाने में जुटे रहते हैं जिनको ज्यादा मात्रा में उपजाना पर्यावरण के लिहाज से नुकसानदेह है। इसका समाधान यह नहीं है कि फसलों पर दी जानेवाली एमएसपी ही हटा ली जाए। समस्या का समाधान किसानों को यह भरोसा दिलाने में है कि चना, मक्का, बाजरा और विभिन्न किस्म के दलहन की उपज की भी सरकारी खरीद होगी और इनपर भी एमएसपी मिलेगी। सरकार को दलहन (जैसा कि अरविन्द सुब्रमण्यन समिति की सिफारिश है) और तिलहन की उपज पर आकर्षक एमएसपी देनी चाहिए और इनकी खरीद सुनिश्चित करनी चाहिए।
क्या इससे बाजार की चाल-ढाल बेढब हो जाएगी?
बहाना #4 : खुले बाजार में दखलंदाजी : एमएसपी के मौजूदा चलन के मामले में किसी किस्म की तब्दीली होती है तो इससे बाजार बेढ़ब हो जाएगा। हाँ, बाजार की चाल पर असर पड़ेगा लेकिन ठीक वैसे ही जैसे कि भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (TRAI) के नियम-कायदों से दूरसंचार (टेली-कम्युनिकेशन) के क्षेत्र में खड़ा किया बाजार प्रभावित होता है या फिर कीमतों पर लगाम कसने से सड़क और वायु-मार्ग से होनेवाले परिवहन का बाजार प्रभावित होता है। क्या आपने कभी सुना कि मुक्त-बाजार के ये पैरोकार इस किस्म के नियमन के खिलाफ बोल रहे हैं? क्या हमें इस डर से कि कहीं श्रम-बाजार की चाल बेढब ना हो जाए, न्यूनतम मजदूरी तय करना रोक देना चाहिए? क्या हम यह चाहते हैं कि एस्पिरिन बाजार में 1000 रुपये प्रति टिकिया के भाव से बिके? जहाँ तक खाद्यान्न की कीमतों के बढ़ने का सवाल है, इसपर लगाम कसने का तरीका यह है कि गरीब जनता को अनुदानित मूल्य पर खाद्यान्न मिले।
खाद्यान्न की कीमतों पर लगाम कसने का तरीका यह नहीं है कि जो उपजा रहा है उसे उपज के वाजिब मूल्य से वंचित किये रखो। सच तो ये है कि दुनिया में हर जगह ‘मुक्त बाजार’ को कायदे-कानूनों की दायराबंदी के बीच सिमटकर चलना होता है और ऐसा होना भी चाहिए ताकि ज्यादा बड़े सामाजिक मकसद पूरे किये जा सकें। अगर उपज की न्यूनतम तयशुदा कीमत की गारंटी देना इतना ही बुरा खयाल है तो फिर एमएसपी की घोषणा ही क्यों की जाती है?
क्या सरकार के लिए नामुमकिन है?
