क़ैफी आज़मी की नज़्म

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पेंटिंग : प्रयाग शुक्ल
कैफ़ी आज़मी (14 जनवरी 1919 – 10 मई 2002)

किसान

 

चीर के साल में दो बार ज़मीं का सीना

        दफ़्न हो जाता हूँ

गुदगुदाते हैं जो सूरज के सुनहरे नाख़ुन

        फिर निकल आता हूँ

अब निकलता हूँ तो इतना के बटोरे जो कोई दामन में

         दामन फट जाए

घर के जिस कोने में ले जाके कोई रख दे मुझे

         भूक वहाँ से हट जाए

फिर मुझे पीसते हैं, गूँधते हैं, सेंकते हैं

         गूँधने सेंकने में शक्ल बदल जाती है

         और हो जाती है मुश्किल पहचान

         फिर भी रहता हूँ किसान

वही ख़स्ता, बदहाल

क़र्ज़ के पंजा-ए-ख़ूनीं में निढाल

इस दराँती के तुफ़ैल

कुछ है माज़ी से ग़नीमत मिरा हाल

हाल से होगा हसीं इस्तिक़्बाल

उठते सूरज को ज़रा देखो तो

हो गया सारा उफ़ुक़ लालो-लाल

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