बहाना #5 : सरकार के लिए सारी फसल खरीदना अव्यावहारिक : एमएसपी की गारंटी का विचार भले ही भला हो लेकिन विचार को अमल में लाना असंभव है, आखिर सरकार सभी 23 फसलों की सारी उपज की खरीदारी कैसे कर सकती है? इतनी सारी उपज को रखा कहाँ जाएगा? सरकार इतने बड़े पैमाने पर हुई उपज की खऱीद का क्या करेगी भला? और, इसी किस्म के अन्य तर्क दिये जा रहे हैं।
इन तर्कों का सीधा-सादा जवाब यह है : सभी किसानों को एमएसपी हासिल हो, ऐसा सुनिश्चित करने के लिए कोई भी सरकार इस किस्म के बेवकूफाना कदम उठाने की नहीं सोचेगी। मेरे सहकर्मियों और मैंने बारंबार कहा है कि सभी किसानों को एमएसपी फराहम करने के कई तरीके हैं। उपज की अभी जिस मात्रा में सरकारी खरीद होती है, उससे ज्यादा मात्रा की खरीद हो सकती है—खासकर दलहन, तिलहन और मोटे अनाज के मामले में। शेष की सरकारी खरीद की वैसी कोई जरूरत नहीं। किसानों को भावान्तर भुगतान कर दिया जाए यानी एमएसपी और उपज के प्रचलित बाजार-मूल्य के बीच जो अन्तर हो वह राशि सरकार किसान के खाते में डाल दे। इस साल हरियाणा की सरकार ने बाजरे की फसल के मामले में भावान्तर की राशि भुगतान करने का यही तरीका अपनाया है। सरकार कुछ मामलों में चुनिन्दा तौर पर बाजार में हस्तक्षेप भी कर सकती है या फिर अंतरराष्ट्रीय बाजार के मामले में संरक्षणवादी नीतियाँ अपना सकती है ताकि उपज की कीमतें गिरने ना लगें। आखिर को एक उपाय यह भी किया जा सकता है कि एमएसपी से कम कीमत पर बाजार में खरीद हो रही है तो इसे रोकने के लिए दंड देने का रास्ता अपनाया जाए। बेशक, यह सब करना तनिक जटिल है। लेकिन, एमएसपी फराहम करने के तौर-तरीके और संरजाम खड़े करना वैसा भी जटिल नहीं जितना कि विनिवेश के उपाय या फिर खनिजों के ठेके देने की जुगत सोचना।
क्या सरकार का दिवाला पिट जाएगा?
बहाना #6 : सरकार दिवालिया हो जाएगी : एमएसपी की कानूनी गारंटी करने से देश का दिवाला पिट जाएगा! दोस्त किरण विस्सा के साथ मिलकर मैंने एक कच्चा आकलन पेश किया और भय-भावना फैलाने की इस जुगत की पोल खोलने की कोशिश की है। हमने अपने आकलन में मदवार बताया है कि सरकार को प्रचलित बाजार-भाव और घोषित एमएसपी के बीच की भावान्तर राशि का अन्तर चुकाने में कितना खर्च करना होगा। हमने साल 2017-18 के लिए जो आकलन किया उससे पता चलता है कि सरकार को 47,764 करोड़ रुपये की लागत आएगी (यह साल 2017-18 के लिए तय केंद्रीय बजट का 1.6 प्रतिशत यानी देश के सकल घरेलू उत्पाद का 0.3 प्रतिशत था)। अगर एमएसपी को उस स्तर तक बढ़ाते हैं जिसकी सिफारिश स्वामीनाथन आयोग ने की है तो सरकार की लागत 2.28 लाख करोड़ की बैठेगी (मतलब बजट का 7.8 प्रतिशत और देश की जीडीपी का 1.2 प्रतिशत)। क्या हमारा देश अपनी दो तिहाई आबादी के लिए इतना खर्चा उठा सकता है? यही असली सवाल है और देश को इस सवाल का सामना करना ही होगा।
शुक्र कहें ऐतिहासिक किसान-आंदोलन का कि देश अब राजनीतिक सच्चाइयों को लेकर आगाह हो चला है : सच्चाई यह है कि किसान इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दी गयी शय नहीं बल्कि किसान भारत के वर्तमान और भविष्य का अटूट हिस्सा हैं। और, ऐसी समझ का तकाजा है कि एमएसपी की गिनती का ईमानदार तरीका अपनाते हुए हर किसान को उसकी सारी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य कारगर तरीके से मुहैया कराया जाए। जैसा कि ए आर वसावी का कहना है, अब वक्त ‘अधिकतम समर्थन मूल्य की नीति’ अपनाने की तरफ कदम उठाने का है। मामला अब बस राजनीतिक इच्छा-शक्ति का है।
( द प्रिंट से साभार )